पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में करारी हार के बाद कांग्रेस में ग्रुप-23 के असंतुष्ट नेताओं द्वारा उठे विरोध के स्वर को दबाने के लिए कांग्रेस पार्टी अगले माह राजस्थान के उदयपुर में तीन दिवसीय चिंतन शिविर लगाने जा रही है जिसमें देश भर से पार्टी के 400 बड़े नेता एक जगह बैठ कर पार्टी के गिरते जनाधार को रोकने व आगे होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी की जीत की संभावना को लेकर चिंतन मनन करेंगे। इस चिंतन शिविर के माध्यम से कांग्रेस पार्टी भविष्य के लिए एक रोडमैप भी तय करेगी जिसके सहारे आगे बढकर पार्टी अपना जनाधार एक बार फिर से बढ़ा सके।
आज कांग्रेस पार्टी के समक्ष सबसे बड़ी समस्या अपने गिरते जनाधार को रोकने की है। 2०14 में जब नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने थे तो उस समय कांग्रेस पार्टी की देश के एक दर्जन से अधिक प्रदेशों में सरकार चला रही थी मगर धीरे-धीरे करके प्रदेशों में चुनाव हारने के चलते आज कांग्रेस पार्टी की सिर्फ राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ही सरकार बची है। महाराष्ट्र व झारखंड में कांग्रेस पार्टी एक सहयोगी के रुप में सरकार में शामिल है।
पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में भी कांग्रेस पार्टी कुछ विशेष नहीं कर पाई। पंजाब जहां चुनाव से पहले कांग्रेस की सरकार चल रही थी, वहां भी पार्टी चुनाव हार कर एक चौथाई सीटों पर ही सिमट गई। पंजाब में पार्टी अपने ही बड़े नेताओं की कलह की शिकार हो गई। चुनाव से ठीक पहले मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को पद से हटाना पार्टी को भारी पड़ गया। कैप्टन के स्थान पर मुख्यमंत्री बनाए गए चरणजीत सिंह चन्नी दोनों विधानसभा सीटों से व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू अमृतसर पूर्व विधानसभा सीट से चुनाव हार गए। पार्टी के अधिकांश बड़े नेता चुनाव नहीं जीत पाए थे। चुनाव के बाद पार्टी ने विधायक दल का नेता व प्रदेश अध्यक्ष पद पर नए लोगों को बैठा दिया। उसके उपरांत भी पार्टी में खींचतान वैसे ही चल रही है।
उत्तराखंड में मुख्यमंत्री के दावेदार हरीश रावत इस बार फिर चुनाव हार गए। वहां कांग्रेस मात्र 19 सीटें ही जीत सकी है। पार्टी में नए प्रदेश अध्यक्ष व विधायक दल के नेता के मनोनयन के बाद तो आपसी कलह खुलकर सडकों पर आ गई है। कई विधायकों ने पार्टी छोड़ने तक की धमकी दे दी है। पंजाब में कांग्रेस की लुटिया डुबोने में सबसे बड़ा हाथ हरीश रावत का रहा था। उन्होंने ही उत्तराखंड में भी कांग्रेस का सफाया करवा दिया। गोवा और मणिपुर में भी कांग्रेस कुछ खास नहीं कर पाई। गोवा में कांग्रेस को 11 सीटें मिली, वहीं मणिपुर में तो कांग्रेस की सीटों की संख्या 28 से घटकर 5 रह गई।
उत्तर प्रदेश जैसे देश के सबसे बड़े प्रांत में कांग्रेस महज 2 सीटें ही जीत पाई। कांग्रेस पार्टी में तीसरे नंबर की बड़ी नेता व महासचिव प्रियंका गांधी ने राजनीति में सक्रि य होने के बाद अपना पूरा फोकस उत्तर प्रदेश पर ही लगा रखा था। पहले उनके साथ महासचिव के रूप में ज्योतिरादित्य सिंधिया आधे उत्तर प्रदेश के प्रभारी थे मगर सिंधिया के पार्टी छोड़ने के बाद उत्तर प्रदेश का पूरा प्रभार प्रियंका गांधी के पास ही था। उनके साथ सचिवों व बड़े नेताओं की बड़ी टीम काम कर रही थी। पिछले 3 साल से प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश के गांव-गांव में जाकर लोगों से मिल रही थी। प्रियंका गांधी की सक्रि यता के चलते पार्टी को उ?मीद बंधी थी कि इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस बेहतर स्थिति में रहेगी मगर चुनावी नतीजों ने पार्टी की आशाओं को धराशाई कर दिया।
