महमूद गजनवी एक बार शेख फुरवान के पास आया। शेख फुरवान प्रसिद्ध संत थे। गजनवी ने संत को अशर्फियों की थैली भेंट की। संत फुरवान ने अपने थैले से एक रोटी का टुकड़ा निकाला और उसे दिया। गजनवी उस सूखे और कठोर रोटी के टुकड़े को देखकर अवाक रह गया।
वह सम्राट! अमीरी में जिसका लालन-पालन हुआ हो, वह सूखी रोटी के टुकड़े को कैसे खा सकता था? लेकिन खाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। वह रोटी के टुकड़े को न तोड़ पा रहा था और न ही खा पा रहा था। संत फुरवान ने कहा, ‘सुल्तान! रहने दो।
यह रोटी तुम्हारे काम की नहीं है और तुमने जो थैली यहां रखी है, वह मेरे काम की नहीं’। गजनवी को अहसास हुआ कि मैंने संत को अशर्फियों की थैली भेंट कर भूल की है। कुछ क्षण बीते।
गजनवी जाने लगा। फकीर अपने आसन से उठे। गजनवी यह देख विस्मित रह गया, मैं आया तब शेख अकड़ कर बैठे थे और अब जा रहा हूं, तो सम्मान कर रहे हैं।
गजनवी से रहा नहीं गया, उसने पूछा, ‘दीदारप्रवर! यह क्या? मैं आया, तब आप बैठे रहे और मैं जा रहा हूं, तब सम्मान में खड़े हो गए। ऐसा क्यों’?
शेख फुरवान ने कहा, ‘पहले तुम सम्मान के अधिकारी नहीं थे और अब सम्मान के अधिकारी बन गए हो? जब तुम आए, तब तुम्हारे सिर पर इन अशर्फियों का अहंकार था।
मैं किसी अहंकारी को सम्मान नहीं देता। अब जब तुम जा रहे हो, तब अहंकार का भूत उतर गया है। तुम विनम्र बन गए हो। विनम्रता को सम्मान देना एक फकीर का कर्तव्य है। इसलिए मैं तुम्हें सम्मान दे रहा हूं’।