Friday, December 27, 2024
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चंद्रशेखर-पवार ताउम्र दोस्त रहे

SAMVAD


458 जुलाई पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चंद्रशेखर की 16वीं पुण्यतिथि है और उनके परम मित्र रहे देश के कद्दावर नेता शरद पवार आजकल खबरों की सुर्खियों में हैं। जीते जी चंद्रशेखर कई प्रमुख दलों में रहे, छोड़े, विलय किए, अपनी पार्टी भी बनाई। उन्होंने देश के कई बड़े छोटे नेताओं को संवारा बनाया, जिन्होंने समय-समय पर अपनी-अपनी अलग-अलग राह भी पकडी। जहां भारतीय राजनीति के अजातशत्रु चंद्रशेखर के चाहने वाले सभी दलों में थे, वहीं आखिरी वक्त में वह अपने दल के इकलौते सांसद थे।

शरद पवार को चाहने और कोसने वाले भी सभी दलों में हैं। आज शरद पवार अपने ही सिपहसालारों द्वारा अलग-थलग कर दिए गए लग रहे हैं। उनसे अलग होने वाले भी हालांकि उन्हें देवता बता रहे है और फोटो उन्हीं की लगा रहे हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में आप शरद पवार को पसन्द करें या नापसंद, नजरअंदाज नहीं कर सकते। नजरअंदाज देश की राजनीति में जीते जी चंद्रशेखर को भी कोई कर नहीं पाया।

70 के दशक की शुरुआत में इंदिरा गांधी की तूती बोलती थी। कांग्रेस के युवा तुर्क चंद्रशेखर भी अपनी पहचान बना चुके थे। कांग्रेस के शिमला अधिवेशन में चंद्रशेखर ने इंदिरा गांधी की असहमति के बावजूद कुछ युवा साथियों के कहने पर सांसदीय बोर्ड का चुनाव लड़ने का फैसला किया।

महाराष्ट्र का लगभग 30 साल का एक युवा विधायक उनका कैम्पेन मैनेजर बना। चंद्रशेखर बंपर वोट से जीते। मराठी युवक का नाम था शरद पवार आज का मराठा सरदार। दोनों में मुखालिफ तूफानी लहरों को हराने की जिद थी। दोनों का यह तेवर और दोस्ती ताउम्र चली।

1978 में केंद्र की सत्ता पर काबिज जनता पार्टी के तब राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके चंद्रशेखर के सहयोग से यही शरद पवार मात्र 38 साल की उम्र में बसंत दादा पाटिल, यशवंत चव्हाण, बसंत राव नाईक, शंकर राव चव्हाण, गाडगिल, तिरपुडे जैसे दिग्गजों के बावजूद महाराष्ट्र जैसे बडेÞ राज्य के मुख्यमंत्री बने। चंद्रशेखर मित्रता निभाने और एहसान चुकाने के लिए जाने जाते थे।

आज की महाराष्ट्र की उठापटक को 1978 की पुनरावृत्ति बताया जा रहा है, जबकि टूट-फूट और शरद पवार के विवाद केंद्र में होने के अलावा दोनों घटनाओं में समानता काफी कम है। चंद्रशेखर कभी कांग्रेस वापस नहीं आए, हां शरद पवार 1986 में राजीव गांधी के आग्रह पर वापस लौटे पर अपने तेवरों और स्वतंत्र विचारों को त्याग नहीं पाए।

अब दल और खेमे अलग थे, पर तब भी जब चंद्रशेखर मुंबई पहुंचे मेहमान नवाजी में शरद पवार और उनका खास ड्राईवर ‘गामा’ मौजूद थे। यहां तक कि बतौर प्रधानमंत्री मुंबई हवाई अड्डे पहुंचे चंद्रशेखर ने प्रोटोकोल तोड़ ‘गामा’ ड्राईवर को न सिर्फ खासतौर पर बुलाया, बल्कि कंधे पर हाथ रख फोटो भी खिंचवाया। यह एक बडेÞ दिल के नेता का सत्ता शीर्ष पर भी अपने पुराने आम साथियों के प्रति स्नेह था और न भूलने की आदत। चंद्रशेखर ठहरे भी मुख्यमंत्री मित्र शरद पवार के आवास ‘वर्षा’ में, राजभवन में नहीं।

