Tuesday, September 26, 2023
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यूपी में दबे पांव बढ़ रही कांग्रेस

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Samvad


ravindra patvalकांग्रेस यूपी में अपने परंपरागत वोट आधार को पिछले कई दशकों से लगातार खोती चली गई है। 1984 के बाद से ही यह प्रक्रिया तेजी से शुरू हुई, बहुजन समाजवादी पार्टी ने जहां नए सिरे से कांशीराम के नेतृत्व में यूपी में गोलबंद होना शुरू किया, उसने देखते ही देखते दलित, मुस्लिम एवं अन्य वंचित वर्ग के बड़े हिस्से को कांग्रेस से अलग कर यूपी में उसके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया था। दूसरी तरफ मुलायम सिंह ने यादव-मुस्लिम को आधार बनाते हुए राज्य के तमाम पिछड़े तबकों के बीच अपनी मजबूत उपस्थिति के साथ पहले ही बड़े हिस्से को कवर कर लिया था। रही-सही कसर राम मंदिर आंदोलन के बाद सवर्ण मतदाताओं का भाजपा-आरएसएस के पक्ष में चले जाने से कांग्रेस के पास यूपी में कोई आधार ढूंढ़ना एक झूठी आस से अधिक कुछ नहीं था।

इस सबके लिए जिम्मेदार भी कांग्रेस स्वंय थी, जिसने आजादी के समय से ही अपने लिए दलित, मुस्लिम, महिला, ब्राहमण और समाज के कमजोर वर्ग का एक स्थायी आधार बना रखा था, जिसके लिए उसके पास कार्यक्रम भी था और वह उस ओर बढ़ती दिखती भी थी।

लेकिन 80 के दशक तक आते-आते कांग्रेस के लिए मुख्य चुनौती ऐन-केन प्रकारेण सत्ता हासिल करना रह गया था। इसके लिए इंदिरा गांधी के द्वारा ही अधिनायकवादी कोशिशें शुरू हो गई थीं, राजीव गांधी के दौरान चुनावी अवसरवादिता के लिए पहले मुस्लिम कट्टरपंथियों को खुश करने के लिए शाहबानो केस और बाद में हिन्दू कट्टरपंथियों को अपने पाले में लेने के लिए राम-मंदिर के ताले खुलवाने की घटना उसे अंतत: दोनों समुदायों की निगाह में गिरा गई।

फिर तो देश में जो कुछ हुआ है, वह सिर्फ राजनीति और लोकतंत्र के लिए पतन का ही वायस बन कर रहा गया है। यही वह कांग्रेस की अवसरवादी नीति थी, जिसके चलते भाजपा-आरएसएस आज इस मुकाम पर पहुंचे हैं। भले ही कांग्रेस ने इसके बाद भी देश की हुकूमत कई बार संभाली हो, और दक्षिण के राज्यों में उसे आशातीत सफलता मिलती रही हो, लेकिन यूपी और बिहार जैसे राज्य में उसके लिए अब कोई जगह नहीं बची थी।

मोदी-आरएसएस की दोहरी चुनौती से बड़ी कांग्रेस के भीतर घर कर चुकी अवसरवादिता, सत्ता के इर्द-गिर्द मधुमक्खी की तरह भिनभिनाते दलालों से घिरे लोगों से मुक्ति और अपने मूल जनाधार के बीच में वापस लौटने की चुनौती बनी हुई थी। इस खोज में कांग्रेस में लगातार टूट-फूट जारी रही।

बड़े-बड़े स्वनामधन्य नेता आज भाजपा के सांसद, विधायक, राज्यों में मंत्री ही नहीं मुख्यमंत्री बने हुए हैं। लेकिन हाल के दिनों में कांग्रेस अध्यक्ष पद पर वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे की ताजपोशी ने जहां एक तरफ गांधी परिवार के ऊपर लगने वाले शाही खानदान और कांग्रेस उनकी जागीर है, से मुक्त होने का मौका दिया है।

कर्नाटक में उम्मीद से बढ़कर सही मायने में काफी अर्से बाद दलित, मुस्लिम, पिछड़ा, आदिवासी सहित समाज के अन्य वर्गों से भी वोट हासिलकर कांग्रेस ने एक बार फिर से अपने पुराने आधार पर लौटने का संकेत दिया है।

यह जीत राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस के भीतर साहसिक सुधारों को अंजाम देने के लिए आवश्यक खुराक और बल देगा। खुर्राट जड़ जमाए पुराने सत्ताधीशों को उदार हिन्दुत्ववादी झुकाव से अलग भारत में ‘नफरत छोड़ो-भारत जोड़ो’ के संदेश को मजबूती से आगे बढ़ाने में आड़े नहीं आने देगा।

