मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मुइजू ने अपने देश के मतदाताओं से किए वादे को पुरा करने की दिशा में कदम उठाने शुरू कर दिए हंै। पिछले दिनों यहां हुए राष्ट्रपति चुनाव में चीन समर्थक डा. मुइजू ने अपने चुनावी कैंपेन में अपने नागरिकों से देश की संप्रभुता के लिए भारतीय सैनिकों को वापस भेजने का वादा किया था। मालदीव के लोगों ने मुइजू की बात पर भरोसा किया। चुनाव परिणाम डा. मुइजू के पक्ष में रहा। चुनाव परिणामों के तत्काल बाद प्रतिक्रिया देते हुए कहा मुइजू ने कहा था कि वे अपने कार्यकाल के पहले ही दिन से भारतीय सैनिकों को वापिस भारत भेजने की प्रक्रिया शुरू कर देंगे। अब, 17 नवंबर को पद ग्रहण करने के बाद उन्होंने भारतीय सैनिकों की वापसी के प्रयास शुरू कर दिए हैं। मुइजू के शपथ ग्रहण समारोह भाग लेने के लिए मालदीव गए भारत केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू से औपचारिक मुलाकत के दौरान भी भारतीय सैनिकों की वापसी का मुददा उठा। इतना ही नहीं चीन समर्थक मुइजू ने पूर्व राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के शासनकाल में भारत और मालदीव के बीच हुए एक सौ से अधिक समझौतों की समीक्षा करने की बात भी कही है। हालांकि, भारत के पीएम नरेंद्र मोदी ने उन्हें जीत की बधाई देते हुए कहा था कि भारत मालदीव के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों को और अधिक मजबूत बनाएगा।
‘इंडिया-आउट’ अभियान के सहारे चुनावी कैंपेन चलाने वाले डॉ. मुइजू ने अपनी रैलियों में राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह को भारत समर्थक बताते हुए उन पर हमला किया था। मुइजू का कहना था कि उनकी सरकार मालदीव की संप्रभुता की संप्रभुता से समझौता कर किसी देश से करीबी नहीं बढाएगी। दूसरी ओर मोहम्मद सोलिह मुइजू पर चीन समर्थक होने का आरोप लगा रहे थे। कुल मिलाकर कहा जाए तो इस बार मालदीव का राष्ट्रपति चुनाव भारत और चीन के इर्द-गिर्द घूम रहा था। परिणाम चीन समर्थक मुइजू के पक्ष में रहा है। मुइजू के जीत के बाद भारत के भीतर यह सवाल लगातार उठ रहा था कि मुइजू राष्ट्रीय हितों को प्रथामिकता देते हुए भारत और चीन के बीच संतुलन बनाकर आगे बढ़ेंगे या अपने मतदाताओं के फैंसले का सम्मान करते हुए चीन के पाले में खडे़ होंगे। अब मुइजू के सैनिकों की वापसी के निर्णय से लगता है कि वे दूसरे विकल्प पर ही आगे बढ़ेगे।
दरअसल, पिछले एक डेढ-दशक से मालदीव हिन्द महासागर की प्रमुख शक्तियों भारत और चीन के बीच भू-राजनीतिक खींचतान का केन्द्र रहा है। साल 2013 में चीन समर्थक अब्दुल्ला यामीन के राष्ट्रपति बनने के बाद भारत-मालदीव संबंधों में लगातार गिरावट आई। भारत के पारंपरिक शत्रु पाकिस्तान के साथ ऊर्जा के क्षेत्र में किया गया समझौता हो या सैन्य हेलिकॉप्टर को वापिस लौटाने का फरमान हो यामीन का हर एक फैंसला भारत को असहज करने वाला था। भारत ने मालदीव को यह हेलिकॉप्टर राहत और बचाव कार्य के लिए दिए थे। यामीन ने ना सिर्फ चीनी की कंपनियों को पूरी छूट दे दी थी बल्कि मालदीव में कार्यरत भारतीय कंपनियों को वर्क परमिट जारी करना बंद दिया था जिसकी वजह से वहां उन परियोजनाओं का काम प्रभावित हुआ जिसमें भारत की भागीदारी थी। यामीन के बारे में तो यहां तक कहा जाता था कि वे अपने देश में भारत की किसी तरह की भागीदारी पंसद नहीं करते हैं। चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) भी उनके कार्यकाल में किया गया था। हालांकि, 2018 में सत्ता पविर्तन के बाद राष्ट्रपति मोहम्मद सोलिह ने इसे लागू नहीं किया। हो सकता है, अब मुइजू इसे लागू करवाने की दिशा में आगे बढ़े । चुनावी केम्पैन में वे इसे लागू करने की बात कह भी चुके है।
