1970 के दशक के गुजरे जमाने यह बात पूरी तरह से अकल्पनीय थी कि कोई भी उस समय के क्रिकेट दिग्गजों, जैसे कि सुनील गावस्कर, जीआर विश्वनाथ, बिशन सिंह बेदी या ईएएस प्रसन्ना से यह सवाल पूछने की हिम्मत कर सकता था कि ‘आपका रेट क्या है?’ इतने नामी-गिरामी क्रिकेटरों के ‘बिकने’ की तब कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। लेकिन मौजूदा दौर में खेल की वास्तविकताओं के साथ-साथ उससे जुड़ी भाषा में भी व्यापक बदलाव देखने को मिल रहा है। यह कहना कि ऋषभ पंत को टीम लखनऊ सुपर जाइंट्स को 27 करोड़ रुपये में ‘बेचा’ गया है या भुवनेश्वर कुमार को ‘टीम रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर ने 10.5 करोड़ रुपये में खरीदा है, एक सामान्य बात हो गई है। भाषा में यह बदलाव असल में बदल चुकी वास्तविकताओं को ही संप्रेषित कर रही है। हाल ही में संपन्न हुई आईपीएल की नीलामी में कुल 182 भारतीय खिलाड़ियों और 62 विदेशी खिलाड़ियों को कुल 639.15 करोड़ रुपये में दस फ्रेंचाइजियों के बीच बेचा गया। आईपीएल ने क्रिकेट को भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में एक बड़ा बिजनेस बना दिया है।
आईपीएल का कुल राजस्व करीब 9,000 करोड़ रुपये होने का अनुमान है। इसमें से, भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) प्रसारण अधिकार, स्पांसरशिप (विज्ञापन के लिए) और लाइसेंसिंग सौदों के माध्यम से करीब 4,000 करोड़ रुपये की कमाई करता है। वहीं पिछले आईपीएल सीजन में 10 टीमों ने टिकट कलेक्शन, बिक्री और लोकल स्तर पर स्पांसरशिप के माध्यम से सामूहिक तौर पर 4,670 करोड़ रुपये की कमाई की थी। उदाहरण के लिए, गुजरात टाइटन्स टोरेंट ग्रुप को प्रमोट करती है और कुछ अन्य आईपीएल टीमें बालकृष्ण इंडस्ट्रीज के स्वामित्व वाले बीकेटी टायर्स का प्रमोशन करती हैं। स्टार स्पोर्ट्स ने आईपीएल मैचों के प्रसारण के एकाधिकार अधिकार को हासिल करने के लिए 23,575 करोड़ रुपये की हैरतअंगेज राशि का भुगतान किया है, जो प्रति मैच 57.4 करोड़ रुपये बैठता है। हर जगह, मीडिया, जो कि मोटे तौर पर एंटरटेनमेंट कैपिटल का प्रतिनिधित्व करती है, स्पोर्टस कैपिटल के तौर पर यह अपना काम करती है।
भारत में क्रिकेट अब एक उद्योग में तब्दील हो चुका है और अब यह महज खेल नहीं रह गया है। खिलाड़ी अब स्वतंत्र पेशेवर नहीं रह गए हैं, बल्कि वे अपने खेल में किये जाने वाले श्रम को एक वस्तु के रूप में स्पोर्टस कैपिटल को बेचने वाले दिहाड़ी मजदूर की स्थिति में आ चुके हैं, ताकि वह इससे अपनी पूंजी के लिए अधिशेष मूल्य उत्पन्न कर सके। आईपीएल वैश्वीकृत और पूंजीकृत खेलों के सबसे प्रमुख प्रतीकों में से एक के रूप में उभरा है। यह पूंजी मास मीडिया पूंजी के साथ सांठगांठ के कारण ही अपनी जीवनी शक्ति हासिल करने में कामयाब रहती है। स्पोर्ट का क्षेत्र तेजी से एक समृद्ध मध्यम वर्ग का व्यवसाय बनता जा रहा है। सर्वहारा वर्ग का मेहनतकश वर्ग उत्कृष्ट खिलाड़ियों को सामने लाने का काम करता रहता है, लेकिन स्पोर्ट कैपिटल के द्वारा उन्हें हथिया लिया जाता है और उन्हें डी-क्लास कर दिया जाता है।
