Tuesday, December 3, 2024
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आज भी जिंदा है सामंती सोच

SAMVAD


47 1अभी चंद दिनों पहले की बात है। जब प्रधानसेवक नरेंद्र मोदी मध्यप्रदेश में आदिवासियों के बीच खाट पर चर्चा कर रहे थे। दूसरी ओर अब सोशल मीडिया में एक ऐसा वीडियो वायरल हो रहा है, जिसने संविधान की प्रस्तावना ‘हम भारत के लोग’ और नैतिक मूल्यों सभी को भोथरा साबित कर दिया है। मध्यप्रदेश के सीधी जिले में एक सामंतवादी व्यक्ति ने एक गरीब आदिवासी के ऊपर पेशाब कर दिया।

ये वाकया पढ़ने में जितना घिनौना है, उससे कहीं लाख गुना बर्बर, बेशर्म, बेहया और बदमिजाज हमारा समाज हो चला है। जहां मानवीयता और मानवीय संवेदनाओं का कोई स्थान शेष नहीं है।

उच्च जाति के एक व्यक्ति ने सिर्फ आदिवासी विक्षिप्त युवक के मुँह पर पेशाब नहीं किया है, बल्कि तमाचा मारा है अमृतकाल के विश्वगुरु भारत को और उसके भारत भाग्य विधाता बन बैठे ठेकेदारों को।

राष्ट्रवाद की छाती पर हमारी रहनुमाई व्यवस्था ‘भारत भाग्य विधाता’ गीत गुन-गुनाकर वैश्विक पटल पर भारत के गुणगान की बात भले कर सकती है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका की धरती से यह बयान दे सकते हैं कि भारत भूमि पर रेसिज्म के लिए कोई स्थान नहीं, लेकिन हकीकत किसी से छिपी नहीं रह सकती है। आदिवासी और दलित समाज जिस तरीके से प्रताड़ित हो रहा है। वह आजादी के अमृतकाल पर सवाल खड़े करता है।

सवाल तो हुक्मरानों की नीति और नियत पर भी है, लेकिन अभी कमजोर होती इंसानियत और ईमान की बात करना लाजिमी है। नेता आज हैं, कल नहीं होंगे। लेकिन इंसानियत और मानवीय मूल्यों का रसातल में जाना बेहद दु:खद और त्रासदीपूर्ण है।

देश के सर्वोच्च पद पर दलित महिला को बैठा देने से आदिवासी और दलितों के साथ अत्याचार खत्म नहीं होने वाला। किसी व्यक्ति पर पेशाब करना सिर्फ एक घटना नहीं, बल्कि मानसिकता है। जिसे कुचलने की आवश्यकता है और इसे कुचलने की गारंटी क्या देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सत्ता में बैठे हुक्मरान दे सकते हैं?

सामंती प्रथा देश से वर्षों पूर्व खत्म हो गई, लेकिन लोगों के दिलों-दिमाग में अब भी यह जिंदा है। ऐसे में सियासतदानों को समझना होगा, सिर्फ आदिवासी-दलित के साथ नाचने या भोजन कर लेने से समाज में बदलाव नहीं आने वाला!

आदिवासियों पर अत्याचार की अनंत कथाएं मध्यप्रदेश में हैं, लेकिन शिवराज सरकार अगर आदिवासियों के साथ नृत्य करके ही खुश है तो सवाल कई खड़े होते हैं? नेमावर में एक ही परिवार के पांच सदस्य को जमीन के नीचे दफना दिया जाता है।

महू में आदिवासी युवती के साथ पहले गैंगरेप और फिर हत्या कर दी जाती है। गुना में आदिवासी महिला को उद्दंड और बर्बर समाज के लोग जिंदा जला देते हैं। आदिवासी युवक को ट्रक पर बांधकर घसीटा जाता है।

क्या यही सभ्य समाज की निशानी है? क्या विश्वगुरु का मार्ग आदिवासी और दलित समुदाय के साथ अत्याचार करने पर ही प्रशस्त होगा? जुल्म की अनंत कथाओं से होकर एक बेहतर राष्ट्र की कल्पना भोथरी और भद्दी लगती है। क्या ऐसे ही समाज की रूपरेखा अमृतकाल में बनाई जा रही है? सीधी में जो हुआ, वह अमृतकाल में कैसे संभव हो सकता है।

आदिवासियों पर अत्याचार की एक लंबी फेहरिस्त है। मध्यप्रदेश से लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में संविधान तले आज भी आदिवासी-दलित समाज के लोग अपने हक के लिए तरस रहे हैं। जीवन जीने के अधिकारों से वंचित हैं। ऐसे में सवाल यही कि अमृतकाल में कैसी व्यवस्था बनाई जा रही है। जहां मानवीयता और मानवीय मूल्य सुरक्षित नहीं! अमृतकाल का अर्थ तो यह होता है कि एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण हो।

जहां देश के हर बाशिंदे की जरूरतों का ख्याल रखा जाए, लेकिन हकीकत इसके उलट है। अमृतकाल, मूत्रकाल में तब्दील हो रहा है। जिसने संवैधानिक मूल्यों, नैतिक आचरणों और मानवीय संवेदनाओं सभी को तार-तार कर दिया है।

पिछले कुछ वर्षों में देश में और विशेषकर मध्यप्रदेश में आदिवासियों के खिलाफ अपराध की दर काफी बढ़ गई है। जघन्य अपराधों का शिकार यह समाज हो रहा है और संवैधानिक अधिकारों से भी वंचित है। ऐसे में सवाल यह है कि जब देश की करीब 24 प्रतिशत आबादी, आर्थिक उत्पीड़न के अलावा जातीय उत्पीड़न का शिकार है तो फिर इसे अमृतकाल क्यों कहा जा रहा है? क्या सरकार खुद के आंकड़ों पर गौर नहीं कर पा रही है? या सरकार सबको अंधेरे में रखना चाहती है?

मध्यप्रदेश में ही आदिवासियों-दलितों पर अत्याचार के आंकड़े की बात करें तो साल 2020 में दलितों के खिलाफ अत्याचार के 50,291 मामले दर्ज हुए। जो बीते वर्ष के मुकाबले 9.4 प्रतिशत अधिक रहे और नि:सन्देह देश के बाकी राज्यों के हालत भी कुछ यूं ही हैं।

ऐसे में अब वक्त है बदलाव का, मानसिक रूप से सुदृढ समाज बनाने का। वरना मूत्रकाल में अगला व्यक्ति कोई दूसरा हो सकता है और इसके फलस्वरूप मानवीयता का शीघ्रपतन होता चला जाएगा।


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