Saturday, July 27, 2024
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जौ की खेती कैसे की जाती है

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भारत में जौ (बारले) की खेती प्राचीनकाल (9000 वर्ष पूर्व ) से होती आ रही है। जौ के दाने में 11.12 प्रतिशत प्रोटीन, 1.8 प्रतिशत फॉस्फोरस, 0.08 प्रतिशत कैल्सियम तथा 5 प्रतिशत रेशा पाया जाता है। जौ खाद्यान्न में बीटा ग्लूकॉन की अधिकता और ग्लूटेन की न्यूनता जहां एक ओर मानव रक्त में कोलेस्ट्रॉल स्तर को कम करता है, वही दूसरी ओर सुपाच्यता व शीतलता प्रदान करता है। इसके सेवन से पेट सबंधी गड़वड़ी , वृक में पथरी बनना तथा आंतो की गड़वड़िया दूर होती है। आज जौ का सबसे ज्यादा उपयोग पर्ल बारले, माल्ट, बियर , हॉर्लिक्स , मालटोवा टॉनिक,दूध मिश्रित बेवरेज आदि बनाने में बखूबी से किया जा रहा है।

कहां होती है जौ की खेती

उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक क्षेत्र में जौ की खेती की जा रही है । इसके बाद राजस्थान और मध्य प्रदेश का स्थान आता है । उत्पादन में राजस्थान के बाद उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश का क्रम आता है जबकि औसत उपज के मामले में पंजाब प्रथम स्थान (3364 किग्रा. प्रति हैक्टर), हरियाणा द्वितिय (2680 किग्रा.) व राजस्थान तीसरे स्थान (2380 किग्रा.) पर रहा है।

जौ की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु झ्र

जौ शीतोष्ण जलवायु की फसल है लेकिन उपोष्ण जलवायु में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है। गेहूं की अपेक्षा जौ की फसल प्रतिकूल वातावरण अधिक सहन कर सकती है। इसलिए उत्तर प्रदेश के पूर्वी नम और गर्म भागों में जहां गेहूं की पैदावार ठीक नहीं होती है, जौ की फसल अच्छी होती है। फसल वृद्धि के समय 12 से 15 डिग्री सेंटीग्रेडे तापक्रम तथा पकने के समय 30 डिग्री सेंटीग्रेड तापक्रम की आवयकता पड़ती है।

जौ खेती के लिए उपयुक्त भूमि का चयन

जौ की खेती लगभग सभी प्रकार की मिट्टियो में आसानी से की जा सकती है परन्तु इसके लिए अच्छे जल निकास वाली मध्यम दोमट मिट्टी जिसकी मृदा अभिक्रिया 6.5 से 8.5 के मध्य हो, सर्वोत्तम होती है। भारत में जौ की खेती अधिकतर रेतीली भूमि में कि जाती है। चूने की पर्याप्त मात्रा वाली मृदाओं में जौ की बढवार अच्छी होती है । इसमें क्षार सहन करने की शक्ति गेहूँ से अधिक होती है इसलिये इसे कुछ क्षारीय (ऊसर) भूमि में भी सफलता पूर्वक जा सकता है ।

भूमि की तैयारी

जौ के लिए गेहूं की भांति खेत की तैयारी की आवश्यकता नहीं होती है। खरीफ की फसल काटने के पश्चात खेत में मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई करने के बाद 3-4 बार देशी हल से जुताइयाँ करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा चलाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए। इससे भूमि मे नमी संरक्षण भी होता है। भारी मृदाओ में बखर चलाकर भी खेत तैयार किया जाता है। भूमि की बारीक जच्त हच्ने पर फसल अच्छी आती है ।

बोआई का समय

जौ बोने का उचित समय मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक है। असिंचित क्षेत्रों में 15-30 नवम्बर तक बोआई कर देनी चाहिए। सिंचित अवस्था में पछेती बोआई 15-20 नवम्बर तक की जा सकती है। देरी से बोनी करने पर फसल पर गेरूई रोग का प्रकोप होता है जिससे उपज कम हो जीत है।

बीज दर एवं बोजोपचार

स्वस्थ्य और पुष्ट बीज ही बोने हेतु प्रयुक्त करना चाहिए । बीज की मात्रा बोने की विधि और खेत में नमी के स्तर पर निर्भर करती हैं। सिंचित अवस्था एवं समय से हल के पीछे पंक्तियों में बोआई करने पर 75-90 किग्रा. तथा असिंचित दशा में बोआई करने के लिए 80-100 किग्रा. बीज लगता है। सीड ड्रील से बोआई करने पर 80- 90 तथा डिबलर से 25-30 किग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता पड़ती है। बोआई से पहले बीज को वीटावैक्स या बाविस्टीन 2.5 ग्रा. प्रति किग्रा. बीज की दर उपचारित करना आवश्यक है।

