Friday, July 5, 2024
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दुरुस्त हो हमारी न्यायिक प्रणाली

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Samvad


01 4प्रत्येक समाज में न्यायाधीशों और विद्वानों को सर्वोच्च सम्मान दिया जाता है। चिंता की बात है कि हमारी न्याय व्यवस्था इस दायित्व का पालन नहीं कर पा रही है। पिछले दिन न्याय विभाग ने जजों की सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाने को लेकर एक संसदीय पैनल को बताया कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाने से काम नहीं करने वाले जजों की सेवा की अवधि बढ़ सकती है और सरकारी कर्मचारियों द्वारा इसी तरह की अन्य मांग उठाने पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ सकता है। बता दें कि जुलाई के महीने में कानून मंत्री किरण रिजिजू ने संसद को सूचित किया था कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ाने का कोई प्रस्ताव नहीं है।
बहरहाल, सदैव न्यायिक कार्यों में लगने वाले समय को लेकर चिंता व्यक्त की जाती रही है, लेकिन अभी भी कोई ठोस उपाय नहीं किया जा सका है, जिससे लंबित मामलों का त्वरित निपटारा हो सके। पिछले दिन कानून और न्याय मंत्रालय के विभाग ने अपनी एक प्रस्तुति दी जिसमें उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने की संभावना सहित न्यायिक प्रक्रियाओं और सुधारों का विवरण भी शामिल था, जिसमें न्याय विभाग ने कहा कि न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु में वृद्धि का गलत असर होगा क्योंकि केंद्र और राज्य स्तर पर सरकारी कर्मचारी, पीएसयू और आयोग आदि इसी तरह की मांग उठा सकते हैं इसलिए इस फैसले को लागू करने से पहले इस पर विचार किया जाना चाहिए और इसकी जांच के बाद ही कोई फैसला किया जाना चाहिए।

हाईकोर्ट के न्यायधीशों की सेवानिवृति की आयु 65 वर्ष करने के लिए साल 2010 में ही संविधान का 114 वां संशोधन विधेयक पेश किया गया था। हालांकि संसद में उस पर विचार नहीं किया जा सका और 15वीं लोकसभा के विघटन के साथ ही इसकी अवधि भी समाप्त हो गई। हाई कोर्ट के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु में सेवानिवृति होते है, जबकि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होते हैं। लेकिन न्याय में जवाबदेही, पारदर्शिता और न्याय में लगने वाले समय को लेकर सदैव मंथन होता रहा है, के बावजूद भी कुछ विशेष सुधार पर अभी तक नहीं पहुंचा जा सका है। लिहाजा, न्यायाधीशों की जवाबदेही के लिए कुछ विशेष व्यवस्था की जानी चाहिए।

न्यायिक कार्यों में देरी की सबसे बड़ी वजह जजों की कमी है, जो न्यायिक सेवा की गति पर प्रभाव डालती है। कानून मंत्रालय के आंकड़े के मुताबिक, जनसंख्या के अनुपात में प्रति 10 लाख लोगों पर 19.49 न्यायाधीश हैं। वहीं अमेरिका में ये अनुपात 107 तो ब्रिटेन में 51 तथा कनाडा में 75 और आॅस्ट्रेलिया में 42 है। उल्लेखनीय है कि विधि आयोग ने अपनी 120 वीं रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि प्रति 10 लाख जनसंख्या पर न्यायाधीशों की संख्या 50 होनी चाहिए। बहरहाल यह जानकर हैरानी होगी कि देश में अभी पांच करोड़ लंबित मामलों के साथ न्यायपालिका करोंड़ो नागरिकों को न्याय से वंचित रख रही है।

बता दें कि न्याय में हो रही देरी से 160 देशों के नागरिकों की तुलना में कहीं अधिक भारतीयों को न्याय से वंचित किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि अगस्त 2022 में उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की 1,108 में से तकरीबन 381 रिक्तियां थीं। निचली अदालतों में 24,631 में से तकरीबन 5,342 सीटें खाली थीं, जो इसकी क्षमता का 20 फीसदी हैं। अदालतों में अगस्त 2022 तक लगभग पांच करोड़ तक मामले लंबित थे। एक विस्तृत विश्लेषण से पता चलता है कि 2006 और 2017 के बीच लंबित मामलों में औसत वृद्धि लगभग 2.5 फीसदी प्रतिवर्ष थी।

