बिहार राजनीति, कूटनीति और अर्थशास्त्र के पंडित माने जाने वाले चाणक्य की धरती है जिसने चंद्रगुप्त मौर्य को पाटलिपुत्र पर राज करने के तरीकों और राजनीति के रहस्यों से रूबरू करवाया था। बिहार की गद्दी पर पिछले डेढ़ दशक से ज्यादा वक्त से विराजमान नीतीश कुमार को मात दे पाना सियासी दलों और राजनेताओं के लिए आसान कभी नहीं रहा है। बिहार की एक क्षेत्रीय पार्टी जेडीयू जिसमें सेंधमारी की कोशिशें कई हुई और इसे बड़े दलों की ओर से हवा भी मिली लेकिन इन तमाम प्रयासों को नीतीश कुमार ने चुटकी में हवा हवाई कर दिया। ताजा मामले में ललन सिंह को अध्यक्ष पद से हटा नीतीश कुमार ने एक बार फिर अपने एक्शन से साफ कर दिया है कि नीति सिद्धांत जो वो कहेंगे वही हैं, और उन्हें किसी के साथ विचार विमर्श या नसीहत की जरूरत नहीं। इसी शुक्रवार को जनता दल यूनाइटेड के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया या यूं कहें दिलवाया गया और एक बार फिर से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पार्टी अध्यक्ष की कमान संभाल ली। नीतीश कुमार ललन सिंह को उनके पद से हटाने की तैयारी पिछले कई दिनों से कर रहे थे। मीडिया सूत्रों से जानकारी सामने आई कि ललन सिंह ने जेडीयू के 10-11 विधायकों के साथ सीक्रेट मीटिंग की थी। रिपोर्ट में दावा किया गया कि ललन सिंह तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। इससे संबंधित प्रस्ताव ललन सिंह ने नीतीश कुमार के सामने भी रखा था जिसे बिहार मुख्यमंत्री ने ठुकरा दिया था जिसके बाद लालू यादव के साथ डील के तहत ललन सिंह ने जदयू के कुछ विधायकों के साथ गुपचुप मीटिंग की। ललन सिंह तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने के मिशन में लगे और बदले में उन्हें राजद से राज्यसभा भेजे जाने का प्रस्ताव भी मिला। सूत्रों ने दावा किया कि मनोज झा का कार्यकाल खत्म हो रहा है और लालू ने तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाने की एवज में ललन सिंह को राज्यसभा भेजने का प्रस्ताव दिया। ललन सिंह इस बार मुंगेर से लोकसभा चुनाव लड़ने के इच्छुक नजर नहीं आ रहे हैं।
हालांकि ऐसा पहली बार नहीं है कि नीतीश ने अध्यक्ष पद की कुर्सी से किसी नेता को हटाते हुए खुद से ये जिम्मेदारी ली हो। इससे पहले इतिहास में ढेरों ऐसे उदाहरण देखने को मिले हैं, जब जेडीयू में टूट की खबर और किसी नेता के सीक्रेट बैठक को लेकर जानकारी सामने आई हो और नीतीश ने ऐसा फैसला लिया हो। शरद यादव से लेकर ललन सिंह तक किरदार बदलते रहे लेकिन कहानी कमोबेश वही रही। इन सब से सबसे महत्वपूर्ण है कि आॅपरेशन जदयू को कई नेताओं और दलों की तरफ से अंजाम देने की कोशिश की गई। लेकिन नीतीश कुमार ने समय रहते हुए न केवल खतरे को भांपा बल्कि उसे मजबूती के साथ काउंटर करते हुए सबसे बड़े लड़ैया बनकर उभरे भी है।
गौरतलब है कि इसके पूर्व असहमत होने पर जॉर्ज फर्नांडिस जैसे समता पार्टी के संस्थापक, शरद यादव जैसे धुरंधर और जय नारायण निषाद व कुशवाहा जैसे अनेक उदाहरण इतिहास को टटोलने पर मिल जाएंगे जो असहमति जताने पर एक झटके में बाहर कर दिए गए। शरद शादव और नीतीश के बीच मनमुटाव तब पैदा हुआ जब नरेंद्र मोदी को पीएम कैंडिडेट घोषित किया गया। इस फैसले से नीतीश इतने नाराज हुए कि उन्होंने एनडीए से 17 साल पुराना नाता तोड़ लिया। तब शरद यादव एनडीए के संयोजक हुआ करते थे और उन्हें इस पद से इस्तीफा देना पड़ा था। इसके अलावा लालू के साथ जाना भी यादव को नागवार गुजरा और उन्होंने नीतीश के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। परिणामस्वरूप नीतीश ने एक झटके में शरद यादव को बाहर का रास्ता दिखा दिया।
