सकारात्मक पत्रकारिता की तरह इन दिनों निष्पक्ष पत्रकारिता का चलन बढ़ा है और जिस तरह सकारात्मक पत्रकारिता के नाम पर, अक्सर सत्ता-प्रतिष्ठानों की चापलूसी फल-फूल रही है, ठीक उसी तरह खुलेआम एक खास विचारधारा और सरकार की पक्षधरता के नाम पर निष्पक्ष पत्रकारिता को बढ़ाया जा रहा है। क्या और क्यों हो रहा है, यह कारनामा? बीते तीन-चार दशकों में ‘निष्पक्ष पत्रकारिता’ को लेकर किस्म-किस्म के सिद्धांत आते रहे हैं। खासकर 90 के बाद, आर्थिक उदारीकरण से उभरे मध्यवर्ग और वीडियो पत्रकारिता के हल्ला बोल के बाद तथ्यपरक पत्रकारिता, जमीनी पत्रकारिता, खोजी पत्रकारिता के बरअक्स ‘निष्पक्ष पत्रकारिता’ का वितंडा खड़ा करने की कोशिश लगातार और बेहद महीन ढ़ंग से की जाती रही है।
इसके राजनीतिक निहितार्थ तो हैं ही, आर्थिक तौर पर संपन्न होती पत्रकारिता भी बड़ी वजह है। गौर से देखेंगे तो निष्पक्षता का ढ़ोल सबसे ज्यादा सत्ता के करीबी पत्रकार और येन-केन-प्रकारेण सत्ता से लाभान्वित दोयम दर्जे के हुडुकचुल्लु सबसे ज्यादा पीटते हैं।
कई नए रंगरूट भी इस जाल में फंस जाते हैं और आखिरकार वे सत्ताओं, घाघ अधिकारियों, जनसंपर्क के दिग्गजों और सामाजिक, सांस्कृतिक केंद्रों पर काबिज मजमेबाजों के बयानों पर आधारित ‘उन्होंने कहा कि’ मार्का पत्रकारिता की अधोगति को प्राप्त होते हैं। दिक्कत ये भी है कि अव्वल तो सामाजिक इतिहासबोध और राजनीतिक समझदारी की नजर विकसित करने की कोई प्रभावी कोशिश ‘पत्रकारिता संस्थानों’ में है नहीं। दूसरे इनमें पढ़ाने वाले ज्यादातर शिक्षक भी ‘मोतियाबिंद’ के शिकार हैं। फिर भी अपनी अध्यनशीलता के सहारे जो दो-पांच प्रतिशत पत्रकार अपनी नजर विकसित कर पाते हैं, वे जीवन चलाने की मजबूरी और साथियों की ‘तरक्की’ से कुंठित होकर खुद को भेड़चाल में ढाल लेते हैं।
पत्रकारिता संस्थानों में महंगी फीस देकर कुंठाग्रस्त अध्यापकों से आधा-अधूरा ज्ञान अर्जित करने के बाद परिवार और समाज की उम्मीदों का बोझा लेकर जब ये बच्चे खुले मैदान में आते हैं तो नौकरी और खबरों की दौड़ के लिए हर तरफ मची मारकाट को ही असली संघर्ष समझ लेते हैं। यहीं से इनका पतन शुरू होता है। फिर संस्थानों की अपनी लालसाएं भी इन्हें भ्रम में बनाए रखने का पूरा जाल बुनकर तैयार रखती हैं।
1990 के पहले और यहां तक कि बीसवीं सदी के अंत तक हालात कुछ हद तक बेहतर थे। उस वक्त बड़ा तबका पत्रकारिता को रोजी-रोटी का माध्यम बनाने के बजाय अपनी नजर विकसित करने और जो गलत हो रहा है, उसे सामने लाने का औजार मानता था। यही वजह है, तब पत्रकारिता के अलावा रोजी-रोटी के लिए पठन-पाठन के अन्य क्षेत्रों में भी पत्रकारों का दखल था।
