शिष्य का क्या मतलब है? शिष्य वह है, जो अपने जीवन को उत्कर्ष की और ले जाए, जो मोह और अज्ञान- से अपने आपको बाहर निकालना चाहता है, ऐसे शिष्य को गुरु यदि उपदेश देता है तो उसे कुछ लाभ भी होता है। जिसके जीवन में ऊपर उठने की तमन्ना ही नहीं है और जो न अज्ञान को दूर करना चाहे, उसे गुरु के पास रहने पर भी कोई लाभ नहीं होता। वह गुरु के पास बड़े गलत कारणों से टिका है, ज्यादातर ऐसे लोग आते हैं।
शिष्य की पहली सिद्धि यह है कि वह अपने जीवन में श्रेष्ठता, ज्ञान, प्रेम, भक्ति और सात्विकता बढ़ाना चाहता है, इसके लिए वह किसी सद्गुरु संत के पास जाता है। जिसका मन अंतमुर्खी नहीं, जो ध्यान, साधना, प्रार्थना के लिए समय नहीं निकालता; वह शिष्य नहीं है। जो सुने हुए ज्ञान का चिंतन करता है, एकांत में बैठ कर ध्यान साधना करता है, जिसकी बाहरी वृत्तियां शांत हो चुकी हैं, वही शिष्य है। शिष्य का तीसरा लक्षण है- जो ज्ञान के मार्ग पर बहना चाहता है, बरसना चाहता है, फैलना चाहता है, विस्तृत होना चाहता है। जो पूरी तरह से शिष्य हो जाता है, सही मायने में गुरु भी वही हो पाता है। जो शिष्य नहीं हो पाया, वह गुरु कैसे होगा? जो गुरु हो जाता है, वह अभी भी अपने आपको शिष्य ही जानता है। एक स्थिति हालांकि ब्रह्मवेत्ता की है, जहां वह न गुरु है और न शिष्य।
गुरु-शिष्य के द्वंद से वह पार है। लेकिन व्यवहार की स्थिति में मेरे मतानुसार गुरु वही है, जो अभी भी अपने भीतर से शिष्य ही है। क्योंकि शिष्य रहेगा तो नम्रता रहेगी, शिष्य रहेगा तो प्रेम रहेगा, शिष्य रहेगा तो अहंकार नहीं होगा। शिष्य गुरु के सत्संग में रहे। शिक्षा प्राप्त करने के बाद जिसने अपने होश को बनाए रखा है, उसे शिष्य कहते हैं।
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