2017 में जहां कांग्रेस के पास 7 विधानसभा सीटें थी, उसकी तुलना में इस बार कांग्रेस महज 2 सीटों पर ही सिमट कर रह गई। 397 सीटों पर सीटों पर चुनाव लड़ कर महज 2 सीटें जीतना पार्टी के लिए किसी सदमे से कम नहीं था। इतना ही नहीं, पार्टी के वोट प्रतिशत भी घटकर 2.33 प्रतिशत रह गया है। प्रियंका गांधी के नेतृत्व में ही कांग्रेस ने 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा था जिसमें कांग्रेस के बड़े नेता राहुल गांधी अपनी परंपरागत अमेठी सीट से भाजपा की नेता स्मृति ईरानी से चुनाव हार गए थे। अब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास एक रायबरेली की लोकसभा सीट व दो विधानसभा सीटें रह गई हैं।
कांग्रेस पार्टी अगले महीने चिंतन शिविर का आयोजन कर रही है। उसमें पार्टी को धरातल के मुद्दों पर जरूर चर्चा करनी चाहिए। पांच राज्यों में चुनावी हार के बाद वहां के प्रदेश अध्यक्ष व विधायक दल के नेता को तो बदल दिया गया है मगर चुनाव के दौरान वहां प्रदेश प्रभारी रहे महासचिव, सचिव, स्क्रीनिंग कमेटी के चेयरमैन आज भी अपने पदों पर पूर्ववत बरकरार हैं। उनको क्यों नहीं बदला गया, यह विचार करने का विषय है। पार्टी के महासचिव व प्रदेश प्रभारी पद पर ज्यादातर ऐसे नेताओं को नियुक्त किया गया है जिनका अपना कोई जनाधार नहीं रहा है और जो लगातार बड़े अंतर से कई चुनाव हार चुके हैं। जनता में उनकी नकारात्मक छवि है।
केसी वेणुगोपाल, मुकुल वासनिक, अजय माकन, अविनाश पांडे, प्रियंका गांधी, रणदीप सिंह सुरजेवाला, भंवर जितेंद्र सिंह, ओम्मान चांडी, तारीक अनवर पार्टी के महासचिव हैं मगर इनमें से एक भी चुनाव जीता हुआ नेता नहीं है। अविनाश पांडे व प्रियंका गांधी तो कभी प्रत्यक्ष रूप से चुनाव मैदान में उतरे ही नहीं। बाकी सभी नेता चुनावी हार का रिकार्ड बना चुके हैं। ओम्मान चांडी ही एकमात्र ऐसे महासचिव हैं जो चुनाव जीतते रहे हैं। हालांकि उनके मुख्यमंत्री रहते ही कम्युनिस्ट पार्टी ने केरल में उन को हराकर अपनी सरकार बनाई थी। पार्टी में ऐसे ही जनाधार विहीन कई नेता प्रदेश प्रभारी, राष्ट्रीय सचिव व अन्य बड़े पदों पर काबिज हैं।
कांग्रेस को फिर से अपनी साख बनानी है तो उसको जनाधार विहीन नेताओं को हटाकर जनाधार वाले नेताओं को अग्रिम मोर्चे पर तैनात करना होगा। जमीन से जुड़े छोटे कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाना होगा। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जहां पार्टी की सरकार है, वहां सरकारी पदों पर परंपरागत नेताओं को ही राजनीतिक नियुक्तियां दे दी गयी है जिसका संदेश नीचे तक गलत जा रहा है। दोनों प्रदेशों में राजनीतिक नियुक्तियों में धरातल से जुड़े कार्यकतार्ओं को महत्वपूर्ण पदों पर आगे लाना होगा। तभी लोगों में कांग्रेस के प्रति विश्वास बढ़ेगा। जिसके बल पर ही आने वाले समय में कांग्रेस अपनी स्थिति में कुछ सुधार कर पाए।
रमेश सर्राफ धमोरा