यह उम्मीद कर्नाटक से पहले ही यूपी के मुसलामानों ने लगता है कांग्रेस से लगा रखी थी। यही वजह है कि नगर निकाय चुनावों में कांग्रेस के पक्ष में उम्मीद से कहीं बेहतर परिणाम आए हैं। भले ही महापौर की सभी सीटें भाजपा ने किसी प्रकार जीत ली हों, लेकिन गहराई से विश्लेषण बताते हैं कि न सिर्फ भाजपा के लिए समर्थन में कमी आई है, बल्कि कांग्रेस, आप और एआईएमआईएम के लिए मतदाताओं में आकर्षण बढ़ा है।

सपा और बसपा के नेतृत्व का बौनापन उसके अपने जनाधार में अब अनिश्चय के बजाय विकल्पों की तलाश की ओर ले जा रहा है। वास्तविकता तो यह है कि यदि 22 में विधानसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ सपा मुख्य मुकाबले में न होती तो 32 प्रतिशत के बजाय उसे अपने पिछले मत प्रतिशत 22 प्रतिशत से भी काफी कम वोट हासिल होते।

यह बात इसी तथ्य से स्थापित हो जाती है, जब महापौर की 17 सीटों पर कांग्रेस को चार सीटों पर दूसरा स्थान हासिल हो जाता है। मेयर के चुनावों में भले ही कांग्रेस ने एक भी सीट न जीती हो, लेकिन 4 सीटों पर उसका दबदबा साफ नजर आया। खासकर मुस्लिम मतदाताओं का रुझान सपा, बसपा से हटकर अब अन्य राजनीतिक विकल्पों की ओर जाता दिखता है, उसमें भी विशेषकर कांग्रेस में उसे उम्मीद नजर आ रही है।

मुरादाबाद मेयर सीट पर भाजपा के विनोद अग्रवाल, कांग्रेस प्रत्याशी से मात्र 3,500 मतों से जीत पाए। उन्हें 121,475 वोट (41.71 प्रतिशत) जबकि कांग्रेस प्रत्याशी मो. रिजवान 1,17,832 (40.46 प्रतिशत) वोट मिले। जबकि सपा प्रत्याशी को मात्र 13,447 और बसपा उम्मीदवार को 15,858 वोट ही हासिल हो सके।

जबकि यहां पर सपा के सांसद और पांच विधायक हैं। इसी प्रकार शाहजहांपुर में भी कांग्रेस मेयर प्रत्याशी निकहत इकबाल को 50,484 वोटों (30.94 प्रतिशत) के साथ दूसरा स्थान हासिल हुआ है। झांसी में भी कांग्रेस का मेयर प्रत्याशी दूसरे नम्बर पर रहा। संभल सपा का मजबूत गढ़ रहा है।

यहां से शफीकुर्रहमान बर्क़ सांसद हैं। कभी मुलायम सिंह यादव भी यहां से सांसद थे। लेकिन निकाय चुनाव में सपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। मुसलमानों ने सपा के बजाए यहां पर एआईएमआईएम को वोट करना बेहतर समझा। मेरठ में कांग्रेस का प्रत्याशी मजबूत न होने के कारण लोगों ने एएमआईएम को वोट देकर दूसरे नंबर पर ला दिया।

यहां पर सपा से अतुल प्रधान की पत्नी लड़ रही थीं, लेकिन मुसलमानों का वोट उन्हें नहीं मिला। इस प्रकार मुरादाबाद, शाहजहांपुर, झांसी और मथुरा में कांग्रेस दूसरे नंबर पर रही जबकि कानपुर में उसे तीसरा स्थान हासिल हुआ। ये आंकड़े कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में बड़ी उम्मीद जगाते हैं।

इतना ही नहीं कर्नाटक चुनाव के परिणामों ने यूपी में दलित समाज के एक तबके के बीच में एक नई उम्मीद जगा दी है। बसपा से उम्मीद छोड़ सपा के पक्ष में कुछ हिस्सा पिछले चुनाव में अवश्य गया था, लेकिन यहां से भी निराश दलित समाज अब कांग्रेस में नई उम्मीद देख रहा है।

अभी तक कांग्रेस की ओर से यूपी में हो रही इन हलचलों पर कोई अधिकारिक टिप्पणी नहीं आई है, लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही यूपी के लिए भी खड़गे के नेतृत्व में एक ठोस शुरुआत हो। भाजपा को नाथने के लिए यूपी ही वह सबसे बड़ा चुनावी अखाड़ा है, जहां सबसे मुखर विपक्षी दल की जरूरत है, जिसे सपा-बसपा ने अपनी विरासत समझ ली है।

लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए, जनता जब अपने पर आती है तो वह बड़े-बड़े तंबू कनात उखाड़ फेंकती है। फिलहाल तो यूपी में विपक्ष का स्थान पूरी तरह से रिक्त है, और उत्तरप्रदेश को उसका बेसब्री से इंतजार है।


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