पौध अंतरण एवं बीज बोने की गहराई

अच्छी उपज के लिए प्रति इकाई पर्याप्त पौध संख्या स्थापित होना अनिवार्य है। इसके लिए पंक्ति से पंक्ति की सही दूरी पर बुआई करना जरूरी होता है। सामान्यतौर पर जौ की दो पंक्तियों के बीच 22-25 सेमी. की दूरी उपयुक्त रहती हैं। सिंचित परिस्थित और समय से बोआई के लिए पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20-22 सेमी. रखी जानी चाहिए। इससे अधिक दूरी रखने पर पौधों की संख्या कम हो जाती है तथा उपज घट जाती है। साथ ही इससे कम दूरी रखने पर पौधे ज्यादा घने हो जाते है, जिससे उनमें बालियां छोटी बनती है। अधिक उथला बोने पर बीज भूमि के सूखे क्षेत्र में आ जाता है और अंकुरित नहीं हो पाता । अत: बीज का नम मिट्टी में गिरना आवश्यक है । सामान्यतौर पर जौ की बोआई खेत में 5-7.5 सेमी की गहराई पर की जाती है ।

खाद एवं उर्वरक

जौ से अधिकतम उपज लेने के लिए बोआई की परिस्थिति के अनुसार खाद एवं उर्वरक का प्रयोग किया जाना चाहिए। सिंचित समय से बोआई हेतु 60 किग्रा. नत्रजन, 30 किग्रा. फॉस्फोरस और 20 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर देना चाहिए। असिंचित (बारानी) दशा में 30 किग्रा. नत्रजन, 20 किग्रा. फॉस्फोरस और 20 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर देना उचित रहता है। सिंचित दशा में नत्रजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बोआई के समय कूड़ में 8-10 सेमी. की गहराई पर बीज के नीचे देनी चाहिए। शेष आधी नत्रजन को दो बराबर भाग में बाँटकर पहली व दूसरी सिंचाई के समय देना लाभप्रद रहता है। असिंचित दशा में तीनों उर्वरकों को बोआई के समय कूड़ में दिया जाना चाहिए।

जौ की अधिक उपज के लिए सिंचाई

जौ को गेहूँ की अपेक्षा कम पानी की आवश्यकता होती है परन्तु अच्छी उपज लेने के लिए 2-3 सिंचाइयाँ की जाती है। पहली सिंचाई फसल में कल्ले फूटते समय (बोने के 30-35 दिन बाद), दूसरी बोने के 60-65 दिन बाद व तीसरी सिंचाई बालियों में दूध पड़ते समय (बोने के 80-85 दिन बाद) की जानी चाहिए। दो सिंचाई का पानी उपलब्ध होने पर पहली सिंचाई कल्ले फूटते समय बोआई के 30-35 दिन बाद व दूसरी पुष्पागम के समय की जानी चाहिये। यदि सिर्फ एक ही सिंचाई का पानी उपलब्ध है तब कल्ले फूटते समय (बोआई के 30-35 दिन बाद) सिंचाई करना आवश्यक है। प्रति सिंचाई 5-6 सेमी. पानी लगाना चाहिए। दूध पड़ते समय सिंचाई शान्त मौसम में करनी चाहिए क्योंकि इस समय फसल के गिरने का भय रहता है। जौ के खेत में जल निकासी का भी उचित प्रबन्ध आवश्यक है।

फसल सुरक्षा प्रबंधन

जौ में प्राय: निराई-गुड़ाई की आवश्यकता नहीं होती है। सिंचित दशा में खरपतवार नियंत्रण हेतु नीदनाशक दवा 2,4-डी सोडियम साल्ट (80 प्रतिशत) या 2,4-डी एमाइन साल्ट (72%) 0.75 किग्रा. प्रति हेक्टेयर को 700-800 लीटर पानी में घोलकर बोआई के 30-35 दिन बाद कतार में छिड़काव करना चाहिए, इससे । इससे चैड़ी पत्ती वाले खरपतवार नियंत्रित रहते हैं। मंडूसी और जंगली जई के नियंत्रण के लिए आइसोप्रोटुरान 75 डव्लू पी 1 किग्रा या पेंडीमेथालिन (स्टोम्प) 30 ई सी 1. 5 किग्रा प्रति हेक्टेयर को 600-800 ली. पानी मे घोलकर बोआई के 2 -3 दिन बाद छिड़काव करना चाहिए।

कटाई एवं गहाई

गेहूं फसल की अपेक्षा जौ की फसल जल्दी पकती है। नवम्बर के आरम्भ में बोई गई फसल मार्च के अन्तिम सप्ताह में पक कर तैयार हो जाती है। इस फसल की एक बार चारे के लिए काटने के बाद दाने बनने के लिए छोड़ देने पर भी अच्छी उपज प्राप्त हो जाती है। पकने के बाद फसल की कटाई तुरंत कर लेनी चाहिए अन्यथा दाने खेत में झड़ने लगते हैं और दानों में 18-20 प्रतिशत नमी रहने पर कटाई करते हैं। कटाई हंसियां से या बड़े स्तर पर कम्बाइन हारवेस्टर से की जा सकती है। कटाई के बाद फसल को खलिहान में 4-5 दिन सुखाने के बाद बैलों की दॉय चलाकर या शक्ति चालित थ्रेशर से मड़ाई कर लेनी चाहिए। इसके बाद ओसाई कर दाना साफ कर लेना चाहिए। थ्रेसर से मड़ाई व ओसाई एक साथ हो जाती है।


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