शरद पवार की बेटी और आज सांसद सुप्रिया सुले पर चंद्रशेखर जी का बेटी भतीजी की तरह विशेष स्नेह था। कांग्रेस समर्थित अल्पमत की चंद्रशेखर सरकार के शपथ ग्रहण के दिन जब कम उम्र सुप्रिया पवार ने उन्हें खाने पर मासूमियत से आमंत्रित किया तो चंद्रशेखर जी सरल स्वभाव से दिल्ली में महाराष्ट्र सदन लंच पर आ भी गए। मसला सामान्य था पर विवाद बड़ा हुआ।

मीडिया में आग ही लग गई। कांग्रेस में पवार शक के घेरे में आ गए। कुछ कांग्रेसी पहले से ही असहज थे। दरबारों में कानाफूसी और कान के कच्चे दरबारों के किस्से हजारों हैं। चंद्रशेखर और पवार ने ऐसी बातों की परवाह न कभी की थी न तब की। दोनों नेताओं के दल अलग थे, दिल हमेशा मिले और इससे बहुतों के दिल जले भी।

बाहर से समर्थित चंद्रशेखर की अल्पमत की सरकार ने दक्षता और कौशल से देश में मंडल-कमंडल को लगी आग पर ठंडे पानी का काम कर जनता का विश्वास जीता। यह इस सरकार की विफलता की आस लगाए लोगों को नागवार गुजरा। रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर चंद्रशेखर सरकार द्वारा गठित भैरों सिंह शेखावत, शरद पवार और मुलायम सिंह की

अनौपचारिक हाई पॉवर कमेटी कोर्ट कचहरी-झगडे टंटे से दूर, व्यवहारिक वार्ता व संवाद द्वारा आपसी सहमति से सौहार्दपूर्ण समाधान के बेहद करीब पहुंच गई थी। जिन पक्षों और दलों को इस विवाद के यूं ही सुलझने में घाटा था वो असहज हो गए। भाजपा के कई बडे नेता भैरों सिंह जी से नाराज तक हुए।

असहज इस अल्पमत की सरकार की सफलताओं और उपलब्धियों से कांग्रेस का एक खास वर्ग और नेतृत्व भी हो रहा था। शरद पवार से भी। कांग्रेस के एक वर्ग की तो इच्छा शुरू से ही चंद्रशेखर का चरणसिंह वाला हश्र करने की थी, जो हो नहीं पा रहा था। आजीवन कांग्रेसी रहे बेहद शिष्ट व विद्वान तत्कालीन राष्ट्रपति वेंकटरमण, जो शुरू में चिन्तित थे अब चंद्रशेखर के प्रशंसक हो चुके थे।

बारामती में 4 मार्च 1991 को सुप्रिया पवार की शादी में प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और राजीव गांधी दोनों मौजूद थे और दोनों के बीच तनाव साफ दिखा। चंद्रशेखर ने राजीव गांधी को संभवत: सुलह, सफाई, संवाद के लिए या शिष्टाचार में सरकारी जहाज से वापस साथ दिल्ली चलने की पेशकश की, पर राजीव गांधी का रुख बेहद ठंडा था। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर अकेले खाना हो गए। 6 मार्च को दो हरियाणा पुलिस के सिपाहियों द्वारा राजीव गांधी के आवास की जासूसी के हास्यास्पद मुद्दे पर संसद में बवाल मचा, वॉक आऊट हुए।

इस हल्के व्यवहार और प्रधानमंत्री पद की गरिमा के हनन से आहत चंद्रशेखर ने संसद से सीधे राष्ट्रपति भवन जाकर इस्तीफा सौंप दिया। राजीव गांधी राजनीतिक शिक्षण प्रशिक्षण दक्षता के अभाव में यह भांप नहीं पाए कि कोई प्रधानमंत्री पद को भी लात मार सकता है।

कांग्रेस के अंदाजे फेल हो गए। निहायत शरीफ राजीव गांधी को गलती का अहसास हुआ। उन्होंने प्रणव मुखर्जी और शरद पवार को उन्हें मनाने भेजा। सरकार सदन में अल्पमत में साबित नहीं हुई थी न ही कांग्रेस ने समर्थन वापस लिया था पर आहत चंद्रशेखर ने कहलवा भेजा कि चंद्रशेखर एक मुद्दे पर कई बार दिमाग नहीं बदलते।

इस्तीफे बहुतों ने दिए पर प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा वापस न लेने वाले ‘सिर्फ चंद्रशेखर’। वेंकटरमण ने उन्हें श्रेष्ठ प्रधानमंत्री आंका, सांसदीय कमेटी ने सर्वश्रेष्ठ सांसद। 2007 में कैंसर से देवलोकगमन तक वो देश में राजनीति का बेबाक नैतिक कम्पास बने रहे और शरद पवार जैसे मित्रों के मित्र भी।


dainik janwani 123

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