सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानो के साथ दुष्कर्म और उनके परिवार वालों की हत्या करने के मामले में सजा पाए 11 दोषियों की सजा में छूट देकर रिहा करने के फैसले को रद्द कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ ने ये फैसला सुनाया है। कोर्ट के इस फैसले के बाद इन 11 अपराधियों को दो हफ़्ते के अंदर जेल अधिकारियों के सामने आत्मसमर्पण करना होगा। गुजरात में 2002 के दंगों के दौरान इन 11 लोगों ने बिलकिस बानो जो कि उस वक्त गर्भवती थी, का सामूहिक बलात्कार किया था। इसके साथ ही 14 लोगों की हत्या भी की गई थी, जिनमें बिलकिस बानो की तीन वर्षीय बेटी भी शामिल थीं। बिलकिस बानो केस में सर्वोच्च अदालत के फैसले ने साबित कर दिया कि इंसाफ और कानून अभी जिंदा हैं। अपराधियों को मुक्त नहीं किया जा सकता। अपराधी और उनके सत्ताई आका कानून के सामने बौने हैं। अंतत: उन्हें कानून के सामने आत्म-समर्पण करना ही पड़ेगा। गुजरात पुलिस ने साल 2002 में कहा था कि इस केस को बंद कर देना चाहिए क्योंकि वह अपराधियों को ढूंढ़ नहीं पाई है। इसके बाद बिलकिस बानो ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की थी कि इस केस की जांच सीबीआई से कराई जानी चाहिए। इसके बाद ये मामला गुजरात से महाराष्ट्र भेजा गया। साल 2008 में सीबीआई की विशेष अदालत ने इन 11 लोगों को आजीवन कारावास की सजा दी। आजीवन कारावास की सजा पूरे जीवन के लिए होती है लेकिन सरकार के पास ये अधिकार होता है कि वो अपराधी का अच्छा आचरण देखकर 14 साल बाद उसे रिहा कर दे। सरकार इस मामले में दूसरी शर्तें भी लागू कर सकती है, जैसे संबंधित कैदी को कब रिहा किया जाए। इसके बाद अप्रैल 2022 में राधेश्याम भगवान शाह नामक अपराधी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाली कि गुजरात सरकार को साल 1992 की एक नीति के तहत उनकी सजा माफी पर निर्णय लेना चाहिए। गुजरात सरकार ने इसका विरोध किया था। सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ के मुताबिक इसका फैसला महाराष्ट्र सरकार को करना होगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने राधेश्याम भगवान शाह की याचिका को मंजूरी दे दी। इसके पहले राधेश्याम भगवान शाह ने गुजरात हाई कोर्ट में भी समान याचिका डाली थी। लेकिन गुजरात हाई कोर्ट ने कहा कि सजा माफी की शक्ति महाराष्ट्र सरकार के पास है।
इसके बाद गुजरात सरकार ने अगस्त 2022 को सारे 11 अपराधियों की सजा माफ करके उन्हें रिहा कर दिया। वह गुजरात सरकार का निर्णय था। हालांकि इस संदर्भ में 1992 और 2014 के कानूनों के मद्देनजर वह रिहाई अवैध थी, क्योंकि वह गुजरात सरकार का अधिकार-क्षेत्र ही नहीं था। कानून की गलत व्याख्या ही नहीं की गई, बल्कि अदालत से भी तथ्य छिपाए गए और गलत जानकारी दी गई। यह गुजरात सरकार का न्यायिक अपराध था। क्या इनकी जवाबदेही तय नहीं की जानी चाहिए? 15 अगस्त देश का स्वतंत्रता दिवस होता है, लेकिन उसी दिन दरिंदगी वाले अपराधियों की न केवल सजा माफ की गई, बल्कि उन्हें सम्मानित रिहाई भी दी गई, मिष्ठान्न खिलाए गए और फूलों की माला पहनाई गई! यह सम्मान किसलिए दिया गया?
