Monday, May 5, 2025
- Advertisement -

मेट्रो से कम जरूरी नहीं हैं बसें

RAVIWANI


AMITABH Sदिल्ली में कारों की तादाद बीते 20 सालों से तिगुनी- चौगुनी हो गई हैं। कल्पना की जा सकती है कि अगर मेट्रो न होती, तो क्या होता? तय है कि दुनिया के हर शहर में रेल और मेट्रो का शानदार नेटवर्क होने के बावजूद बसों का उत्तम नेटवर्क होना लाजमी है। बसों की व्यवस्था चरमरानी नहीं चाहिए, वरना मेट्रो का सारा नेटवर्क जाया चला जाएगा। बीसेक साल पहले दिल्ली में जब मेट्रो दौड़ी, तो उम्मीद थी कि दिल्ली की यातायात व्यवस्था सुचारू हो जाएगी, ट्रैफिक जाम के दिन- प्रतिदिन के सिरदर्द से छुटकारा मिल जाएगा। लेकिन संभावना से उलट हुआ। मेट्रो का जाल भी फैलता गया, और सड़कों पर ट्रैफिक भी घटने की बजाय बराबर बढ़ता गया।

सड़कों पर आना- जाना बद से बदतर होता गया। इंटरनेशनल रोड फेडरेशन के 2020 के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में 1.18 करोड़ रजिस्टर्ड वाहन हैं। इनमें से 34 फीसदी प्राइवेट वाहन हैं, जो जाहिर करते हैं कि दिल्ली में पब्लिक ट्रांसपोर्ट की व्यवस्था चरमरा रही है, इसलिए लोग रुपयों का इंतजाम होने पर खुद के वाहन खरीदना और उनसे आना- जाना पसंद करते हैं।

दिल्ली क्या, भारत के किसी भी महानगर या शहर में चले जाएं, पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बसों की तादाद पर्याप्त नहीं है। लंदन का बस सिस्टम दुनिया भर में बेस्ट माना जाता है। लंदन में बस स्टॉपों पर बस के आने-जाने का टाइम टेबल लगता है। कमाल की बात है कि बस ऐन वक्त पर स्टॉप पर आ रूकती है। मुसाफिर की घड़ी एक- आध मिनट आगे-पीछे हो सकती है, बस के आने का समय कतई नहीं।

बसें संकरी से संकरी गलियों में भी आराम से गुजर जाती हैं। कंडक्टर नहीं होते, ड्राइवर के एक तरफ कंप्यूटर लगा है। ड्राइवर ही कंप्यूटरी टिकट देता है। बस स्टॉप पर बस रुकवाना हो, तो सीटों के साथ-साथ लगे स्विच दबाइए। बस ऐन स्टॉप पर रूक जाएगी। ऐसी बसें जिस भी महानगर में हों, वहां लोग क्यों अपने वाहन चलाना चाहेंगे।

यह आलम तब है, जब लंदन की आबादी करीब 90 लाख है, और वहां की सड़कों पर 9,000 बसें दौड़तीं हैं। इनमें करीब 80 फीसदी बसें डबल डेकर हैं। यानी असल क्षमता 15,000 बसों की है। दूसरी ओर दिल्ली 2 करोड़ लोगों का शहर है, और 7,000 से कम बसें हैं। दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉपोर्रेशन के पास इलेक्ट्रिक बसें मिला कर 4,000 से कम बसें हैं। इनके अलावा करीब 3,000 क्लस्टर बसें भी दौड़ती हैं।

एक भी बस डबल डेकर नहीं है। दूसरे शब्दों में, लंदन के मुकाबले दुगुनी से ज्यादा आबादी की दिल्ली में उससे आधी से कम बसें हैं। और हां, लंदन की अंडरग्राउंड ट्यूब (मेट्रो) और सबअर्बन रेल दोनों का साझा नेटवर्क करीब 1,000 किलोमीटर है। दिल्ली की मेट्रो का मौजूदा नेटवर्क फिलहाल 400 किलोमीटर पर 286 मेट्रो स्टेशनों के आसपास है। यहां के ज्यादातर लोगों के लिए मेट्रो पहुंच से परे है, क्योंकि मेट्रो तक पहुंचने के लिए बसें नहीं हैं, या कम हैं।

शहरी यातायात में बसें बड़ा अहम रोल निभाती हैं। बसें ही रेल और ट्यूब के बीच फीडर का बखूब काम करती हैं। कह सकते हैं कि 1,000 किलोमीटर रेल और मेट्रो के नेटवर्क के बावजूद दिल्ली से आधी आबादी वाले लंदन में आधे से ज्यादा बसें कामयाबी की वजह बनी हैं। समझना होगा कि मेट्रो की भांति पब्लिक ट्रांसपोर्ट की सफलता बसों पर अधिक निर्भर करती है।

असल में, लंदन में बीते बीसेक सालों से ‘ट्रांसपोर्ट आॅफ लंदन’ नाम से सरकारी उपक्रम है, जो समूची पब्लिक ट्रांसपोर्ट के इंतजामात की देखरेख करता है। सिंगापुर भी ऐसा कर रहा है। लंदन मॉडल पर सिडनी ने ‘ट्रांसपोर्ट आॅफ न्यू साउथ वेल्स’ बनाया है। न्यूयार्क में भी ‘मेट्रोपोलिटन ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी’ यह काम करती है।

