राहुल गांधी ने विधानसभा चुनावों में जातिगत जनगणना का मुद्दा जोर शोर से उठाया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ निजी हमले जारी रखे। कांग्रेस और विपक्ष को सबसे ज्यादा उम्मीद जातीय जनगणन के मुद्दे से थी। असल में बिहार में नीतीश सरकार द्वारा जातीय जनगणन कराने और फिर उसके आंकड़े सार्वजनिक करने के बाद से विपक्ष उत्साह में था। विपक्ष को लग रहा था कि उसके हाथ जाति जनगणना का मुद्दा ब्रहास्त्र की तरह है। और वो इस अस्त्र से मोदी सरकार को सत्ता से बाहर कर देगा। लेकिन जातीय जनगणना मुद्दा हिंदुत्व, राष्ट्रवाद और कल्याणकारी योजनाओं के नीचे दबकर दम तोड़ गया। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से पूर्व जब संसद के विशेष सत्र में महिला आरक्षण बिल आया था, तभी राहुल गांधी ने ओबीसी आरक्षण का मुद्दा उठाया, केंद्र सरकार में तैनात ओबीसी सचिवों की संख्या पर सवाल खड़े किये- और पूरे चुनाव के दौरान जातिगत जनगणना की मांग करते रहे। इसमें षक की कोई गुंजाइष ही नहीं है कि जातीय गणना का मुद्दा, राज्यों के चुनाव में, फ्लॉप रहा। हालांकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी का अनुसरण करते हुए जातीय गणना का मुद्दा खूब उछाला गया। यहां तक वायदा किया गया कि 2024 में केंद्र में विपक्ष की सरकार बनी, तो राष्ट्रीय स्तर पर जातीय गणना कराई जाएगी। इस पर आरक्षित जमात के युवाओं ने भी कांग्रेस को समर्थन नहीं दिया।
संसद के विशेष सत्र के बाद तेजस्वी यादव और राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना कराने की जोर शोर से मांग की थी। कांग्रेस ने तो कार्यसमिति की बैठक में प्रस्ताव पारित कर जातिगत जनगणना का चुनावी वादा भी कर डाला था। हालांकि कांग्रेस पार्टी में कुछ नेताओं ने दबी जुबान में जातिगत गणना का विरोध भी किया, लेकिन पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के सामने वह दबता हुआ नजर आया।
मुद्दा विहीन संपूर्ण विपक्ष और खासकर ने कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों में इस मुद्दे पर खूब शोर मचाया था। राहुल गांधी अपनी चुनावी रैलियों में जातीय गणना की वकालत करते रहे और इस मुद्दे को लेकर बीजेपी पर हमले करते रहे. उन्होंने एक रैली में कहा था कि जातीय गणना एक ‘एक्स-रे’ की तरह होगी, जो विभिन्न समुदायों का पूरा विवरण देगी। राहुल गांधी ने जातीय गणना के बहाने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी तीखे हमले किए थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ में एक रैली में कहा था कि ‘ पीएम मोदी हर भाषण में कहते हैं, ‘मैं ओबीसी हूं’. लेकिन जब मैं जाति जनगणना के बारे में बात करता हूं, तो वे कहते हैं कि भारत में कोई जाति नहीं है. भारत में केवल एक ही जाति है, वो है गरीब।’ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडगे समेत कई पार्टी नेताओं ने प्रधानमंत्री मोदी को ‘नकली ओबीसी’ करार दिया था। कुल मिलाकर कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में, खास तौर पर राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जातीय गणना के मुद्दे को जमकर हवा दी और इसके जरिए पिछड़ी जातियों के वोट बटोरने की कोशिश की, लेकिन उसकी यह कोशिश कामयाब नहीं हो सकी। वह राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सत्ता बरकरार रखने में नाकामयाब रही। चुनावों ने साबित कर दिया कि जनादेश महज जाति के आधार पर हासिल नहीं किए जा सकते।