बिलकिस का माद्दा है कि वह अदालती लड़ाई लड़ती रही। उसके पास संसाधन भी पर्याप्त नहीं थे। वह मानसिक और भावनात्मक तौर पर ढह चुकी थी। सभी दरिंदों की रिहाई के बाद बिलकिस बानो समेत कई अन्य महिलाओं जैसे तृणमूल कांग्रेस नेता महुआ मोइत्रा और जानी मानी सामाजिक कार्यकर्ता सुहासिनी अली ने इसके विरोध में सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं डालीं। सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय में गुजरात सरकार के निर्णय को गलत बताया है। कोर्ट के मुताबिक, सजा माफी का फैसला महाराष्ट्र सरकार का था। कोर्ट ने कहा कि जिस राज्य में सजा सुनाई गई होती है। वही सजा माफी पर भी फैसला करेगा। कोर्ट ने गुजरात सरकार पर भी कड़ी टिप्पणी की। कोर्ट ने कहा कि गुजरात सरकार ने 11 में से एक अपराधी के साथ ह्लमिलकर काम किया है और मिलीभगत की हैह्व। इसके साथ ही कोर्ट ने बोला कि पहले भी तीन बार कोर्ट को इन मामलों में दखल देना पड़ा, पहले जांच पड़ताल गुजरात पुलिस से हटाकर सीबीआई को सौंपी और मुकदमा भी गुजरात से हटाकर महाराष्ट्र भेजा। कोर्ट ने ये भी कहा कि उनका 2022 का फैसला गलत था। इसके अलावा कोर्ट ने यह भी कहा कि गुजरात सरकार को 2022 के फैसले के लिए समीक्षा याचिका फाइल करनी चाहिए थी।
कोर्ट ने यहां तक कहा कि गुजरात सरकार की ओर से सजा माफी का फैसला महाराष्ट्र सरकार की सत्ता हथियाने जैसा था। इस मामले में कई अथॉरिटीज ने सजा माफ करने से इनकार किया था, जैसे सीबीआई मुंबई के स्पेशल जज, सीबीआई और गुजरात पुलिस में दाहोद के एसपी लेकिन गुजरात सरकार ने इनकी राय पर ध्यान नहीं दिया। कोर्ट ने कहा कि सरकार को इन सभी रायों पर भी गौर करने की जरूरत थी। कोर्ट ने कहा कि सारे 11 अपराधियों की सजा माफी के आॅर्डर कॉपी मिलती जुलती थी जो ह्लप्रत्येक मामले के तथ्यों पर कोई स्वतंत्र विचार नहीं दिखाती हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि 2022 में कोर्ट के आॅर्डर में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य छिपाए गए और कोर्ट को गुमराह करने की कोशिश की गईं राधेश्याम भगवान शाह ने यह नहीं बताया था कि उन्होंने महाराष्ट्र सरकार से भी सजा माफी की मांग कि थी। उसके बाद कई अथॉरिटीज ने यह भी कहा था कि उनकी सजा कम ना की जाए। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में गौर करते हुए कहा कि राधेश्याम भगवान शाह ने यह बात ना तो सुप्रीम कोर्ट को बताई ना ही गुजरात सरकार ने।
न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां का कथन सटीक और मानवाधिकार के पक्ष में है कि कानून के राज को बचाना जरूरी है। संविधान में दिए गए समता के मौलिक अधिकार का संरक्षण भी जरूरी है। यह न्यायिक निर्णय इन्हीं संदर्भों और संकल्पों में याद किया जाना चाहिए। बेशक गोधरा के दंगे गुजरात में भडके थे, लेकिन सजा महाराष्ट्र सरकार के अधिकार-क्षेत्र में दी गई थी, लिहाजा उसे ही ह्यअभयदानह्ण की संवैधानिकता प्राप्त है। बेशक सर्वाेच्च अदालत ने दो हफ्ते में जेल में आत्म-समर्पण का आदेश दिया है। अपराधियों की रिहाई को ह्यअवैधह्ण करार देते हुए खारिज कर दिया है, लेकिन दुष्कर्मी अब भी पुनर्विचार याचिका 30 दिनों में दाखिल कर सकते हैं और महाराष्ट्र सरकार से ह्यमाफीह्ण की गुहार लगा सकते हैं। गुजरात से ट्रायल महाराष्ट्र को स्थानांतरित किया गया था, लिहाजा महाराष्ट्र की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। तब गुजरात में माहौल भी माकूल नहीं था।
सवाल है कि सर्वाेच्च अदालत की अन्य पीठ ने मई, 2022 में जो फैसला सुनाया था, उस पर गुजरात सरकार ने पुनर्विचार याचिका क्यों दाखिल नहीं की? उसी की गलत व्याख्या कर गुजरात सरकार ने दुष्कर्मी चेहरों को ‘मुक्ति’ दी थी। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में सर्वाेच्च अदालत की भी कुछ गलती है। उसे जो जांचनुमा सवाल पूछने चाहिए थे, वे नहीं पूछे गए।