ज्यादातर देशों में ट्रैफिक फौजदारी या क्रीमिनल अपराध है, इसलिए पुलिस के तहत आता है। लेकिन लंदन में सिविल और क्रीमिनल दोनों हैं। जैसे गैर पार्किंग इलाके में गाड़ी खड़ा करना और बस लेन में गाड़ी चलाना दोनों पुलिस के मामले नहीं हैं। जबकि ट्रैफिक लाइट कूदना, निर्धारित गति सीमा का उल्लंघन करना जैसे अपराध पुलिस मामले हैं।

लंदन में सड़क नियमों को तोड़ने वालों पर ग्रेटर लंदन अथॉरिटी एक्ट लागू है। क्योंकि 83 फीसदी सड़क दुर्घटनाएं लाल बत्ती पार करने, रांग साइड पर जाने, दारू पी कर चलाने और खतरनाक ड्राइविंग से होते हैं। दिल्ली में ऐसा होना मुमकिन कहां है, क्योंकि यहां केंद्र, राज्य, नगर निगम और पुलिस कई मंत्रालयों की दखलंदाजी हो जाएगी।

यातायात के लिहाज से दिल्ली बेहद जटिल महानगर है। द नेशनल अर्बन ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी 2006 और मेट्रो रेल पॉलिसी 2017 होने के बावजूद समस्या है कि इनकी बैठकें महीने- दो महीने में एक दफा होती हैं, और कुछ बात आगे नहीं बढ़ पाती। दिल्ली की यातायात समस्या राजनीति कलह से ही पैदा हुई है।

भारत के चेन्नई, कोच्चि और बेंगलुरु इस मसले में देश में सबसे ज्यादा बढ़त बनाए हैं। दिल्ली में कंजेशन (भीड़भाड़) चार्ज वसूले जाने पर भी चर्चा होती रहती है। ट्रैफिक कंट्रोल करने वाले और सड़कों का प्रबंधन करने वाले संगठनों को संग आना होगा। कंजेशन चार्ज का सबसे ज्यादा फायदा पब्लिक ट्रांसपोर्ट को होता है।

एक सारे भीड़भाड़ के प्रबंधन पर खर्च करता है, तो दूसरा मजे लेता है। लंदन में हाईवेज के इंतजाम और बसों का चालन ‘ट्रांसपोर्ट आॅफ लंदन’ नामक एक संगठन के जिÞम्मे है। हालांकि यह लंदन की 32,000 मील सड़कों में से केवल 500 मील सड़कों का ही ‘स्वामित्व’ संभालता है। लेकिन ये सड़कें लंदन की व्यस्त सड़कों में शुमार हैं, जिन पर आधे से ज्यादा ट्रैफिक दौड़ता है।

सवाल किसी शहर के आकार- प्रकार का नहीं है। बल्कि यातायात निर्भर करता है शहर के मिजाज पर। शहर का मिजाज आर्थिक गतिविधियां से बनता- बिगड़ता है। आर्थिक गतिविधियां उभरने से ही शहर बसते जाते हैं। दुनिया के किसी भी आर्थिक महानगर पर गौर कीजिए, बेशक लंदन, या न्यूयार्क, या हांगकांग, या सिंगापुर, या फिर पेरिस, सभी कमोबेश एक जैसे हैं- भारी भीड़भाड़ और शहरी संघन के चरित्र संजोए। और दूर- दराज होते हैं रिहाइशी इलाके।

मिसाल के तौर पर, दिल्ली में 1960 -70 के दशक तक चांदनी चौक, सदर बाजार, पहाड़गंज, कनॉट प्लेस, करोल बाग वगैरह में ही कारोबार था। फिर नेहरू प्लेस और राजेंद्र प्लेस जैसे शॉपिंग हब विकसित किए गए। कारोबार बंट गया। फिर मेट्रो से जोड़ने की कोशिशें हुर्इं। नतीजे सामने हैं। सड़कों पर यातायात पहले से बदतर हुआ है।

दिल्ली में कारों की तादाद बीते 20 सालों से तिगुनी- चौगुनी हो गई हैं। कल्पना की जा सकती है कि अगर मेट्रो न होती, तो क्या होता? तय है कि दुनिया के हर शहर में रेल और मेट्रो का शानदार नेटवर्क होने के बावजूद बसों का उत्तम नेटवर्क होना लाजमी है। बसों की व्यवस्था चरमरानी नहीं चाहिए, वरना मेट्रो का सारा नेटवर्क जाया चला जाएगा।


janwani address 212

spot_imgspot_img

Subscribe

Related articles

Share Market: शेयर मार्केट की हरियाली के साथ शुरूआत,जाने सेंसेक्स और निफ्टी के हाल

नमस्कार,दैनिक जनवाणी डॉटकॉम वेबसाइट पर आपका हार्दिक स्वागत और...

Mango Ice Cream Recipe: अब बाजार जैसा स्वाद घर पर! जानें मैंगो आइसक्रीम बनाने की आसान विधि

नमस्कार, दैनिक जनवाणी डॉटकॉम वेबसाइट पर आपका हार्दिक स्वागत...
spot_imgspot_img