Saturday, December 28, 2024
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राष्ट्रनीति और राजनीति का अंतर

NAZARIYA 1


RAMESHWAR MISHRAकुछ महीनों में पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव होने वाले हैं ऐसे में यह विषय महत्वपूर्ण हो जाता है कि हमारे लिए राष्ट्रीय विषय महत्वपूर्ण हैं या राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति वाले एजेंडे महत्वपूर्ण हैं। राजनीति को राष्ट्रनीति से जोड़कर हमेशा से देखा जाता रहा है और लोगों की यह धारणा है कि राष्ट्रनीति को महत्वपूर्ण स्थान देने वाली राजनैतिक पार्टी राजनीति का सफलतम केंद्र बिंदु होती है और वही पार्टी चुनाव में विजय प्राप्त करती है, लेकिन आज बदलते दौर में राजनीति और राष्ट्रनीति दो अलग केंद्र बिंदु बन गए हैं। आज हमारे देश का युवा राजनीतिक घेराबंदी तथा निजी स्वार्थ की प्रबलता के चलते यह निर्णय लेने में असफल है कि अमुक राजनीतिक निर्णय राष्ट्रनीति को किस प्रकार प्रभावित करेगा। आज इन्ही भावनात्मक संवेदनाओं का कुछ विशेष पार्टियों द्वारा लाभ उठाया जा रहा है, राष्ट्रवाद, देशभक्त, देशद्रोही आदि शब्दों के जाल में आम जनमानस को फसाने का राजनीति में घिनौना खेल खेला जा रहा है।

इन्ही मकड़ जालों के परिणामस्वरूप राजनीति में बाजीगर, जादूगर, नृपनिर्माता, आधुनिक चाणक्य आदि शब्दों का इस्तेमाल बढ़ा है, आज वक्त देश के बदलते हालातों पर नजर बनाये रखने की है क्योंकि देश में आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण निर्णय लिए जा रहे हैं, जो देश की व्यवस्था में बहुत ही आमूल-चूल परिवर्तन को रेखांकित करने वाले हैं, जिसका प्रभाव आने वाले समय में हमारी पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा।

आज देश में अनेक ऐसे विषय हैं जो प्रत्यक्ष तौर पर देश की व्यवस्था को प्रभावित करेंगे, लेकिन राजनैतिक मकड़जाल के चलते आज उन नीतियों की चर्चा के इतर धार्मिक, जातिगत शब्दों के इस्तेमाल की खबरों को प्रमुखता के साथ हमारी नजरों सामने दौड़ाया जा रहा है।

इस समय सरकार की नीति का मुख्य विषय अभिनेताओं को राजनैतिक सियासत का हिस्सा बनाना, धर्म एवं जातिगत विषयों को राजनैतिक एजेंडा बनाना और चुनाव में जीत-हार की राजनीति को प्रमुखता देना है जिससे देश में आम जनमानस के हितों तथा राष्ट्रीय हितों से जुड़े प्रश्न बहुत दूर छूट जा रहे हैं।

वर्तमान समय में देश में अनेक समस्याएं हैं, जैसे देश का भुखमरी में 94वें पायदान से फिसलकर पाकिस्तान एवं बांग्लादेश से भी पीछे गिरते हुए 102वें पायदान पर पहुंच जाना है जो हमारी सरकार की राष्ट्रनीति और राजनीति के अन्तर को दर्शाता है।

सरकार की नीतियां जब राष्ट्रनीति के इतर कार्य करती है तो देश में ऐसे संकटों की खबरें आना स्वाभाविक ही है। देश में इस समय सरकार द्वारा निजीकरण का दौर चलाया जा रहा है, बैंकिंग, रेलवे, यार्ड, स्टेडियम, खाद्य भंडार, बीमा, हाईवे, एयरपोर्ट, एयर इंडिया आदि क्षेत्रों की नीलामी के लिए वित्त मंत्रालय द्वारा प्रीविड को आमंत्रित किया जा रहा है।

सरकार ने इन क्षेत्रों के साथ-साथ मेक-इन-इंडिया के नाम पर पहली बार रक्षा विभाग में भी निजी कंपनियों की भागीदारी का मार्ग विनिवेश के नाम पर खोल दिया है।

अपनी अदूरदर्शी एवं राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए जो नीति अपनायी गई, उससे देश की अर्थव्यवस्था को गहरी चोट लगी है, जिससे जीडीपी में संकुचन देखने को मिला है जो देश की गिरती अर्थव्यवस्था का सूचक है। इस आर्थिक संकट से जूझ रही अर्थव्यवस्था को निकालने के लिए सरकार ने सरकारी संपत्तियों के विक्रय का मार्ग अपनाया है।

सरकारी संपत्तियों को बेचकर धन जुटाने की इस जुगत में सरकार ने अब सरकारी जमीन का 1500 एकड़ भी बेचने की घोषणा की है, सरकार की इसी अदूरदर्शी विक्रय नीति के चलते आज सरकार के पास अपनी कोई विमान कंपनी नहीं रह गई। सरकार की इन्हीं आर्थिक नीतियों के चलते देश की अर्थव्यवस्था पर कुछ गिने-चुने पूंजीपतियों की दखल की नौबत आ गई है तथा पूरी आर्थिक नीति कुछ पूंजीपतियों के हितों से तय की जाने लगी है।

राजनीति में जब राष्ट्रनीति की उपेक्षा होती है, तब अंतर्राष्ट्रीय हितों को नजरअंदाज किया जाता है, जिसका प्रतिफल यह होता है कि पड़ोसी देश चीन द्वारा भारतीय उप-राष्ट्रपति के अरुणाचल दौरे पर रोक लगाई जाती है, चीन द्वारा हमारी उत्तरांचल सीमा में 5 किलोमीटर अंदर घुसकर पुलिया को तोड़ दिया जाता है तथा सरकार द्वारा इसका दोष विपक्ष पर मढ़ने का असफल प्रयास किया जाता है।

जब राजनीति में राष्ट्र हितों को महत्व नहीं मिलता है, तब देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले किसानों और कंपनियों को देशद्रोही कहा जाता है। जैसे पिछले कुछ दिनों में इन्फोसिस, टाटा और किसानों के संदर्भ में सुनने को मिला है। राजनीति, राष्ट्रनीति से तब अहम बन जाती है, जब देश के हितों से जुड़े विषयों की अनदेखी होने पर भी हम राजनैतिक पार्टियों की रणनीति का हिस्सा बन जाते हैं तथा अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु उन्हीं विरोधी विचारों के लिए लड़ने लगते हैं और राष्ट्र से ऊपर राजनीति को स्थान देते हैं।

राजनीति जब राष्ट्रनीति से अलग होती है तो देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ता है तथा सरकार की हिस्सेदारी कम होने लगती है। जब राजनीति में राष्ट्रीय हितों को स्थान नहीं मिलता है, तब देश के प्रमुख संस्थानों में निजी कंपनियों के प्रवेश को विनिवेश की संज्ञा दी जाती है, देश की सरकारी संपत्तियों के विक्रय को मेक इन इंडिया की संज्ञा दी जाती है, देश की जर्जर स्वास्थ्य सुविधाओं से निपटने में तथा अपने लोगों को महामारी से बचाने की जद्दोजहद को आत्मनिर्भर भारत कहा जाता है। किसान, बेरोजगार, गरीबी, भुखमरी, जन-स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, कुपोषण, गिरती अर्थव्यवस्था, पड़ोसी देशों द्वारा सीमा अतिक्रमण जैसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय विषयों की अनदेखी की जाती है।


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