बचपन अपने आप में एक सुखद अनुभूति का नाम है। जब मनुष्य सभी चिंताओं से दूर, अपने माता-पिता के पूर्ण संरक्षण में अपने दिल की हर इच्छा को पूरा करने के लिए स्वतंत्र होता है। घर में हर योजना घर के बच्चे को ध्यान में रखकर बनाई जाती है। घर के बच्चे अपने माता पिता से ज्यादा अपने दादा दादी और नाना नानी के ज्यादा करीब और भावात्मक रूप से उनसे ज्यादा जुड़े होते हैं। जो इच्छाएं वो अपने माता पिता से पूरी करवाने में असफल रहते हैं, वो उनके दादा-दादी चुटकियों में पूरी कर देते हैं।
फिर करें भी क्यों न? हर आदमी को मूल से ज्यादा ब्याज प्यारा होता है। बच्चे के माता-पिता मूल तो पौते-पौती दादा-दादी के लिए ब्याज से कम नहीं होते। बच्चे भी अपने माता पिता से ज्यादा प्यार अपने दादा दादी को करते हैं और अपना अधिकांश समय उन्हीं के साथ व्यतीत करते हैं। घर के बुजर्ग भी बच्चों में संस्कार डालने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ते, जो बच्चों को एक अच्छा नागरिक बनने में मददगार साबित होते हैं। प्राय: देखा गया है दादा दादी बच्चों को उच्च नैतिक शिक्षाओं पर आधारित कहानियां सुना कर , बच्चों में नैतिक गुणों के विकास की नीव रखने का महत्वपूर्ण कार्य को अंजाम देते है।
यह अतिश्योक्ति नहीं होगी कि दादा दादी और परिवार के बुजर्ग लोग, बच्चों के लिए एक पूर्णकालिक शिक्षक का कार्य करते हैं, जो हर कदम पर बच्चों में अच्छी आदतों के समावेश कर, उनके चरित्र निर्माण और बच्चों को संस्कारवान बनाने में विशेष भूमिका निभाते हैं।
संयुक्त परिवार भारतीय संस्कृति की एक पहचान है परंतु आधुनिकता और भौतिक सुखों को अर्जित करने की अंधी दौड़ में संयुक्त परिवार की धारणा स्वप्न मात्र बन कर रह गई है। पहले परिवारों के टुकड़े होते हैं, फिर घर और जमीनों के भी टुकड़े हो जाते हैं। एक भरा पूरा संयुक्त परिवार छोटे-छोटे एकल परिवारों में विभाजित हो जाता है, जिसका सबसे बड़ा खामियाजा उस परिवार के दो लोगों को सबसे ज्यादा भुगतना पड़ता है।
एक उस घर के बच्चे और दूसरा उस घर के बुजर्ग। यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी कि दोनों ही अनाथ हो जाते हैं। माता-पिता को अपनी संतान को छोड़ना पड़ता है और बच्चों से उनके दादा-दादी का साया छूट जाता है। बच्चों का एक फुल टाइम टीचर उनसे अलग हो जाता है।
एकल परिवारों की अपनी परेशानियां हैं, जो संयुक्त परिवारों में अनुभव नहीं होतीं। जैसे घर में सभी सुख सुविधाओं का होना। उन परेशानियों को दूर करने के लिए पति-पत्नी दोनों को ही कमाना पड़ता है। दोनों ही सुबह निकलते हैं और शाम को घर में आते हैं। ऐसे में बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी निभाती है घर की आया या नौकरानी या फिर पड़ोस की कोई महिला, जिनके लिए बच्चे को संभालना एक नौकरी भर से ज्यादा कुछ नहीं होता। वहां दिलों का रिश्ता नहीं होता, जिसका परिणाम होता है बच्चे का और अकेला हो जाना।
बच्चे के विकास के आरंभिक दिन बहुत ही महत्वपूर्ण होते हैं। यह समय ही बच्चे के मानसिक विकास की आधारशिला रखता है। माना जाता है कि जीवन के पहले एक हजार दिनों के दौरान एक बच्चे का मस्तिष्क बहुत तीव्रता से विकसित होता है और हर सेकंड दस लाख से अधिक नए तंत्रिका संपर्क बनते हैं। यह समय, एक बच्चे के सीखने, बढ़ने और समाज में अपना पूरा योगदान देने की क्षमता को आकार देने का जीवन में एक बार मिलने वाला अवसर प्रदान करता है।
यूनिसेफ का मानना है कि अभिवावकों के ऊपर बच्चे को एक बड़ी जिम्मेदारी होती है । एक बच्चे का सही दिशा में किया गया विकास, विकसित समाज निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एकल परिवारों में बच्चा अच्छे संबंधों की कमी हमेशा अनुभव करता है। समयाभाव में अभिवावक बच्चे को अपना सान्निध्य प्रदान नही कर पाते हैं। दोनों के बीच का भावनात्मक संबंध समाप्त होने लगता है, जिसका सीधा प्रभाव बच्चे के व्यवहारात्मक विकास पर पड़ता है।
बच्चों में बढ़ती अपराध प्रवृति, झूठ बोलना, अनुशासनहीनता, बच्चे का जिद्दीपन आदि सभी बच्चे के अकेले होने के परिणाम हैं, जो संयुक्त परिवारों में देखने को कम ही मिलता है। परंतु एकल परिवारों की यह आम समस्या है। प्राय: अभिवावकों को इस तरह की शिकायत करते देखा जाता है की हमारा तो बच्चा ही कहने से बाहर हो गया है, कुछ मानता ही नहीं है।
आज बच्चा अकेला हो चला है। माता पिता के पास समय नहीं है। घर में काम करने वाली आया के पास माता-पिता वाला दिल नहीं है। अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि अभिवावक अपने बच्चों को जीवन की हर खुशी, हर सुविधा देने में अपनी जीवन लगा देते हैं और वही बच्चे बड़े होने पर अपने अभिवावकों का सहारा बनने की जगह उन्हें वृद्ध आश्रम के सहारे छोड़ देते हैं और इन सबका का कारण है संयुक्त परिवारों का टूटना।
आज आवश्यक है की हम भारतीय संस्कृति को पुन: स्थापित करने के लिए बिखरते परिवारों को सहेजने का प्रयास करें, ताकि देश का भविष्य सुरक्षित हो सके।
राजेंद्र कुमार शर्मा
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