खेल प्रशिक्षण की लागत सबके बूते में नहीं है और यहां तक कि निम्न मध्यम वर्ग और नव-मध्यम वर्ग की पहुंच से भी परे है। मुंबई और दिल्ली में एक औसत टेनिस कोच का खर्चा 1000 रुपये से 1500 रुपये प्रति घंटे तक होता है और लगभग 12 सत्रों के लिए एक महीने के लिए कोच को नियुक्त करने की लागत 12,000 रुपये से 18,000 रुपये के बीच हो सकती है। इसी प्रकार, एक टेबल टेनिस कोच की लागत 8000 रुपये से 12,000 रुपये प्रति माह से थोड़ी कम हो सकती है। चेन्नई या हैदराबाद में हॉकी या फुटबॉल कोच की फीस खिलाड़ियों की वर्ग स्थिति के आधार पर 6000 रुपये प्रति माह से लेकर 60,000 रुपये के बीच हो सकती है।
जब खेल एक करियर बन जाता है, तो ऐसे में कोच की नियुक्ति अपरिहार्य हो जाती है। इसलिए कोई भी खेल कोचों के अत्याचार से मुक्त नहीं है, जो खिलाड़ियों को मनोवैज्ञानिक रूप से भी अपने वश में कर लेते हैं। आजकल खिलाड़ियों का खान-पान बेहद नियंत्रित है। एक उभरते हुए एथलीट को दूध, अंडे और फलों पर रोजाना 100 रुपये खर्च करने पड़ सकते हैं। यदि चिकन या मटन को रोजाना की डाइट में शामिल कर लिया जाए तो इसकी कीमत 200 से 500 रुपये तक जा सकती है। इस हिसाब से कुल बिल 15,000 रुपये प्रति माह आ सकता है। बेईमान स्पोर्टस मेडिसिन कंसल्टेंट्स डोपिंग जांच से बचने के लिए खेल आयोजनों की पूर्व संध्या को छोड़कर हार्मोनल सप्लीमेंट और टॉनिक का इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं।
2023-24 के वित्तीय वर्ष के लिए केंद्रीय खेल मंत्रालय को खर्च करने के लिए 3442.32 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। 2022-23 की तुलना में यह वृद्धि मात्र 45.36 करोड़ रुपये की थी। मोदी सरकार का एकमात्र प्रमुख खेल प्रोत्साहन कार्यक्रम खेलो इंडिया रहा है और सरकार ने मौजूदा बजट में इसके लिए सिर्फ 900 करोड़ रुपये का आवंटन किया है। बाकी 3,44 2.32 करोड़ रुपये का बजट नौकरशाही के ओवरहेड्स पर खर्च किया जाना है। एकमात्र अच्छी शुरूआत यदि कोई है, तो वह है देश भर में युवाओं को 32,000 खेल किटों का वितरण। लेकिन इन किट्स में केवल ट्रैक सूट, टी-शर्ट, शॉर्ट्स, मोजे और जूते और इन सभी को ले जाने के लिए एक स्पोर्ट्स बैग शामिल है, न कि टेनिस या बैडमिंटन रैकेट, वॉली बॉल और नेट, हॉकी या फुटबॉल किट जैसे खेल उपकरण। इससे भी बदतर बात यह है कि खेलों के मैदान और एथलेटिक्स ट्रैक की स्थापना और प्रशिक्षण अकादमियों की स्थापना जैसे बुनियादी ढांचे के विकास की पूरी तरह से उपेक्षा की गई है। खेल महासंघों को बड़ी मात्रा में पैसा प्राप्त होता है जबकि जमीनी स्तर के क्लबों को बहुत कम पैसा मिलता है।
खेल निकायों का प्रबंधन खिलाड़ियों द्वारा स्वयं करने के बजाय, नौकरशाह इन निकायों पर हावी बने रहते हैं और ये संस्थान नौकरशाही गुटों के बीच की राजनीति और खिलाड़ियों और खेल नौकरशाहों के बीच के झगड़ों से त्रस्त हैं। नौकरशाही के प्रभुत्व वाले कई अन्य क्षेत्रों की तरह, भारत में खेल के विकास में आंतरिक तोड़फोड़ मुख्य बाधा बनी हुई है। सैद्धांतिक रूप से देखें तो पूंजी को पूर्व-पूंजीवादी समाज में खेल जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने वाला माना जाता है। भारत में ऐसा सिर्फ समाज में सामंती अवशेषों और अत्यधिक प्रतिगामी जाति पदानुक्रम के चलते संभव नहीं हो पा रहा है, बल्कि इसलिए भी ऐसा हो रहा है क्योंकि नौकरशाही आधे-अधूरे विकृत पूंजीवाद का प्रतीक है।
भारत में स्पोर्टस कैपिटल व्यक्तिगत खिलाड़ियों में केवल बुर्जुआ व्यक्तिवाद पर आधारित ‘किलर इंस्टिंक्ट’ को बढ़ावा देती है, जबकि सामुदायिक अनुकरण की भावना ही सामूहिक खेल संस्कृति एवं खेल भावना को अधिक टिकाऊ तरीके से बनाए रखने में कारगर साबित हो सकती है।