बीस जनवरी को डोनाल्ड ट्रम्प के रिपब्लिकन राष्ट्रपति के तौर पर दूसरी बार शपथग्रहण करने के बाद अमेरिकी विदेश, आर्थिक एवं अप्रवासी नीति में कुछ फेरबदल की तो आशंका थी किन्तु वह इतनी शीघ्रता से और सख्ती से हो जायेगी इसकी अपेक्षा तो स्वयं अमेरिकी नीति विशारदों ने भी नहीं की थी। भारत में जो लोग अमेरिकी विदेश नीति की सतही जानकारी रखते हैं उन्हें बड़ी आशाएं थीं कि ट्रम्प के आने से भारत को विभिन्न क्षेत्रों में बहुत फायदा होगा और मोदी-ट्रम्प की कथित दोस्ती भारत को विश्व शक्ति बनने में मदद करेगी। अमेरिकी चुनाव के दौरान तो बहुत से मोदी समर्थकों ने ट्रम्प की जीत के लिए हवन-यज्ञ भी किये।
ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल में उनके मिजाज की वजह से स्थिति में थोड़ा परिवर्तन आ सकता है और भारत को थोड़ा संभलकर उनसे सौदेबाजी करनी होगी। ट्रम्प की तरजीह होगी कि भारत रूस तथा ईरान से सस्ता तेल खरीदना बंद करके अमेरिका से महंगा तेल खरीदे। दूसरी तरजीह भारत पर रूसी एवं फ्रांसीसी हथियार की जगह अमेरिकी हथियार खरीदने का दबाव डालना होगा जिसके तहत मोदी ट्रम्प वार्ता के आरम्भ में ही ट्रम्प ने एफ 35 युद्धक विमानों को बेचने का प्रस्ताव रख दिया है। तीसरी वरीयता ट्रम्प की है कि भारत अमेरिका से आयात की जाने वाली वस्तुओं पर टैरिफ कम करे । इसके साथ ही अमेरिका का जोर रहेगा कि भारत ईरान के चाबहार बंदरगाह को विकसित करने के प्रोजेक्ट से हाथ खींच ले।
अब आइए क्रमश: इन प्रस्तावों के गुण दोषों पर चर्चा करें। सबसे पहले भारतीय विदेश नीति के कर्ताधर्ताओं को यह बात समझनी पड़ेगी कि अमेरिकी दोस्ती में स्थायित्व नाम की कोई चीज नहीं है। यूक्रेन, ईराक, अफगानिस्तान , कुर्द , पाकिस्तान , कनाडा, कोलंबिया आदि प्रकरणों में हम इसे देख चुके हैं। अमरीका इस्तेमाल करो और छोड़ दो की परंपरागत नीति पर चलने वाला देश है। इसलिए जब भारत अमरीका से डील करे तो यह सावधानी भी रखे कि यह दोस्ती रूस, ईरान, फ्रांस, इटली, कजाकिस्तान जैसे भरोसेमंद और परंपरागत रूप से दोस्त रहे राष्ट्रों की कीमत पर न हो। जहां तक अमेरिका से हथियारों की खरीद का सवाल है इसमें तकनीक हस्तांतरण, मरम्मत सुविधा, तुलनात्मक कीमत, आपरेशनल कोस्ट एवं युद्ध में उपयोगिता को दृष्टिगत रखने के साथ साथ अमेरिकी हथियारों को उपयोग में लाने से पूर्व की छिपी शर्तों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।
अमेरिका अपने हथियारों को उपयोग में लाने के लिए तरह तरह की शर्तें लादता रहता है। एक बार यदि अमेरिका किसी देश से नाराज हो जाता है तो उसके द्वारा बेचे गए हथियारों पर भी वह तकनीकी बाधा उत्पन्न कर देता है। यही कारण है कि भारत ने कभी भी अमरीका से बड़े स्ट्रेटेजिक हथियार नहीं खरीदे। चाहे वे युद्धपोत, पनडुब्बी हों या टैंक और युद्धक विमान। अभी भारत पर अमरीका एफ 35 विमान खरीदने के लिए दबाव डाल रहा है तो इसमें यह भी देखना होगा कि भारत की वायुसेना की प्राथमिकता क्या है। अटैक के लिए विमान या डिफेंस के लिए। निस्संदेह डीप पेनिट्रेशन अटैक के लिए एफ 35 एक बेहतरीन विमान है और डिफेंस के लिए रूसी एसयू 57। रूसी एसयू 57 की विशेषता उसमें दो इंजन लगे होना है जबकि एफ 35 एक इंजन वाला विमान है। दोनों फिफ्थ जनरेशन विमान हैं जो स्टील्थ तकनीक से युक्त हैं। अमेरिकी एफ 35 की आक्रमण क्षमता के कारण