वास्तव में बिहार में हुई जातिगत गणना की रिपोर्ट आने के बाद बीजेपी काफी दबाव में देखी गयी थी। वैसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ये बोल कर रिपोर्ट को खारिज कर दिया था कि देश में सबसे बड़ी जाति गरीब है। मोदी ने एक बार फिर वही बात दोहरायी है, लेकिन उसमें गरीबी के साथ नौजवानों, महिलाओं और किसानों को भी अगल अलग जाति के रूप में बताया है। ये भी खबर आयी थी कि नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की जातिगत गणना से शुरू हुई राजनीति को काउंटर करने के लिए बीजेपी ओबीसी सर्वे लाने पर विचार कर रही है। बिहार जाकर जब केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने कहा था कि बीजेपी को जातिगत जनगणना से कोई आपत्ति नहीं है, तभी समझ में आ गया था कि बीजेपी इस मुद्दे को लेकर कितना चिंतित है लेकिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों ने तो जैसे इस मुद्दे की हवा ही निकाल दी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चुनाव नतीजों के बाद बीजेपी के राष्ट्रीय मुख्यालय से अपने संबोधन में विपक्ष पर आरोप चस्पा किया कि मतदाताओं को जातियों में बांटने की कोशिशें की गईं। उन्हें लाभ के झांसे दिए गए, लेकिन उन जातियों ने ही कांग्रेस को खारिज कर दिया, जिन्हें पार्टी का ‘परंपरागत जनाधार’ माना जाता रहा है। इनमें आदिवासी, दलित, ओबीसी और मजदूर वर्ग आदि का उल्लेख किया जा सकता है। इन समुदायों ने भाजपा के पक्ष में भर-भर कर वोट दिए।
पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अपने प्रधानमंत्री-काल में मंडल आयोग की रपट लागू की थी, जिसके तहत हजारों पिछड़ी जातियों को आरक्षण मिलना तय हुआ था। यह आरक्षण आज भी जारी है। तब वीपी सिंह को ‘सामाजिक न्याय का मसीहा’ माना गया। बीते दिनों तमिलनाडु की डीएमके सरकार ने वीपी सिंह की प्रतिमा स्थापित की है। लेकिन ये भी कड़वा सच है कि ‘मसीहा प्रधानमंत्री’ का 1991 के लोकसभा चुनाव में सूपड़ा ही साफ हो गया। पिछड़ों ने लालू, नीतीश और मुलायम सरीखों की तो सियासत चमका दी, लेकिन वीपी सिंह को राष्ट्रीय जन-समर्थन क्यों नहीं मिला, यह सवाल आज भी अनुत्तरित है। जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से लेकर डॉ. मनमोहन सिंह तक कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों ने ‘जातीय सर्वे’ को महत्त्व क्यों नहीं दिया? परोक्ष रूप से खारिज ही क्यों करते रहे? क्या राहुल गांधी के दौर की कांग्रेस की सोच, ‘जातीय राजनीति’ पर, अपने पूर्वजों से भिन्न है? सवाल यह भी है कि अगर जातीय जनगणन का मुद्दा इतना प्रभावी था तो फिर उन्हें चुनावी समर्थन क्यों नहीं मिला?
राजनीतिक जानकारों के मुताबिक, मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जातिगत गणना का मुद्दा जमीन पर गिरा है। लोगों को यह बात समझ में आ रही है कि युवाओं को नौकरी चाहिए, न कि जातिगत गणना। देश में सरकारी नौकरियों यानी संगठित क्षेत्र की जॉब तो महज चार पांच फीसदी हैं। बाकी नौकरियां तो असंगठित क्षेत्र ही दे रहा है। ऐसे में जातिगत गणना का कोई फायदा नहीं होगा। लोग, उस दल पर भरोसा करेंगे, जो उन्हें नौकरी देगा। नौकरी के लिए माहौल तैयार करेगा। अब 2024 के लिए कांग्रेस पार्टी, इस मुद्दे पर दोबारा से विचार करेगी। हो सकता है, तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार बनने पर जातिगत गणना करायी भी जाये, लेकिन आगे के लिए तो ये मुद्दा खत्म ही लग रहा है। 2024 के आम चुनाव आते आते तो बिलकुल नहीं लगता कि ये मुद्दा प्रासंगिक भी रह पाएगा। हो सकता है, आरजेडी और समाजवादी पार्टी जैसे क्षेत्रीय दल जातिगत गणना के मुद्दे को उठाएं, लेकिन कांग्रेस के लिए तो जरा भी स्कोप नहीं नजर आ रहा है। अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव ये चाहते हैं कि 2024 में मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई हो, लेकिन क्या कांग्रेस भी ऐसा करने वाली है, यह देखना होगा।