16 सितंबर 2018 को प्रशांत कुर्ता-पायजामा में नजर आए और इसी तारीख से उनके चुनावी रणनीतिकार से राजनेता का सफर भी शुरू हुआ। 16 सितंबर की सुबह पटना में जदयू मुख्यालय में नीतीश कुमार के हाथों उन्होंने पार्टी की सदस्यता ली। जिसके एक महीने के भीतर ही नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर को जदयू का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी बना दिया। लेकिन कल तक प्रशांत का हाथ पकड़कर उन्हें राजनीति का भविष्य बताने वाले नीतीश सरकार को लेकर आम चुनाव से पहले एक कार्यक्रम में प्रशांत किशोर ने कह दिया कि नीतीश कुमार को राजद से गठबंधन तोड़ने के बाद फिर से चुनाव कराना चाहिए था। जिसके बाद चुनावी भागीदारी से अपनी पार्टी में ही प्रशांत किशोर दरकिनार कर दिए गए थे।
अब जब नीतीश ने पार्टी की कमान अपने हाथ में ले ली है, तब वह हर तरीके से सहयोगी दलों के साथ डील खुद करेंगे। इसके साथ ही वह पार्टी में किसी भी संभावित फुट को भी रोक सकते हैं। ललन सिंह को पूरी तरीके से भाजपा विरोधी माना जाता रहा है। ऐसे में अगर नीतीश कुमार के एनडीए में लौटने की कोई संभावनाएं बनती हैं तो उसमें कोई बाधा नहीं रहेगा। भाजपा की ओर से नीतीश कुमार को लगातार बड़े आॅफर मिले हैं। नीतीश कुमार पार्टी के नेताओं से अब सीधे कांटेक्ट में रहना चाहते हैं। वह अपने नेताओं और उनके बीच में किसी दीवार को नहीं रखना चाहते। पार्टी का कमान नीतीश के हाथ में आने से कार्यकर्ताओं में उत्साह बढ़ेगा। इसके अलावा बिहार के मुख्यमंत्री का राष्ट्रीय स्तर पर कद बढ़ने के साथ-साथ उनकी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी भी मजबूत होगी।
चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर नीतीश कुमार को लेकर एक बार जरूर कहते हैं कि जब भी बिहार के मुख्यमंत्री कोई दरवाजा बंद करते हैं तो उसकी खिड़की को खुला रखते हैं। इसका मतलब साफ है कि नीतीश कुमार अगर राजद के साथ हैं तो वह भाजपा से बातचीत का विकल्प हमेशा खुला रखे हुए थे। यह बात भी सच है कि 2024 लोकसभा चुनाव के लिहाज से बिहार में भाजपा के लिए नीतीश कुमार बेहद अहम है। बिहार में लोकसभा के 40 सीटें हैं। बिहार में पिछली दफा एनडीए गठबंधन ने 39 सीटों पर जीत हासिल की थी। तब नीतीश कुमार भाजपा के साथ थे। बिहार में लाख कोशिशें के बावजूद भी भाजपा ने अब तक अपना कोई कद्दावर नेता तैयार नहीं किया है। भाजपा की नैया चुनाव में नीतीश कुमार के सहारे ही पार लगती आई है। यही कारण है कि भाजपा लोकसभा चुनाव से पहले बिहार में सेफ गेम खेलने की कोशिश कर रही है और नीतीश को अपने पाले में लाना चाहती है।
इंडिया गठबंधन भी हर कीमत पर नीतीश कुमार को अपने साथ रखना चाहता है। नीतीश कुमार की नाराजगी की चर्चाओं के बीच खुद राहुल गांधी उनसे बातचीत की कोशिश में लग रहे हैं। पिछले दिनों दोनों नेताओं की बातचीत पर हुई थी। इंडिया गठबंधन की नींव नीतीश कुमार ने ही डाली थी। हालांकि बाद में इसमें पूरी तरीके से कांग्रेस का दबदबा दिखने लगा जो कि नीतीश को पसंद नहीं आया। नीतीश कुमार इंडिया गठबंधन को भी संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि मुझे हल्का समझने की कोशिश ना करें। मैं अब भी मजबूत हूं और मेरी उपयोगिता बिहार में अब भी बरकरार है।