Monday, May 19, 2025
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डिप्रेशन से कैसे पाएं छुटकारा

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नवतेज सिंह खड़तोल |

जिसे हताशा ने दबोच लिया हो, जिसे डिप्रेशन या नर्वस-ब्रेक डाउन हो गया हो, ऐसे आप अकेले नहीं हैं। आप जैसे अनगिनत लोग हैं इस संसार में। आपको अपनी हताशा से डरना, घबराना या चिढ़ना नहीं चाहिए। भूल कर भी कभी आप तंत्र-मंत्र या झाड़ फूंक के चक्कर में ना पड़ें क्योंकि ढोंगी तांत्रिक अपने स्वार्थ के लिये आपको गलत सलाहें देगा जो आपको ठीक करने के बजाय आपके रोग को और अधिक जटिल बना देगा।

आज के आधुनिक परिवेश में मशीनी, भौतिकवादी और प्रतिस्पधार्पूर्ण युग में हताशा, डिप्रेशन, नरवस ब्रेक डाउन हो जाना एक मामूली बात है। इन सब रोगों का केन्द्र मन है। मन यानी दिमाग का क्षेत्र अब तक अपनी कुछ संदिग्ध बातों को लेकर एक रोचक विषय रहा है। इसके बारे में आम लोगों में, विद्वानों में एवं आध्यात्मिक शास्त्रों में भी आकर्षण रहा है। मन का हमारे शरीर में महत्त्वपूर्ण स्थान है। मन होता तो एक ही है पर वह बहुत ही सूक्ष्म होता है तथा शरीर में होने वाली सभी क्रि याओं को प्रभावित करता है।

जिस प्रकार शांत पानी में पत्थर फेंकने पर पानी पर कुण्डल बनते जाते हैं उसी प्रकार हताश व्यक्ति के मन में विचारों के कुण्डल पैदा होते रहते हैं। हताशा, डिप्रेशन का मरीज शारीरिक स्तर पर थका-थका और मानसिक स्तर पर उदास रहता है। यह बीमारी किसी भी उम्र के व्यक्ति को हो सकती है, फिर भी युवावस्था व बुढ़ापे में इसका जोर अधिक रहता है। इसी प्रकार स्त्री व पुरूष दोनों में यह परिस्थिति समान रूप से पाई जाती है। यह बीमारी मुख्य रूप से मस्तिष्क में रसायनिक प्रक्रिया के असंतुलन के कारण होती है। यह केवल मानसिक ही नहीं, शारीरिक रोग भी है।

इसमें रोगी को स्वयं अपनी आंतरिक दशा ठीक प्रतीत नहीं होती। मांसपेशियां सख्त हो उठती हैं और आस-पास के वातावरण से मानो उस का कोई लेन-देन ही न हो। रोग की शुरुआत हल्के-फुल्के लक्षणों से होती है। ऐसे रोगी में बेचैनी, अनावश्यक शारीरिक अंगों को हिलाना, कंधे उचकाना, किसी भी बात पर चिड़चिड़ाना, अकेले हंसना या बोलना, घबराना आदि लक्षण दिखाई देते हैं। ऐसे व्यक्तियों पर जब रोग धावा बोलता है तो अनुभवी चिकित्सक रोगी को अपने रूमाल में गांठ पर गांठ लगाते या उंगलियों को जल्दी-जल्दी एक दूसरी में फंसाते निकालते या पटकाते देख कर रोग की पहचान कर लेते हैं।

हमारे मस्तिष्क में लगातार जो जैव-रासायनिक प्रक्रिया चल रही हैं वे असंतुलित हो जाती हैं। यदि मस्तिष्क में रासायनिक स्तर पर कोई क्षति पैदा हो गई हो तो मनोचिकित्सक इस रसायनिक क्षति का जांच द्वारा पता लगाता है और उसे संतुलन में लाने के लिए दवाएं देता है। औसतन तीन से छह महीनों तक दवाएं लेने से मस्तिष्क की रसायनिक प्रक्रि याएं अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर लेती हैं और डिप्रेशन का सफाया हो जाता है। विशिष्ट स्थितियों में यह उपचार लंबा भी चल सकता है। इसके लिए साइको-थेरेपी, इलेक्ट्रो कंवल्सिव-थेरेपी, व्यवहार चिकित्सा, योग चिकित्सा, ध्यान चिकित्सा आदि अनेक पद्धतियां मरीज और डॉक्टर दोनों की सहायता करती हैं।

लोगों ने यह गलत धारणा बना ली है कि यदि मरीज को शारीरिक व मानसिक टॉनिक दिये जायें तो उसकी हताशा मिट सकती है। शारीरिक शक्ति बढ़ाने वाले टॉनिक अवश्य शरीर को पुष्ट करते हैं लेकिन मन व मस्तिष्क के रासायनिक असंतुलन को सही नहीं कर सकते और मस्तिष्क का रसायनिक असंतुलन डिप्रेशन का बहुत बड़ा कारण है। पाश्चात्य देशों के डॉक्टरों के अनुसार नब्बे प्रतिशत रोगी जो मानसिक रोगों से परेशान होते हैं, सम्मोहन के द्वारा पूर्णत: स्वस्थ हो जाते हैं क्योंकि सम्मोहन का सीधा प्रभाव मन तथा मस्तिष्क पर पड़ता है। अत: स?मोहन के द्वारा मस्तिष्क पर सीधा प्रभाव पड़ने से रोग निवारण तुरन्त हो जाना स्वाभाविक है।

