Friday, March 29, 2024
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बहादुरशाह जफर को कू ए यार में दो गज जमीन कब?

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कृष्ण प्रताप सिंह
कृष्ण प्रताप सिंह

अक्टूबर, 1858 में निर्वासन के बाद के पस्ती और टूटन भरे दिनों में अपनी तकलीफें बयान करने का बहादुर शाह जफर के पास एक ही माध्यम थी-उनकी शायरी। अंग्रेजों ने अपनी कैद में उन्हें कलम, रोशनाई और कागज तक के लिए तरसाना शुरू किया तो उन्होंने र्इंटों के रोड़ों को कलम और दीवारों को कागज बनाकर अपनी गजलें लिखीं। ‘दिन जिंदगी के खत्म हुए, शाम हो गई’ तो उनके निकट सबसे बड़ी बदनसीबी यह थी कि दफन होने के लिए ‘दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में!’ अफसोस कि सवा अरब लोगों का यह देश अपनी आजादी के सात दशकों बाद भी अपने आखिरी बादशाह की यह बदनसीबी नहीं दूर कर सका है!

भारत के 17वें और अंतिम मुगल बादशाह मिर्जा अबू जफर सिराजुद्दीन मोहम्मद को आमतौर पर बहादुरशाह जफर के नाम से जाना जाता है। वे कम से कम दो मामलों में बाकी सोलहों मुगल बादशाहों से अलग थे। पहला यह कि वे शायरदिल थे और दूसरा यह कि उनकी दो-दो ताजपोशियां हुर्इं। पहली 29 सितम्बर, 1837 को पिता अकबर द्वितीय के उत्तराधिकारी के रूप में और दूसरी 11 मई, 1857 को, जब अंग्रेजों ने उनकी सत्ता दोनों ताजपोशियों के गवाह लाल किले तक सीमित कर डाली थी। तब देश की आजादी के जुनून में बागी हुए सैनिक जिस तरह मेरठ से बिगुल बजाते हुए दिल्ली पहुंचे, जफर में विश्वास जताकर उन्हें अपना नेता चुना और उनकी फिर से ताजपोशी की, वह अब हमारे देश के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। लाचार जफर ने सैनिकों से कहा कि उनके पास खजाना कहां है जो वे उन्हें तनखाहें देंगे, तो सैनिकों ने वचन दिया था कि वे अंग्रेजों द्वारा लूटा गया उनका सारा खजाना फिर से लाकर उनके कदमों में डाल देंगे।

24 अक्टूबर, 1775 को जन्मे 82 साल के जफर की भुजाएं, कहते हैं कि, इसके बाद फड़कने लगी थीं। तब उन्होंने बागियों का नेतृत्व स्वीकार कर लिया था और कर लिया तो कैसे भी दिन आए, पीछे मुड़कर नहीं देखा था। तब भी नहीं जब बागियों का सारा कस बल खत्म हो गया, अंग्रेजों ने छल-छद्म से जंग जीत ली, दिल्ली का पतन हो गया और जफर को हुमायूं के मकबरे में शरण लेनी पड़ी।

विलियम हडसन ने वहां जाकर उन्हें गिरफ्तार किया और अगले ही दिन दिल्ली गेट व खूनी दरवाजे के पास उनके दो बेटों मिर्जा मुगल व मिर्जा खिज्र सुल्तान और पोते मिर्जा अबूबक्र की हत्या कर दी। उनके कटे हुए सिर उसने जफर को पेश किये तो उन्होंने कहा, ‘इतिहास गवाह है, हमारी संतानें अपने बड़ों के सामने ऐसे ही सुर्खरू होकर सामने आती रही हैं।’

अंग्रेजों द्वारा जफर के खिलाफ राजद्रोह व हत्याओं के आरोप लगाए गए। 27 जनवरी से 09 मार्च, 1858 तक मुकदमे के 40 दिन लंबे नाटक के बाद कहा गया कि गिरफ्तारी के समय दिए गए वचन के मुताबिक बर्मा निर्वासित करके उनकी जान बख्श दी जा रही है। वास्तव में उनकी बूढ़ी आंखों को उनके दिल के टुकड़ों के कटे हुए सिर देखने को मजबूर करके यह जानबख्शी जान लेने से बड़ी सजा थी। इसलिए कि उनकी हालत ‘जो किसी के काम न आ सके, उस एकमुश्त ए गुबार’ जैसी कर दी गई थी।

प्रसंगवश, उनका ताज अभी भी लंदन के रायल कलेक्शन में रखा है और देशाभिमानी भारतीयों की गैरत को ललकारता रहता है। इसके दो कारण हैं : पहला यह कि जफर हमारे उस स्वतंत्रता संग्राम के नायक हैं, जिसमें हम हार भले ही गए थे, पर हिंदुओं व मुसलमानों ने उसे एकजुट होकर लड़ा था और अपनी एकता की शक्ति प्रमाणित कर दी थी। दूसरे, उनकी माता ललनबाई हिंदू थीं और पिता मुस्लिम। उनकी संतान के रूप में भी वे हमारे साझा सांस्कृतिक मूल्यों को पुष्ट करते हैं।

अक्टूबर, 1858 में निर्वासन के बाद के पस्ती और टूटन भरे दिनों में अपनी तकलीफें बयान करने का उनके पास एक ही माध्यम थी-उनकी शायरी। अंग्रेजों ने अपनी कैद में उन्हें कलम, रोशनाई और कागज तक के लिए तरसाना शुरू किया तो उन्होंने र्इंटों के रोड़ों को कलम और दीवारों को कागज बनाकर अपनी गजलें लिखीं। ‘दिन जिन्दगी के खत्म हुए, शाम हो गयी’ तो उनके निकट सबसे बड़ी बदनसीबी यह थी कि दफन होने के लिए ‘दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में!’ अफसोस कि सवा अरब लोगों का यह देश अपनी आजादी के सात दशकों बाद भी अपने आखिरी बादशाह की यह बदनसीबी नहीं दूर कर सका है!