भूमंडलीकरण के बाद पत्रकारिता में आए बड़े धन और विज्ञापनों के बोझ ने ‘खांटी पत्रकारों’ के लिए जगह कम कर दी। यही वह दौर भी था, जब पत्रकारिता की पढ़ाई के नाम पर लाखों वसूल करने वाले संस्थान कुकुरमुत्ते की तरह उग आये और इनके कर्ता-धर्ता मठाधीशी करते हुए अपने राजनीतिक आकाओं के और करीब पहुंचते गए।
अभी तो हालत ये है कि अपने वेतन के बड़े हिस्से से ‘ईएमआई’ (समान मासिक किश्त) चुकाने वाली पत्रकारों की पौध ने धन्नासेठों की नौकरी को ही अपना हेतु बना लिया है। उनके पास अध्ययन के लिए न समय है, ना चाहत। चूंकि पूंजीवादी पत्रकारिता में मुनाफा ही एकमात्र उद्देश्य है, सो इन संस्थानों से कोई उम्मीद करना भी मूर्खता है। अपनी इन लालसाओं, उथली समझ और समाज से दूरी को “निष्पक्ष पत्रकारिता” के जादुई शब्द मंं लपेटकर आईना देख सकने लायक तर्क खुद को मुहैया कराना, मजबूरी भी है और काइयांपन भी।
दिलचस्प पहलू यह भी है कि इन दिनों खबरों को परोसने की निर्णय प्रक्रिया से 90 और 95 प्रतिशत वे मैनेजर मार्का पत्रकार जुड़े हैं, जिनका कुल जमा वक्त दफ्तर और घर में गुजरता है। इंटरनेट और मोबाइल से दुनिया को जानने समझने वाले ये न्यूज एडिटर, संपादक किताबों और जमीनी अध्ययनों से भी दुश्मनी की हद तक नफरत करते हैं। यानी, कातिल ही मुंसिफ है। यहीं वह बिंदु छुपा है, जो जमीनी, तथ्यपरक और खोजी पत्रकारिता को ‘निष्पक्ष पत्रकारिता’ की पगडंडी पर चालाकी से पहुंचा देता है।
असल में पत्रकार के लिए सही जगह जनता का पक्ष ही है। और जनता में भी वह जो पीड़ित है, जो मुश्किल में है। जो बाज मौकों पर अपनी आवाज के लिए पत्रकारिता के बंद हो चुके दरवाजों पर दस्तक देती है। राजनीतिक सत्ता और विपक्ष के बीच की नूराकुश्ती न कभी पत्रकारिता थी, ना हो सकती है। क्योंकि असल में नेताओं, अधिकारियों के जरिए दोनों राजनीतिक जमातों से लाभ पाने की कोशिश ही, ऐसी सुपारी-बाज पत्रकारिता का हासिल है।
और अंत में-एक पत्रकार अगर ‘एक्टिविस्ट’ नहीं है, तो वह महज ‘पीआर एजेंट’ (जनसम्पर्क प्रतिनिधि) है, किसी पार्टी, सत्ता, सरकार, अधिकारी, विभाग या फिर उसके विरोधी का। फिलहाल इस दृश्य में ‘पीआर एजेंट’ ज्यादा हैं और ‘निष्पक्ष पत्रकारिता’ की चाशनी में वे गले तक डूबे हैं।
संभव है कि अभी लगभग एक से डेढ़ दशक तक हालात यही रहें। उसके बाद की पीढ़ी में कुछ ऊर्जा निकल सकती है। ये तब होगा जब नए औजारों की पहचान और उन्हें बापरने की सलाहियत नई पीढ़ी विकसित करे और फिलहाल जो इस गंध, गंदगी के कारोबार से अलग अपनी राह चुन चुके हैं, वो अपने अनुभवों को अगली पीढ़ी को जस-का-तस सौंप पाएं, बिना किसी लाग लपेट के।