डिप्रेशन के रोगी का किस पद्धति से उपचार करें, यह इस पर आधारित होता है कि डिप्रेशन किस प्रकार का है। यदि डिप्रेशन (हताशा) अत्यंत तीव्र हो, रोगी का आत्महत्या करने का इरादा दिनों-दिन मजबूत होता जा रहा हो तो उसे विभिन्न दवाएं देने के साथ साथ इलेक्ट्रो कन्वल्सिव थेरेपी जिसे आम बोलचाल की भाषा में बिजली का झटका कहा जाता है, देना बहुत जरूरी हो जाता है। इसमें मरीज को बेहोश करके उसके मस्तिष्क के नॉन डॉमिनेन्ट हेमिस्फियर पर अत्यंत मंद शक्ति का बिजली का झटका आमतौर पर तीन से छह बार देना पड़ता है। अत्यंत तीव्र हताशा के किस्सों में कभी-कभी बारह या उससे भी ज्यादा बार झटके देना जरूरी हो जाता है। इन झटकों से किसी प्रकार की हानि नहीं होती। इसे लेकर मन में किसी भी प्रकार की आशंका रखना व्यर्थ है।

इस रोग की सबसे बड़ी बात यह है कि डिप्रेशन के उसी मरीज की सहायता की जा सकती है जो स्वयं अपनी सहायता करने को तैयार हो। इसके अलावा कई लोगों का मत है कि डिप्रेशन के मरीज का वातावरण परिवर्तन कर दिया जाये तो वह ठीक हो सकता है। यह बात ठीक है कि वातावरण के परिवर्तन से हताशा के रोगी के इलाज में अनुकूल अंतर पड़ सकता है परन्तु यह समझना गलत होगा कि उसे अगर सैर सपाटे या पर्यटन स्थल पर ले जायें तो उसका रोग पूरी तरह ठीक हो सकता है किन्तु हताशा के मरीज के वातावरण परिवर्तन से उपचार की शक्ति बढ़ सकती है। सिर्फ सैर सपाटे के बल पर डिप्रेशन ठीक करना मुमकिन नहीं है। वातावरण परिवर्तन के साथ-साथ उचित उपचार की भी बहुत जरूरत होती है। इसके अलावा मरीज के आत्मविश्वास को संजोने के लिए एवं उसके रोग के उपचार के लिये कुछेक महत्त्वपूर्ण सुझाव इस प्रकार हैं।

-आशावादी बनें, आप को केवल आशावादियों का ही दृष्टिकोण अपनाना है। बुरी से बुरी स्थिति को भी आशावाद के दृष्टिकोण से देखा जा सकता है। यह भी एक कला है। ज्यों-ज्यों आप इसे सीखेंगे, स्वयं आप ही रोमांचित होते जायेंगे। अपनी असफलताओं को नहीं, सिद्धियों को याद करें, दुख को नहीं सुख की घटनाओं को अपनी यादों में उभारते रहें।
-केवल अपने बारे में न सोचें। संसार में दूसरे भी हैं। उनके बारे में सोचें, उनमें दिलचस्पी लें। दूसरों की मौजूदगी को, दूसरों की अहमियत को हमेशा स्वीकार करें।
-कभी निठल्ले न बैठें क्योंकि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। खाली बैठे रहने से तरह-तरह के कुविचार मन को परेशान करते रहते हैं। खाली बैठे रहने से अच्छा है कि आप घर का छोटा मोटा काम करें। इस तरह कुछ करते रहने से आप में आत्मविश्वास का विकास होगा एवं चित्त प्रसन्न रहेगा।
-कसरत करें। इसके करने से आपको गहरी नींद आयेगी जो नींद की गोलियों से कहीं बेहतर है। व्यायाम आपको संतुलन के साथ थकाता है व आपके मस्तिष्क की रासायनिक प्रक्रि याओं को भी संतुलित करता है परन्तु कसरतों का चुनाव हमेशा डॉक्टर की राय के अनुसार ही करना चाहिए।
-मनोरंजक साहित्य पढ़ें। ऊंचे फलसफे का साहित्य पढ?े के चक्कर में न पड़ें। जिंदगी का मतलब क्या है? भाग्य का जीवन पर प्रभाव आदि विश्लेषणों से दूर ही रहें। हताशा दूर करने के लिए आज तो अनेक साहित्य बाजार में सहज ही उपलब्ध हैं। उनमें आत्मविश्वास कैसे संजोएं, नकारात्मक विचारों से छुटकारा, चिंता को दूर भगायें आदि विषयों पर अनेक पुस्तकें हैं जो आपको काफी सहारा देंगी।


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