दिल्ली के सबसे पुराने सिनेमाहॉल ‘रिट्ज’ का 1923 से आज तक चलते रहना बडे गौरव की बात है।बीती एक सदी के दौरान यह मूक, ब्लैक एंड वाइट से लेकर कलर फिल्मों के दौर का गवाह रहा है। करीब सौ साल से दिल्ली की शान है ‘रिट्ज’ सिनेमा हॉल। है मुगल बादशाह शाहजहां द्वारा निर्मित कश्मीरी दरवाजे के एकदम सामने। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान साल 1923 में जब चालू हुआ था, तब इसका नाम ‘रिट्ज’ नहीं, बल्कि ‘केपिटल’ था। मूक फिल्मों के दौर का भी गवाह रहा है, फिर आवाज वाली ब्लैक एंड वाइट और उसके दशकों बाद रंगीन फिल्मों का जमाना भी देखा है। इसकी सबसे गौरवमय बात है कि यह दिल्ली का सबसे पुराना सिनेमाघर है, जो आज भी चल रहा है। उस जमाने में ‘रिट्ज’ समेत पुरानी दिल्ली के दो अन्य सिनेमाघरों ‘जगत’ और ‘नॉवल्टी’ के मालिक भी लाला जगत नारायण सेठ ही थे। साल 1942 में लाला जगत नारायण सेठ ने इसकी बागडोर संभाली, और तब से नाम ‘रिट्ज’ हो गया। ‘रिट्ज’ में रिलीज फिल्मों में सबसे ज्यादा चलने वाली फिल्म ’संसार’ थी। इसकी महलनुमा लुक थी और छत के दोनों छोरों पर इधर-उधर दो छतरियां बनी थीं। भीतर राजसी नजारा था-दीवारें पेंटिंग से सजीं थीं और जमीन पर मुलायम गद्देदार गलीचे लगे थे। भीतर जाने के तीन गेट थे, जो आज भी हैं। साल 1960 में, फ्रंट को प्लेन लुक दी गई। तब से अब तक एक या दो बार पेंट का रंग जरूर बदला। अंदर स्क्रीन और सीटों का आधुनिकरण किया गया। मॉडर्न साउंड और प्रोजेक्शन सिस्टम को भी अपनाया गया।
एक जमाने में इसकी पहली मंजिÞल पर बार और बिलियर्ड्स टेबलों की रौनकें होती थीं। इसकी सबसे खास बात थी कि यहां औरतों के लिए स्पेशल सीटें रिजर्व रहती थीं। बात 1950 के दशक की है। मुस्लिम औरतें दरियागंज और चांदनी चौक के पदार्बागों में मिलतीं और वहीं से तांगे की टकाटक सवारी करती ‘रिट्ज’ पहुंच जातीं। तब 10 आने (करीब 62 पैसे) की टिकट के लिए औरतों से सवा रुपये वसूले जाते थे। क्यों ? क्योंकि पुरानी दिल्ली के ‘जगत’, ‘जुबली’, ‘कुमार’, ‘मैजेस्टिक’ वगैरह सिनेमाहॉलों की बजाय ‘रिट्ज’ में औरतें खुद को ज्यादा महफूज समझती थीं। हालांकि तब ‘जगत’ में भी केवल महिलाओं के लिए सीटें सुरक्षित होती थीं, लेकिन वे वहां जाने से झिझकती थीं। क्योंकि वहां उन्हें डर था कि कहीं कोई देख न ले। बीती सदी के साठ- सत्तर के दशक में डांसिंग सेनसेशन हेलन का कैबरे देख मतवाले दर्शक सिक्के लुटाने से बाज नहीं आते थे। हेलन की हर अदा और ठुमके पर स्क्रीन की तरफ सिक्कों की बौछार होने लगती थी। एक- एक दर्शक दसेक आने (62 पैसे) की टिकट से ज्यादा पैसे तो लुटा ही आता था। शायद यहीं दिल्ली की पहली ‘एडल्ट’ सर्टिफिकेट फिल्म प्रदर्शित की गई