पंडित विद्याभूषण बहुत बड़े विद्वान थे। दूर-दूर तक उनकी चर्चा होती थी। उनके पड़ोस में एक अशिक्षित व्यक्ति रहते थे-रामसेवक। वे अत्यंत सज्जन थे और लोगों की खूब मदद किया करते थे। पंडित जी शायद यही सोचकर रामसेवक को ज्यादा महत्व नहीं देते थे कि वह पढ़े-लिखे हैं और उन्हें बहुत लोग जानते हैं। कुल मिलाकर पंडित जी रामसेवक से दूर ही रहते थे। एक दिन पंडित जी अपने घर के बाहर टहल रहे थे। तभी एक राहगीर उधर आया और मोहल्ले के एक दुकानदार से पूछने लगा, ‘भाई यह बताओ कि पंडित विद्याभूषण जी का मकान कौन-सा है।’ यह सुनकर पंडित जी की उत्सुकता बढ़ी। वह सोचने लगे कि आखिर यह कौन है, जो उनके घर का पता पूछ रहा है। उन्होंने सोचा, चूंकि मेरी चर्चा दूर-दूर तक है, शायद मुझसे कोई मिलना चाहता होगा। वह अभी सोच ही रहे थे कि उनके कान में दुकानदार की आवाज पड़ी। वह राहगीर से कह रहा था, ‘मुझे तो किसी पंडित जी के बारे में नहीं मालूम।’ तब राहगीर ने कहा, क्या रामसेवक जी का घर जानते हो?’ दुकानदार ने हंसकर कहा, ‘अरे भाई उन्हें कौन नहीं जानता। वे बड़े भले आदमी हैं।’ फिर उसने हाथ दिखाकर कहा, ‘वो रहा रामसेवक जी का घर।’ फिर दुकानदार ने राहगीर से सवाल किया, ‘लेकिन आपको काम किससे है? पंडित जी से या रामसेवक जी से?’ राहगीर कहने लगा, ‘भाई काम तो मुझे रामसेवक जी से है। पर उन्होंने ही बताया था कि उनका मकान पंडित विद्याभूषण जी के पास है।’ यह सुनकर पंडित जी ग्लानि से भर उठे। सोचने लगे कि उन्होंने हमेशा ही रामसेवक को अपने से हीन समझा और उसकी उपेक्षा की, पर रामसेवक कितना विनम्र है। वह खुद बहुत प्रसिद्ध होते हुए भी उन्हें ज्यादा महत्व देता है। उसी रात पंडित जी रामसेवक के घर गए और उससे क्षमा याचना की। फिर दोनों गहरे मित्र बन गए।