गुरु और शिष्य रेगिस्तान से गुजर रहे थे। गुरु यात्रा में हर क्षण शिष्य में आस्था जागृत करने के लिए ज्ञान देते रहे थे। अपने समस्त कर्मों को ईश्वर को अर्पित कर दो। वह सब की रक्षा करता है। गुरु ने कहा, हम सभी ईश्वर की संतान हैं और वह अपने बच्चों को कभी नहीं त्यागते। सफर जारी रहा और इस तरह के उपदेश भी।
रात हुई तो विश्राम करने के लिए उन्होंने रेगिस्तान में एक स्थान पर अपना डेरा जमाया। गुरु ने शिष्य से कहा कि वह घोड़े को निकट ही एक चट्टान से बांध दे। शिष्य घोड़े को लेकर चट्टान तक गया। उसे दिन में गुरु द्वारा दिया गया उपदेश याद आ गया। उसने सोचा, गुरु संभवत: मेरी परीक्षा ले रहे हैं।
आस्था कहती है कि ईश्वर इस घोड़े का ध्यान रखेंगे। और उसने घोड़े को चट्टान से नहीं बांधा। उसे इसलिए खुला छोड़ दिया कि ईश्वर खुद उसकी रक्षा करेंगे। शिष्य निश्चिंत होकर सो गया। सुबह उसने देखा कि घोड़ा दूर-दूर तक कहीं नजर नहीं आ रहा था। उसने इधर-उधर तलाश किया।
कुछ दूर जाकर उसे खोजा भी, लेकिन घोड़ा नहीं मिला। थक-हार कर वापस गुरु के पास आया और बोला, आपको ईश्वर के बारे में कुछ नहीं पता! आप बेमतलब का उपदेश दे रहे थे कि सब कुछ ईश्वर के हाथों में सौंप दो।
कल ही आपने बताया था कि हमें सब कुछ ईश्वर के हाथों सौंप देना चाहिए, इसीलिए मैंने घोड़े की रक्षा का भर ईश्वर पर डाल दिया लेकिन घोड़ा भाग गया! अब हम आगे की यात्रा कैसे करेंगे?
इस रेगिस्तान से कैसे निकलेंगे? ईश्वर तो वाकई चाहता था कि घोड़ा हमारे पास सुरक्षित रहे, गुरु ने कहा, लेकिन जिस समय उसने तुम्हारे हाथों घोड़े को बांधना चाहा तब तुमने अपने हाथों को ईश्वर को नहीं सौंपा और घोड़े को खुला छोड़ दिया।