थी। बताते हैं कि ‘एडल्ट’ फिल्म देखने की ललक में दिल्ली के एक अन्य सिनेमाहॉल ‘अम्बा’ के मालिक भी यहां पहुंच जाते थे। साठ, सत्तर और अस्सी के दशक तक ‘रिट्ज’ पर फिल्म देखना और फिर एकदम नजदीक ही ‘खैबर’ नामक इंडियन रेस्टोरेंट में डिनर करना स्टेट्स सिम्बल बन गया था। पैदल दूरी पर कश्मीरी गेट के बड़े बाजार में कड़ाही दूध और देसी घी की जलेबियां खिलाती हलवाई की आजू- बाजू दो- दो दुकानें थीं। एक, ‘मिट्ठन लाल’ और दूसरी, ‘मक्खन लाल टीका राम’। पहली तो 1980 के सालों में बंद हो चुकी है, और दूसरी 1922 से आज तक जारी है। लोगबाग इंटरवल में भाग कर दूध- जलेबी खा- पी आते। यही नहीं, ‘पाकीजा’ जैसी फिल्मों की गजलों- नगमों की इस कदर दीवानगी थी कि दर्शक बाकायदा फिल्म देखने कापी- कलम ले कर आते थे, ताकि देखते- सुनते गीतों के शब्दों को लिखते जाएं। तब ‘यू-टयूब’ या ‘कारवां’ का जमाना नहीं था कि मनचाही गजल या गीत मनमर्जी के वक्त देख- सुन सकें।
शम्मी कपूर और सायरा बानो स्टारर ‘जंगली’ रिट्ज पर गोल्डन जुबली मनाने वाली सबसे हिट फिल्मों में से एक थी। फारुख शेख और पूनम ढिल्लों अभिनीत ‘नूरी’ भी यहां इस से कम नहीं चली। ‘घराना’, ‘गृहस्थी’, ‘मिलन’, ‘पूरब और पश्चिम’, ‘शोर’, ‘हमराज’, ‘प्यार झुकता नहीं’, ‘रोटी. कपड़ा और मकान’, ‘मुक़्कदर का सिकंदर’, ‘कालिया’, ‘प्रेम रोग’ वगैरह फिल्मों को भी यहीं सिल्वर जुबलियां मनाने के मौके मिले। कम से कम 50 फिल्में एक- एक साल चलीं और सुपर हिट रहीं। फिल्में साल- डेढ़ साल हाउसफुल चलतीं, तो बाहर दीवार पर लगे होर्डिंग घिस- पिट जाते, फट- टूट जाते, रंग मद्धम पड़ जाते। ऐसे में, फिल्म वही रहती, लेकिन बाहरी होर्डिंग कई बार बदलने पड़ते। यह वातानुकूलित नहीं, एयरकूल है। बताते हैं कि सुपर स्टार राजेश खन्ना को अपनी दूसरी पारी में ’रिट्ज’ से खासा लगाव हो गया था। ‘अराधना’, ‘दाग’, ‘आनन्द’, ‘कटी पतंग’ वगैरह के बाद सुपरस्टार ने दूसरी पारी की ‘सौतन’, ‘थोड़ी सी बेवफाई’, ‘अवतार’ वगैरह अपनी तमाम फिल्में रिलीज करवाने के लिए ‘रिट्ज’ के दरवाजे खटखटाते थे। उनके खास आग्रह पर, उनकी बाद की सारी फिल्में ‘रिट्ज’ में रिलीज हुर्इं और सुपर हिट रहीं।
साल 2000 में, मल्टीप्लेक्स सिनेमा के आने के बाद ‘रिट्ज’ की रौनकें घटती गर्इं। आजकल विजय नारायण सेठ अपने भाई वीरेन्द्र नारायण सेठ और बेटों रोहित सेठ, वरूण सेठ और विधुर सेठ के साथ सिनेमा हॉल की देखरेख करते हैं। सिंगल स्क्रीन सिनेमाहॉलों के मौजूदा आलम पर मालिक विजय नारायण सेठ उखड़े मन से दो टूक कहते हैं, ‘अब सिल्वर जुबली मनाने का सवाल ही नहीं उठता। बेहतरीन से बेहतरीन फिल्म में 25 घंटे हाउसफुल कराने का दम नहीं है, 25- 25 हफ़्तों की बात ही छोड़िए।