लेकिन साल 2018 के राष्ट्रपति चुनाव में भारत समर्थक इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के सत्ता में आने के बाद भारत-मालदीव संबंध फिर परवान चढ़ने लगे। सोलिह ने अपने कालखंड के दौरान ‘इंडिया फर्स्ट’ नीति को लागू करते हुए भारत के लिए निवेश व कनेक्टिविटी के द्वार खोल दिए। नवंबर, 2018 में अपने शपथ ग्रहण समारोह मे हिस्सा लेने के लिए मोहम्मद सोलिह ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आमंत्रित कर भारत की ‘नेबर फर्स्ट’ नीति का समर्थन किया था। सोलिह दिसंबर 2018 में अपने पहले विदेशी दौरे पर भारत आए। अगस्त 2022 में मोदी और सोलिह ने 50 करोड़ डालर की लागत से तैयार होने वाली मालदीव की सबसे बडी कनेक्टिविटी परियोजना की नींव रखी थी। इसके अलाव आज भी मालदीव में पेयजल, अस्पताल, क्रिकेट स्टेडियम व सामुदायिक भवनों के निर्माण जैसी दर्जनों परियोजाएं भारत की मदद से चल रही है। लेकिन अब सोलिह के सत्ता से रूखसत होने के बाद सवाल यह उठ रहा है कि सोलिह के कार्यकाल के दौरान बनी ‘इंडिया फर्स्ट‘ नीति समाप्त हो जाएगी जिसके संकेत मुइजू ने चुनाव परिणाम के तत्काल बाद अपने बयान में दिए है। अगर ऐसा होता है, तो निसंदेह हिन्द महासागर में भारत की पकड़ कमजोर हो सकती है।
मालदीव भले ही छोटा देश हो लेकिन रणनीतिक दृष्टि से भारत के लिए काफी अहम है। साल 1988 में राजीव गांधी की सरकार ने सेना भेजकर तत्कालिन राष्ट्रपति अब्दुल गयूम की सरकार को बचाया था। दिसंबर 2014 में माले के सबसे बड़े ट्रीटमेंट प्लांट के जनरेटर में आग लग जाने से पीने के पानी का संकट उत्पन्न हो गया । मालदीव ने भारत सरकार से गुहार लगाई। भारत ने तत्काल मदद करते हुए ‘आपरेशन नीर‘ चलाकर हजारों लिटर पानी के साथ आईएनएस सुकन्या और आईएनएस दीपक को माले भेजा। भारत की वायु सेना ने भी अपने एयरक्राफ्ट के जरिए सैकड़ों टन पानी माले पहुंचाया।
सामरिक दृष्टि से मालदीव चीन के लिए भी काफी अहम है। चीन ने उसे अपनी ऋण कुटनीति में उलझा रखा है। वह अपने कुल ऋण का 60 फीसदी से अधिक चीन से लेता है, जो उसके बजट का 10 प्रतिशत है। एक अनुमान के अनुसार चीन का मालदीव पर 14 अरब डॉलर का कर्ज है। साल 2016 में मालदीव ने चीन की एएक कंपनी अपना एक द्वीप 50 वषों के लिए लीज पर दे दिया था।चीन की योजना यहां सैन्य अड्डा निर्माण की भी है। इस नौ सेनिक अडडे का उपयोग परमाणु पनडुब्बियों के संचालन के साथ-साथ भारत की जासूसी के लिए भी कर सकता है। संक्षेप में कंहे तो चीन की समुद्री क्षेत्रों के प्रति जिस तरह से भूख बढी है, उस स्थिति में चीन को काउंटर करने के लिए मालदीव में भारत की पैठ जरूरी है। यामिन के कार्यकाल के दौरान चीन ने यहां नौ सैनिक अड्डा बनाने की बात कही थी। यही वजह है कि अगर मालदीव में भारत के हित प्रभावित होते हैं, तो चीन इस क्षेत्र का इकलौता खिलाड़ी बनकर उभर सकता है।