एक दौर था जब ‘रविवार’, ‘दिनमान’, ‘जनमत’ आदि जैसी प्रगतिशील पत्रिकाओं में रिपोर्ट आ जाती थी। खासकर, बिहार व उत्तर प्रदेश में दलितों पर होते अत्याचार को खबर बनाया जाता था। यदि इतिहास में झांकें तो सत्तर के दशक में गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों ने राष्ट्रीय मीडिया को बदलाव में धकेलना शुरू कर दिया जो अंतत: सत्ता विमर्श का एक हिस्सा बन गया। दबे-कुचले लोगों के ऊपर दबंगों के जुल्म-सितम की खबरें, बस ऐसे आती है जैसे हवा का एक झोंका हो! जिसका असर मात्र क्षणिक भी नहीं होता। साठ-सत्तर के दौर में ऐसा नहीं था। सामाजिक गैर बराबरी को जिस तेवर के साथ उठाया जाता था उसका असर देर सबेर राजनीतिक, सामाजिक और सत्ता के गलियारे में गूंजता रहता था।
दिनेशपुर, उत्तराखंड में अखिल भारतीय लघु पत्र-पत्रिका सम्मेलन का आयोजन हो रहा है। कुछ समय पूर्व पलाश विश्वास ने पत्रकारिता और साहित्य के संपादन संबधों की चर्चा की थी, जिसमें मूल बात यह थी कि रघुवीर सहाय और सव्यसाची जैसे संपादक नए लोगों की रचनाओं को एकदम रिजेक्ट न करके उनकी कमियां बताते थे, उन्हें ठीक करवाते थे और छापते थे।
Weekly Horoscope: क्या कहते है आपके सितारे साप्ताहिक राशिफल 15 मई से 21 मई 2022 तक || JANWANI
एक और संपादक प्रभाष जोशी को भी एक प्रोफेशनल और समूह-नायक के तौर पर याद किया है। यद्यपि उनके विचारों को लेकर कुछ विवाद भी रहे, लेकिन उनका योगदान अवश्य अविस्मरणीय है। आज विडंबना यह है कि दूरदराज के लेखकों को विकसित करना और प्रशिक्षित करना संपादकों के द्वारा अब नहीं हो पा रहा है। यह अब मुश्किल है। अब संपादक, प्रबंधक की भूमिका में आ चुके हैं।
दरअसल, अब मीडिया का स्वरूप और प्राथमिकताएं बदल गई हैं। मुख्यधारा के मीडिया में कहीं कोई बड़े मूल्य, आदर्श और जनप्रतिबद्धता अब चिराग लेकर ढूंढने पर भी नहीं दिखेगी। इस बारे में एक जागरूक वृद्ध की प्रतिक्रिया थी, ‘आज देश के जो हालत है, उसके बारे में सोचता हूं तो अफसोस होता है। पहले ये हालात नहीं थे। किसी भी गरीब आदमी के लिए कहीं कोई ठिकाना नहीं है। कोई भी गरीब अगर कहीं एक झोंपड़ी डालकर रह रहा है तो उसे उजाड़ दिया जाता है। अमीरों की आंखों में गरीब खटकता रहा है।
अब सरकार भी पूरी तरह गरीब विरोधी हो चुकी है। वह मध्य वर्ग के विद्वेष का भी शिकार है। हमने नहीं सोचा था कि देश की ऐसी हालत हो जाएगी। आज मीडिया से भी कोई आस नहीं है। आप लोग बड़े लोगों से और नेताओं से तो बात करते हो पर गरीब की बात करने वाला और लाचार लोगों को सहारा देने वाला कोई नहीं है।
आप जो काम कर सकते हैं, वो भी नहीं कर रहे। लोगों पर जुल्म हो रहा है पर सरकार कुछ नहीं कर रही हैे हाँ, जब वोट माँगने की बारी आती है तब नेताओं को याद आता है कि यह गरीबों की भी देश है। हम जैसे लोगों का भी देश है। तब उन्हें यह बुजुर्ग दिखाई देता है। पुलिस और अधिकारियों का रवैया भी लोगों के साथ इंसानों वाला नहीं है। उन्हें सामने वाला इंसान नजर नहीं आता है। यह हमारा देश है और हम इसके लिए काम कर रहे हैं पर देश ही हमें खत्म करने पर तुला है।’
