भारतीय आपराधिक विधि की कुछ अपनी मूलभूत विशेषताएं हैं और आपराधिक विधि में अपराध शास्त्र के कुछ मौलिक सिद्धान्त हैं। जिनका पालन न्याय पालिका को निष्पक्ष रूप से अपने निर्णयों में करना चाहिए। ये सिद्धान्त इस प्रकार से हैं-आरोपी के निर्दोषता की उपधारणा होती है। आपराधिक मामलों में सबूत का भार हमेशा अभियोजन पर होता है। अपराध संदेह से परे साबित होना चाहिए । संदेह का लाभ हमेशा अभियुक्त को मिलना चाहिए और किसी व्यक्ति को अपने विरूद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। भारतीय संविधान का अनच्छेद 21 भी अपराधिक न्याय व्यवस्था में अभियुक्त को निष्पक्ष एवं तीव्र विचारण का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। किसी भी अभियुक्त को पर्याप्त आधार के बिना जमानत से वंचित किया जाता है तो यह उसके मौलिक अधिकार के हनन के साथ-साथ उसके गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार पर एक निर्बन्धन है।
उच्चतम न्यायालय ने संजय चंद्रा बनाम सीबीआई में अभिनिर्धारित किया कि किसी भी अभियुक्त को केवल इस आधार पर कि अभियुक्त के विरुद्ध किसी समुदाय की भावनायें जुड़ी हुई हैं, जमानत देने से इनकार नहीं किया जा सकता है। वहीं हुसैन आरा खातून बनाम गृह सचिव बिहार सरकार में अभिनिर्धारित किया गया कि तीव्र विचारण आपराधिक न्याय, व्यवस्था की आत्मा है । न्यायालय ने यह भी अभिनिर्धारित किया है कि अभियुक्त को आपराधिक विचारण में सभी चरणों अन्वेषण, जांच विचारण, अपील रिवीजन एवं पुर्नविचारण में तीव्र विचारण का अधिकार है। आपराधिक विचारण में प्रत्येक पहलु की व्याख्या तथा निर्धारण इन्हीं आधारभूत विशेषताओं के संदर्भ में किया जाना चाहिए ।
वर्तमान में भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में कुछ बड़ी खामियां देखने में आती हैं। उनमें से एक धीमा, विलम्बकारी तथा मिथ्या दिशा-दर्शक अन्वेषण है। बिना किसी झिझक तथा शर्म के मिथ्या साक्ष्य गढ़कर निर्दोष व्यक्तियों को अपराधी बनाकर जेलों में ठूसा जा रहा है, जो किसी भी व्यक्ति के मूल अधिकार तथा प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन है। केंद्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की वर्ष 2022 की रिपोर्ट के अनुसार विचाराधीन कैदियों की कुल संख्या 434, 302 है, जो कुल कैदियों का 75.08 प्रतिशत है। जबकि उच्चतम न्यायालय का स्पष्ट निर्देश है कि सात साल से कम कारावास से दंडनीय मामलों में किसी व्यक्ति को गिरफ्तार न किया जाए। भारतीय दंड संहिता की धारा 406, 420 तथा भारतीय न्याय संहिता की धारा 316 ( 2 ) व 318 (4) में सात वर्ष से कम सजा का प्रावधान है ऐसी व्यवस्था होने के बावजूद जमानत प्रदान न किया जाना न्याय प्रक्रिया का घोर दुरुपयोग माना जाना चाहिए।
एक प्रकरण ऐसा ही मेरे संज्ञान में आया जिसमें एक प्रोफेसर गोविंद बाबू को मिथ्या साक्ष्य गढ़कर पिछले ढाई वर्षों से जेल में डाल रखा है। उनके विरुद्ध वादी मुकदमा ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 406, 420 में अपराध पंजीकृत कराया है जिसमें वादी पीड़ित ही नहीं है अर्थात अभियुक्त के विरुद्ध वाद लाने का अधिकार उसके पास नहीं है। अभियुक्त की जमानत पर बहस सुनने का अवसर प्राप्त हुआ जिसमें न्यायायल के समक्ष सभी जमानत के आधार प्रस्तुत किए गए एवं उच्चतम न्यायालय की सुसंगत नजीरे अभियुक्त की तरफ से प्रस्तुत की गर्इं और अभियोजन की ओर से केवल अभियुक्त की पत्नी के शपथ पत्र की लिपीकीय त्रुटि जिसमें उनके पते में ‘डी’ के स्थान पर ‘जे’ अंकित है को आधार मानकर जमानत पर सुनवाई न करने का न्यायालय से आग्रह किया गया। ये कितना हास्यास्पद है कि जमानत पर सुनवाई के दौरान जमानत के आधार होने पर भी अभियुक्त की जमानत की सुनवाई अग्रिम तिथि पर टाल दी गई। लिपीकीय त्रुटि के आधार अपीलीय न्यायालय (सत्र न्यायालय) द्वारा जमानत की सुनवाई को टाला जाना बिल्कुल भी तर्कसंगत एवं न्यायसंगत नहीं है।
आपराधिक विधि प्रणाली एवं सिविल विधि प्रणाली में बहुत बड़ा अंतर होता है। आपराधिक विधि प्रणाली में जमानत की सुनवाई के तुरंत बाद आदेश न्यायालय द्वारा सुनाया जाना आवश्यक है न कि सिविल कार्यवाही की तरह अग्रिम तिथि पर उसको टाला जाना। यदि किसी आपराधिक न्यायिक प्रणाली में किसी भी चरण पर विलम्ब कारित होता है तो यह अपराधशास्त्र के मौलिक सिद्धान्तों की अवहेलना होगी और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित मूल अधिकार ‘किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन अथवा व्यक्तित्व स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के सिवाय वंचित नहीं किया जा सकता है’ का घोर उल्लंघन माना जाएगा। आपराधिक मामलों में तर्कयुक्त आदेश पारित करना एक न्यायिक आवश्यकता है मजिस्ट्रेट ट्रायल मुकदमे में एक वर्ष पूर्व आरोप पत्र दाखिल होने के बाद भी विचारण कार्यवाही का संचालन न होना, जबरन अभियुक्त को जेल में रखकर सार्वजनिक जीवन से वंचित करना कहीं न कहीं आपराधिक न्याय प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है।
यदि अभियुक्त ढाई वर्ष जेल में रहकर साक्ष्य के अभाव में बरी होता है, तो उसके मानवाधिकार व मौलिक अधिकार का जो हनन होगा, उसकी भरपाई क्या न्यायालय, अभियोजन कर पाएगा? हम कैसी आपराधिक विधिक प्रणाली बनाना चाहते हैं? कब तक अपराधशास्त्र के मौलिक सिद्धान्तों एवं उच्चतम न्यायालय के निर्देशों को अनदेखा करते हुए सभ्य नागरिकों को उनके गरिमापूर्ण जीवन जीने से वंचित करते रहेंगे। कब तक गोविन्द बाबू जैसे लाखों विचाराधीन कैदियों के सम्मान एवं मानवाधिकारों की अनदेखी की जाती रहेगी।