नरेंद्र देवांगन
एशिया के पर्वतीय क्षेत्रों में समुद्र तल से 1700 से 3500 फुट की ऊंचाई पर आमतौर पर पाया जाने वाला देवदार नुकीली पत्तियों व सदैव हरे रहने वाले वृक्षों की प्रजाति पिनाएसिई का सबसे सुंदर, दीर्घ आयु और बड़े आकार वाला पेड़ है। स्थानीय बोलचाल में इसे दयार, केलो या कीलों भी कहते हैं। यह अनुकूल वातावरण में सघन रूप में मिलता है। कहीं-कहीं यह कैल, बान, फ्राश इत्यादि की मिली-जुली फसल में भी पाया जाता है। अच्छे उपजाऊ ढलावों पर यह लगभग 100 साल में 2 मीटर घेरा और 30-35 मीटर ऊंचाई पा लेता है, तभी इसे वयस्क समझा जाता है। इसके पेड़ 14 मीटर के घेरे तथा 75 से 80 मीटर ऊंचाई वाले भी होते हैं।
भौगोलिक दृष्टि से देवदार कुमाऊं से शुरू होकर गढ़वाल, पश्चिमी हिमालय, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, उत्तरी बलूचिस्तान (पाकिस्तान) व अफगानिस्तान इत्यादि से भी आगे तक पाए जाते हैं। हिमालय पर्वत, खासकर हिमाचल प्रदेश के मंदिरों के परिसर जैसे कि चंबा में चौरासी मंदिर, सिरमौर में 10 से 15 मीटर घेरे तथा 45 से 50 मीटर ऊंचाई वाले देवदार देखने को मिलते हैं।
देवदार के तने में वार्षिक बढ़त वृत्त होते हैं, जिनसे पौधे की आयु ठीक-ठीक आंकी जा सकती है। इनके विशालकाय होने के तथ्य को ठीक से दर्शाने के लिए पिछली शताब्दी के शुरू में ही 9 मीटर घेरे वाले तने का एक सेक्शन न्यू फॉरेस्ट, देहरादून में दर्शकों की जिज्ञासा के लिए रखवाया गया है। इच्छुक व्यक्ति इसके क्रास सेक्शन को वन अनुसंधान केंद्र के म्यूजियम में देख सकते हैं।
देवदार वृक्ष की आम पहचान इसकी एक जैसी आयु के वृक्षों की सुंदर फसल, सीधे खड़े हल्के भूरे रंग के पेड़, खड़ी तथा तिरछी पर समानांतर धारियों वाली छाल, गहरे हरे रंग वाली 3 से 5 सेंटीमीटर लंबी सूई जैसी गुच्छों में लगी पत्तियां होती हैं। इसकी छतरी जैसी शाखाएं भी एक सुंदर पिरामिड की शक्ल की होती हैं। इसमें पीले फूल टहनियों के शिखर पर सितंबर-अक्टूबर में खिलते हैं। इन पर कोन की शक्ल व नाम वाला फल अप्रैल-मई में आता है।
30 मीटर ऊंचे और 15 मीटर लपेट वाले एक देवदार से लगभग 2 घनमीटर लकड़ी निकल सकती है, जिसका वर्तमान दर पर मूल्य लगभग 1,00,000 रुपये तक बनता है। इसकी लकड़ी पीली, सघन, सुगंधित, हल्की मजबूत, टिकाऊ व रालयुक्त होती है। राल के कारण इसकी लकड़ी में कीड़े और फफूंद नहीं लगते और इस पर पानी का भी असर नहीं होता।
पुराने जमाने में देवदार के वनों की उपलब्धियां देखते हुए इसकी लकड़ी के रेलवे स्लीपर बनाए जाते थे पर अब इस की लकड़ी केवल भवन निर्माण तथा फर्नीचर इत्यादि के लिए भी मुश्किल से उपलब्ध हो पाती है।
देवदार की लकड़ी लगभग 20 किलोग्राम प्रति घन फुट वजन वाली, महकदार तेल से भरी, सुंदर रेशों वाली होती है। इस पर रंदा चलाने पर अच्छी चमक आती है और स्पिरिट पालिश की पारदर्शी परत के नीचे रेशे बहुत सुंदर उभरते हैं।
देवदार की लकड़ी में एक विशेष प्रकार का तेल ‘रेजिन’ होता है, जिससे वह कीड़ों व कीटाणुओं से स्वत: सुरक्षित व टिकाऊ रहती है। यही वजह है कि इस लकड़ी से बने संदूकों में रखे कपड़े भी सुरक्षित रहते हैं। उनमें कीड़े नहीं लगते। इस तेल को एक वैज्ञानिक विधि द्वारा प्राप्त कर दवाइयों व मालिश के अलावा किश्तियों के जोड़ों को पक्का करने के लिए भी इस्तेमाल में लाया जाता है। इसकी लकड़ी की छीलन और बुरादे से ढाई से 4 प्रतिशत तक वाष्पशील तेल प्राप्त होता है जो सुगंध के रूप में ‘हिमालयी सिड्रसवुड तेल’ नाम से जाना जाता है। स्थानीय लोग इस पेड़ की टहनियों व फालतू लकड़ी को जलाने के काम में भी लाते हैं।
देवदार की लकड़ी का इस्तेमाल आयुर्वेदिक औषधियों में भी होता है। इसके पत्तों में अल्प वाष्पशील तेल के साथ-साथ एस्कॉर्बिक अम्ल भी पाया जाता है। देवदार के वनों में कई तरह के वन्य प्राणी जैसे बाघ, भालू, हिरण, मौनाल, टै्रगोपान, बफार्नी फीजेंट इत्यादि मिलते हैं। सुंदर देवदार पेड़ों के नीचे विचरते ये वन्य प्राणी पर्यावरण के सौंदर्य में चार चांद लगाते हैं।
एक खासियत यह भी है कि इनके नए पौधे अनुकूल जलवायु में वयस्क पेड़ों के नीचे स्वत: उग आते हैं। अलबत्ता कठिन खाली स्थानों को भरने के लिए प्रांतीय वन विभाग इसकी पौध पालिथीन की थैलियों में उगाते हैं जिन्हें नर्सरी पौधे कहा जाता है। ये नर्सरी पौधे जब दो साल के हो जाते हैं तो खाली क्षेत्रों में रोप दिए जाते हैं। पर्यावरण को सौहार्द बनाने तथा देश की समृद्धि हेतु वनों को बढ़ाने के लिए ये पौधे रियायती दर पर उपलब्ध कराए जाते हैं।
देवदार के अनेक उपयोगों को ध्यान में रखते हुए हमें इसके वनों के संरक्षण में ज्यादा से ज्यादा योगदान देना चाहिए और खाली क्षेत्रों में देवदार के पौधे ज्यादा से ज्यादा लगाने चाहिए।