1903 में भारतीयों का एक दल जफर को श्रद्धांजलि देने बर्मा गया तो किसी को पता ही नहीं था कि सम्बन्धित कब्रिस्तान में उनकी कब्र कौन-सी है। अंग्रेजों ने उन्हें अपमानित करने के लिए बर्मा में एक जूनियर अधिकारी के गैरेज में कैद कर रखा था और सात नवम्बर, 1862 को निधन और यंगून के एक कब्रिस्तान में दफन के वक्त भी उनकी गरिमा का खयाल नहीं रखा था। वे डरे हुए थे कि जफर के इंतकाल की खबर फैलने से भारत में एक बार फिर बगावत भड़क सकती है। इसलिए उन्होंने सारी रस्में गुपचुप ढंग से जैसे-तैसे निपटा डाली थीं।

1907 में बढ़ते जनदबाव के बीच जफर की कब्र को चिह्नित करके वहां एक शिलालेख लगाया गया, लेकिन 1991 में एक खुदाई के वक्त पता चला कि वास्तविक कब्र उस शिलालेख से 25 फिट दूर है। कई लोग अब उसे जफर की दरगाह कहते हैं। 1994 में भारत ने उसके बाहर एक प्रार्थना सभागार बनवाया और अब म्यांमार में जफर से जुड़े स्थलों की देखरेख बहादुरशाह म्यूजियम कमेटी करती है। पहले यह काम उनके वारिसों का ट्रस्ट किया करता था।

मनमोहनराज में 1857 की डेढ़ सौंवीं वर्षगांठ आई और उसे देश भर में उत्साहपूर्वक मनाया गया तो बार-बार आवाज उठी कि जफर के अवशेषों को बर्मा से भारत लाना और मेहरौली में सूफी संत ख्वाजा बख्तियार काकी के आस्ताने के करीब दफनाना खहिए। ताकि कू-ए-यार में दो गज जमीन की उनकी हसरत पूरा हो जाये। दरअस्ल, जफर ने दिल्ली में रहते अपने सुपुर्द ए खाक होने के लिए वही जगह चुन रखी थी। 2006 के अंत में मनमोहन के सरकारी निवास पर देश के नामचीन कलाकारों, समाजसेवियों, राजनेताओं व पत्रकारों आदि की बैठक में सर्वोदय नेता और सांसद निर्मला देशपांडे के इस आशय के सुझाव को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया था। बैठक में सोनिया गांधी, लालकृष्ण आडवाणी, एबी वर्धन, प्रकाश करात, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार जैसी पक्ष विपक्ष की अनेक हस्तियों की उपस्थिति से लगा था कि अब इस काम में कतई देर नहीं होगी। इसलिए भी कि बर्मा सरकार भी इसमें बाधक नहीं थी।

अंग्रेजों ने जफर को भारत से बर्मा निर्वासित किया तो बर्मा के मांडले के शासक को निर्वासित करके महाराष्ट्र के रत्नागिरी में ले आए थे। बर्मा सरकार चाहती थी कि भारत के साथ उक्त शासक व जफर के अवशेषों की अदला-बदली कर ली जाए। लेकिन जैसी कि हमारी सत्ताओं की आदत है, डेढ़ सौंवीं वर्षगांठ गई और बात खत्म हो गयी।

प्रसंगवश, नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने 1942 में अपना ऐतिहासिक ‘दिल्ली चलो’ अभियान जफर की कब्र पर प्रार्थना करके शुरू किया था। उनके चालक रहे कर्नल निजामुद्दीन दावा करते हैं कि चालीस के दशक में नेता जी ने, जहां जफर को दफ्न किया गया था, उस कब्रिस्तान में गेट लगवाया और उनकी कब्र को पक्की कराया था। कब्र के सामने चहारदीवारी भी बनवायी थी।

अंग्रेजों ने जफर के साथ जो सलूक किया, दुश्मन के तौर पर उन्हें वही करना ही चाहिए था, लेकिन अब हम वह नहीं कर रहे जो जफर के देश और वारिस के तौर पर करना चाहिए। लाहौर में उनके नाम पर सड़क है और बंगलादेश में पुराने ढाका के विक्टोरिया पार्क का नामकरण उनके नाम पर कर दिया गया है। लेकिन हम अभी भी उन्हें कू ए यार में दो गज जमीन का मोहताज बनाए हुए हैं। आखिर उनकी बदनसीबी अभी और कितनी लंबी होगी? कब तक उन्हें इतने भर से संतुष्ट रहना होगा कि भारत, पाकिस्तान या बंगलादेश के शासक या नेता म्यांमार जाते हैं तो उनकी कब्र पर अकीदत के फूल चढ़ाने जरूर जाते हैं।

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