ही चीन और पाकिस्तान इस विमान हेतु भारत को अमेरिका द्वारा प्रस्ताव मात्र देने पर ही आपत्तियां जता रहे हैं। भारत को यह भी देखना होगा कि उसके अपने स्वदेशी तेजस और फिफ्थ जनरेशन विमान के लिए इंजन तथा अन्य तकनीकी सहयोग कहां से मिल सकता है। निस्संदेह अमेरिका बगैर शर्त यह सहयोग नहीं करेगा। तेजस के लिए जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी के इंजनों की आपूर्ति में असाधारण देरी भविष्य के लिए भी ऐसी आशंका उत्पन्न कर रही है। भारत को रूस या फ्रांस से ही इस प्रकार का सहयोग मिल सकता है। हथियारों के मामले में ये दोनों ही देश भारत के विश्वस्त दोस्त रहे हैं और भारत केवल अमरीकी दबाव में आकर इस दोस्ती को तोड़ने की गंभीर गलती नहीं कर सकता है।
आर्थिक मामलों में सभी देश अपने व्यापारिक हितों को देख कर चलते हैं। अमरीका भी और भारत भी। ट्रम्प ने अपनी व्यापार नीति का खुलासा कर दिया है। जैसे को तैसा वाली नीति के तहत वो विदेशी आयात पर उतना ही टैक्स लगाएंगे, जितना वो देश अमरीकी आयात पर लगाता है। भारत और चीन इस नीति से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। भारत अपना सर्वाधिक निर्यात अमेरिका को करता है। अब यदि अमेरिका भारतीय वस्तुओं पर अधिक टैक्स लगाता है तो वे वस्तुएं महंगी हो जाएंगी जिसका सीधा असर भारतीय निर्यात पर पड़ेगा। इसके साथ साथ यदि भारत अमेरिका से आयात होने वाली वस्तुओं पर एक्साइज घटाता है तो उसके मुकाबले स्वदेशी उत्पाद महंगे पड़ेंगे और देश के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को झटका लग सकता है। अत: भारत को दोनों में संतुलन बना कर चलना होगा। भारत को अमरीकी दबाव में ईरान और रूस से सस्ता कच्चा तेल खरीदना बंद नहीं करना चाहिए। यह कदम भविष्य की कूटनीति एवं आर्थिक व्यवस्था के लिए नुकसानदायक दायक होगा।
जहां तक भारत चीन संबंधों में अमरीकी दोस्ती का प्रभाव है तो भारत को इसमें भी संभल संभल कर चलना है ताकि अमरीका अपने चीन विरोध में भारत को एक मोहरे की तरह इस्तेमाल नहीं कर पाये। भारत चीन संबंधों का धरातल बड़ा ही नाजुक रहा है और इसे कूटनीति, व्यापार एवं सामरिक दृढ़ता से ही निबटाया जा सकता है। अन्य देश की भूमिका इसमें बहुत सीमित है। निर्विवाद रूप से भारत को चीन की सामरिक एवं व्यापारिकता का मुकाबला करने के लिए अमरीकी सहयोग की आवश्यकता है और भारत को बगैर अपने राष्ट्रीय हितों एवं स्वाभिमान से समझौता किये इसपर आगे बढ़ना ही होगा। ट्रम्प का कार्यकाल इसमें हमारे लिए लाभदायक हो सकता है। रूस से हमारी दोस्ती चीन पर दबाव डालने में कामयाब नहीं रही है।
भारत द्वारा ईरान में चाबहार बंदरगाह को विकसित करने के प्रोजेक्ट को यथावत रखना होगा। भारत के लिए यह बंदरगाह पाकिस्तान चीन के संयुक्त संचालन वाले ग्वादर पोर्ट से सामरिक व्यापारिक प्रतिस्पर्धा करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस विषय में किसी भी अमरीकी प्रतिरोध को दृढ़ता से रद्द कर देना होगा। ट्रम्प की अवैध अप्रवासी नीति से भारत को कोई अधिकारिक एतराज नहीं होना चाहिए। प्रत्येक देश की इस विषय में अपनी पालिसी होती है। इसके विपरीत भारत को भी ट्रम्प की लाइन पर चलकर अवैध बांग्लादेशियों एवं रोहिंग्याओं के साथ ऐसा ही सलूक करना चाहिए। कोई भी देश अपने देश में अन्य देश के अवैध घुसपैठियों का भार वहन नहीं कर सकता है।