असल में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रारूप ने भारतीय मीडिया की अधकचरी संस्कृति को ओढ़ने-बिछाने वाले एक छोटे से तबके को भले ही कुछ ऐसा दे दिया हो जो उन्हें नायाब दिखता होगा, एक आम भारतीय समाज के लिए उसका कोई मूल्य या महत्व नहीं। यह ‘क्लास’ का मीडिया ‘मास’ का मीडिया बन ही नहीं सकता। संजय कुमार के अनुसार, ‘भारतीय मीडिया में दलित आंदोलन के लिए कोई जगह नहीं है।
वह तो, क्रिकेट, सिनेमा, फैशन, तथाकथित बाबाओं, राजनेताओं, सनसनी, सेक्स-अपराध, भूत-प्रेत और सेलिब्रिटीज के आगे-पीछे करने में ही मस्त रहती है। इसके लिए अलग से संवाददाताओं को लगाया जाता हैं जबकि जनसरोकार एवं दलित-पिछड़ों से संबंधित खबरों को कवर करने के लिए अलग से संवाददाता को बीट देने का प्रचलन लगभग खत्म हो चुका है। इसे बाजारवाद का प्रभाव माने या द्विज-सामंती सोच! मीडिया सत्ता, सेक्स, खान-पान, फैशन, बाजार, महंगे शिक्षण संस्थान के बारे में प्राथमिकता से जगह देने में खास रूचि दिखाती है।
ऐसे मैं दलित आंदोलन के लिए मीडिया में कोई जगह नहीं बचती? अखबारों में हीरो-हीरोइन या क्रिकेटर पर पूरा पेज छाया रहता है, तो वहीं चैनल पर घण्टों दिखाया जाता है। दलित उत्पीड़न को बस ऐसे दिखाया जाता है जैसे किसी गंदी वस्तु को झाडू से बुहारा जाता हो? समाज के अंदर दूर-दराज के इलाकों में घटने वाली दलित उत्पीड़न की घटनाएं, धीरे-धीरे मीडिया के पटल से गायब होती जा रही है। एक दौर था जब ‘रविवार’, ‘दिनमान’, ‘जनमत’ आदि जैसी प्रगतिशील पत्रिकाओं में रिपोर्ट आ जाती थी।
खासकर, बिहार व उत्तर प्रदेश में दलितों पर होते अत्याचार को खबर बनाया जाता था। यदि इतिहास में झांकें तो सत्तर के दशक में गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों ने राष्ट्रीय मीडिया को बदलाव में धकेलना शुरू कर दिया जो अंतत: सत्ता विमर्श का एक हिस्सा बन गया। दबे-कुचले लोगों के ऊपर दबंगों के जुल्म-सितम की खबरें, बस ऐसे आती है जैसे हवा का एक झोंका हो! जिसका असर मात्र क्षणिक भी नहीं होता। साठ-सत्तर के दौर में ऐसा नहीं था। सामाजिक गैर बराबरी को जिस तेवर के साथ उठाया जाता था उसका असर देर सबेर राजनीतिक, सामाजिक और सत्ता के गलियारे में गूंजता रहता था।’
पिछले कुछ सालों में महिलाएं कई क्षेत्रों में आगे आई हैं। उनमें नया आत्मविश्वास पैदा हुआ है और वे आज हर काम को चुनौती के रूप में स्वीकार करने लगी हैं। अब महिलाएं सिर्फ चूल्हे-चौके तक ही सीमित नहीं रह गयी हैं, या फिर नर्स, एयर होस्टेस या रिसेप्शनिस्ट नहीं रह गई हैं, बल्कि हर क्षेत्र में उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है। चाहे डॉक्टरी-इंजीनियरी या प्रशासनिक सेवा का पेशा हो कम्प्यूटर और टेक्नोलॉजी का क्षेत्र हो, विभिन्न प्रकार के खेल हो पुलिस या वकालत का पेशा हो।
होटल मैनेजमेंट,बिजनेस मैनेजमेंट या पब्लिक रिलेशन का क्षेत्र हो, पत्रकारिता, फिल्म और विज्ञापन का क्षेत्र हो या फिर बस में कंडक्टरी या पेट्रोल पंप पर तेल भरने का काम हो। या टैक्सी-आॅटो चलाने की ही बात हो, अब हर जगह महिलाएं तल्लीनता से काम करती दिखाई देती हैं। अब हर वैसा क्षेत्र जहां पहले केवल पुरुषों का ही वर्चस्व था, वहां स्त्रियों को काम करते देखकर हमें आश्चर्य नहीं होता है। यह हमारे लिए अब आम बात हो गयी है। महिलाओं में इतना आत्मविश्वास पैदा हो गया है कि वे अब किसी भी विषय पर बेझिझक बात करती हैं। धरना-प्रदर्शन में भी आगे रहती हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि अब कोई भी क्षेत्र महिलाओं से अछूता नहीं रहा है। वे सिर्फ उपभोग की वस्तु नहींं हैं। लेकिन चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो, स्त्रियों के प्रति मीडिया की सोच में कोई खास बदलाव नहीं आया है।