जबकि स्वीकृत न्यायिक पदों में औसत रिक्ति लगभग 21 फीसदी थी। यदि स्वीकृत पदों को भरा गया होता तो हर साल लंबित मामलों की संख्या कम हो जाती। न्यायाधीशों के चयन की जिम्मेदारी काफी हद तक न्यायपालिका की ही होती है। ऐसा न कर पाने की स्थिति में उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। न्यायालयों को मुकदमों से निजात दिलाने के लिए केन्द्र सरकार ने कुछ साल पहले राष्ट्रीय मुकदमा नीति बनाने की बात कही थी।

इसके अंतर्गत प्रमुख लंबित मुकदमों की औसत अवधि को पन्द्रह साल से कम करके तीन साल करने तथा न्यायालय के समय का सदुपयोग करने के लिए सभी न्यायालयों में कोर्ट प्रबंधकों की नियुक्ति करने जैसी बातें भी शामिल थीं। लेकिन यह मामला आगे नहीं बढ़ा। हमें ध्यान रखना होगा कि जबतक मुकदमों की अवधि तय नहीं की जायेगी फिर वह चाहे दीवानी हो या फौजदारी सभी के निपटान की निश्चित अवधि होनी चाहिए, नहीं तो न्यायिक निर्णय आने में कई वर्षों लग जायेगें और इससे ‘ईज आफ जस्टिस’ की अवधारणा समाप्त हो जाएगी। बहरहाल, सर्वविदित है कि ज्यादातर मुकदमें छोटे-छोटे झगड़ों , आपसी अहंकार, यातायात से संबंधित अपराधों जैसी शिकायतों से संबंधित होते हैं।

इस प्रकार के मामलों में दोनों पक्षकारों के बीच बातचीत के जरिए भी समझौता करवाया जा सकता है। खैर इसके लिए अभी लोक अदालतों- समझौता अदालतों की व्यवस्था है। न्याय-व्यवस्था में कार्य-दिवसों की कमी न्यायिक कार्यों में विलंब का एक विशेष कारण है। एक अध्ययन के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट में वर्ष भर में मात्र 190 दिन ही काम होता है। गर्मी के दो महीने उच्चतम एवं उच्च न्यायालय बंद रहते हैं। न्यायपालिका के सभी स्तरों पर कार्य के दिवस बढ़ाए जाने चाहिए।

लेकिन हमें दूसरे पक्ष पर भी ध्यान रखना होगा कि सुप्रीम कोर्ट देश की सबसे बड़ी अदालत है। इसके फैसले अगर हड़बड़ी या हर पहलू को बगैर समझे दिए गए तो लोगों का न्याय से विश्वास उठ जाएगा। लेकिन जनता चाहती है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजेस लंबी छुट्टियों पर जाने की परंपरा बंद करें ताकि ज्यादा मामलों का निपटारा हो सके, शायद यह ठीक मांग नहीं है। कम ही लोग जानते हैं कि फैसले के पहले जजों को घर पर देर रात तक घंटों तैयारी करनी होती है।

कभी सैकड़ों/हजारों पेज वाले फैसले का वह भाग जिसमें फैसले तक पहुंचने का कारण होता है उसे भी पढ़ना पड़ता है। न्यायपालिका में सुधार को सरकारी प्राथमिकता में शामिल करने की भी जरूरत है। लिहाजा, भारतीय न्याय व्यवस्था को सरल, वहनीय और कार्रवाई योग्य बनाने के लिए कानूनों की लेखन पद्धति व भाषा पर नए सिरे से विचार किया जाना चाहिए। ऐसा करके हम न्याय व्यवस्था पर बढ़ रहे लंबित मामलों के दबाव को शायद कुछ कम कर सकें।


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