मीडिया अब भी स्त्रियों के प्रति वर्षों पुरानी सोच पर कायम है। मीडिया आज भी स्त्रियों को घर-परिवार या बनाव-श्रृंगार तक ही सीमित मानता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, टेलीविजन धारावाहिकों, समाचार चैनलों और टेलीविजन विज्ञापनों ने महिला की दूसरी छवि जो बनाई है उसमें ऐसी महिलाओं को दिखलाया जाता है जो परंपरागत शोषण और उत्पीड़न से तो मुक्त दिखती हैं लेकिन वह स्वयं पुरुषवादी समाज के लिए उपभोग की वस्तु बनकर रह जाती हैं।
इन दिनों हमारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मुक्त-महिला का जो रूप दिखाता है, वह एक उपभोक्ता महिला का ही रूप है जो सिगरेट पीती है, शराब पीती है और जुआ खेलती है। इनमें अधिकतर उच्च मध्य वर्ग की महिलाओं की इसी छवि को दिखाया जाता है।
मीडिया विज्ञापनों, धारावाहिकों और फिल्मों के भीतर महिला का निर्माण करते हुए यह भूल जाता है कि भारत की शोषित, दमित महिला की मुक्ति का लक्ष्य बाजार में साबुन बेचने वाली महिला नहीं हो सकती।
महिलाओं के मामले में समाचार पत्रों का भी हाल कोई जुदा नहीं है। आप कोई भी अखबार उठा लें, गांव में, खेत-खलिहानों में, परिवार में, नौकरी में,महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव की चर्चा, उससे लड़ने की आवश्यकता पर लेख/रिपोर्ट मिले या नहीं, सुंदरता बढ़ाने के उपायों पर विस्तृत लेख अवश्य मिलेंगे। मेधा पाटकर, अरुंधति राय की चर्चा हो या न हो, दीपिका पादुकोण, ऐश्वर्य राय, कैटरीना कैफ आदि का गुणगान अवश्य मिल जाएगा।
प्रगतिशील और आंदोलनी तेवर वाली महिलाओं, आधुनिक विचारधारा वाली, अन्याय और शोषण के खिलाफ आंदोलन करने वाली, सड़कों पर नारे लगाते हुए जुलूस निकालने वाली, धरना देने वाली, सभाएं और रैलियां करने वाली, समाचार-पत्रों में महिला अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली, कल-कारखानों और खेतों में काम करने वाली महिलाओं का चरित्रहनन करना उन्हें देशद्रोही बताने वाला मीडिया महिला विद्वेषी भी है और अपराधी भी।
पुलिस, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, प्रशासन में ईमानदारी के साथ काम करने वाली महिलाओं की जितनी चर्चा समाचार पत्रों में होती है उससे कई गुणा अधिक चर्चा देह एवं अपने सौंदर्य का प्रदर्शन करने वाली अभिनेत्रियों एवं मॉडलों की होती है।
प्रिंट मीडिया में महिलाएं अब भी सिर्फ हाशिये की ही जगह पाती हैं। यही हाल कृषकों, गांवों और सुदूर जंगलों में रहने वाले मूल निवासियों का हैे उनकी मीडिया को कहां चिंता हैे उसे तो पूंजी, व्यापार, सत्तासीन नेताओं और चमक दमक की चाकरी करनी हैे मुनाफा कमाना हैे इसलिए वैकल्पिक मीडिया की महती आवश्यकता है जो सिर्फ सोशल मीडिया न होकर सुनियोजित मूल्यों पर आधारित पत्रकारिता का संरक्षक हो।
– शैलेन्द्र चौहान
What’s your Reaction?
+1
+1
2
+1
+1
+1
+1
+1