उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब समेत पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों के सिलसिले में इन दिनों न्यूज चैनलों और अखबारों में ओपिनियन पोलों की भरमार है। इस कदर कि ये उनकी चुनावी रिपोर्टिंग के अभिन्न अंग बन गए हैं, लेकिन रंग-ढंग कुछ ऐसा है कि न सिर्फ उनकी विश्वसनीयता को लेकर गंभीर प्रश्न उठाये जा रहे हैं, बल्कि उनमें निकाले गए निष्कर्षों के पीछे उनके प्रायोजक संस्थानों के राजनीतिक व व्यावसायिक स्वार्थ भी तलाशे जा रहे हैं। इसलिए कई पार्टियों, खासकर ये ओपिनियन पोल जिनके खिलाफ जा रहे हैं, उनके द्वारा मतदाताओं को सावधान रहने को कहा जा रहा और इन पर आंख मंूदकर विश्वास करने से मना किया जा रहा है-इस तर्क से कि उनमें न तो कोई वैज्ञानिक पद्धति इस्तेमाल की गई है, न उन्हें राजनीति शास्त्र के मर्मज्ञों द्वारा विश्लेषित किया गया है। उत्तर प्रदेश की विपक्षी समाजवादी पार्टी ने तो इन्हें ‘ओपियम पोल’ तक कह डाला है।
प्रसंगवश, दुनिया के लोकतांत्रिक देशों में ऐसे ओपीनियन पोल, जिन्हें शुरू में चुनाव सर्वेक्षण या जनमत सर्वेक्षण कहा जाता था, सबसे पहले अमेरिका में जार्ज गैलप (18 नवम्बर, 1901-26 जुलाई, 1984) द्वारा शुरू किए गए। इसलिए उन्हें चुनाव सर्वेक्षणों का अन्वेषक या अग्रदूत कहा जाता है। उन्होंने अपने वक्त में जनमत के मापन के लिए सैम्पलिंग की जो प्रविधि अपनाई और उसका जैसा सांख्यिकीय विश्लेषण किया, उसे उनके नाम पर ही गैलप पोल कहा जाता है। अपने विरोधियों से गैलप प्राय: एक ही सवाल पूछते थे कि किसी मतदाता को यह पता क्यों नहीं होना चाहिए कि दूसरे मतदाताओं की इच्छा क्या है? उनके सर्वेक्षणों के नतीजे इतने सटीक हुआ करते थे कि बीसवीं शताब्दी के अंत तक एक अपवाद को छोड़कर उनकी सारी चुनावी भविष्यवाणियां सही सिद्ध हुई लेकिन अब उनके देश में भी ओपिनियन पोलों का हाल यह है कि 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में ज्यादातर ओपिनियन पोलों में की गई यह भविष्यवाणी पूरी तरह गलत साबित हुई कि हिलेरी क्लिंटन चुनाव जीतेंगी। वे डेमोक्रेटिक पार्टी की प्रत्याशी हिलेरी क्लिंटन की जीत की भवियष्वाणी करते रहे और अमेरिकी मतदाताओं के बदले हुए मूड ने उनके रिपब्लिकन प्रतिद्वंद्वी डोनाल्ड ट्रम्प को चुनाव जिता दिया। उसके बाद के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में भी ओपिनियन पोलों की विश्वसनीयता प्रमाणित नहीं ही हो पाई।
भारत की बात करें तो यहां चुनाव नतीजों के पूर्वानुमान का सिलसिला 1952 में हुए पहले आम चुनाव से ही शुरू हो गया था, जिसका श्रेय डी. कोस्टा को दिया जाता है, लेकिन उनके पूर्वानुमान इस अर्थ में आज के ओपिनियन पोलों से भिन्न थे कि उनमें गुणक पद्धति का ज्यादा प्रयोग किया जाता था।
आज की तारीख में अधिकतर चुनाव सर्वेक्षण उन निजी एजेंसियों द्वारा कराए जाते हैं, जो विभिन्न कंपनियों के उत्पादों की बिक्री की स्थिति जानने या बढ़ाने के लिए ग्राहकों के मध्य सर्वेक्षण कार्य करने की ही अभ्यस्त होती हैं, चुनाव सर्वेक्षणों का उन्हें आमतौर पर कोई अनुभव नहीं होता। ऐसे में कारपोरेट जगत को सहूलियत हासिल हो गई है कि वह इन एजेंसियों का इस्तेमाल उन राजनीतिक दलों या नेताओं के पक्ष में करें, जो सत्ता में आने पर उसे अधिकतम लाभ दिला सकते हों।
बताने की जरूरत नहीं कि ऐसे में इन एजेंसियों के चुनावी सर्वेक्षण न तो वैज्ञानिक हो पाते हैं और न यथार्थ के करीब। सर्वेक्षण के लिए जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण होना चाहिए, उसका भी इन एजेंसियों में प्राय: अभाव होता है, इसलिए कई बार उनके आकलन सटीक नहीं बैठते। मिसाल के तौर पर 2004 के लोकसभा चुनाव में अधिकतर सर्वेक्षणों में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापसी की भविष्यवाणियां की गई थीं। पर उसको प्रतिद्वंद्वी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन से भी कम सीटें मिलीं। इसी तरह 2007 तथा 2012 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में अधिकतर ओपिनियन व एग्जिट पोलों में त्रिशंकु विधानसभा की आशंका जताई गयी थी, लेकिन 2007 के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी तथा 2012 में समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ। इसी प्रकार राज्य के 2017 के विधानसभा चुनाव में भी ज्यादातर सर्वेक्षणों में ़ित्रशंकु विधानसभा की भविष्यवाणी की गई थी परन्तु मतदाताओं ने भाजपा को तीन चौथाई से अधिक सीटें दे दीं। पश्चिम बंगाल के गत विधान सभा चुनाव में भी अधिकांश चुनावी सर्वेक्षण गलत निकले।
चुुनाव सर्वेक्षण प्राय: औंधे मुंह क्यों गिरने लगे हैं? दैनिक ‘जनमोर्चा’ के प्रधान संपादक और प्रेस कौंसिल आॅफ इंडिया के पूर्व सदस्य शीतला सिंह की मानें तो इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि अब ओपिनियन पोल मतदाताओं का ओपिनियन जानने के लिए नहीं बल्कि ओपिनियन बनाने और उनके निर्णय को प्रभावित करने के इरादे से कराए जाते हैं। इनका उद्देश्य मतदाताओं के विभिन्न वर्गों को चुनाव की वस्तुगत स्थिति से अवगत कराना नहीं, करोड़ों का विज्ञापन देने वाली सरकार के पक्ष में उन्हें मोड़ना होता है। कई बार प्रतिद्वंद्वी पार्टियां अपनी ओर से भी ओपिनियन पोल कराती हैं, जिनके नतीजे प्रतिकूल हुए तो गोपनीय रखती हैं अन्यथा सार्वजनिक करके लाभ उठाने की कोशिश।
लेकिन अयोध्या के वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता खालिक अहमद खां इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते। वे कहते हैं, ‘इन ओपिनियन पोलों को गंभीरता से लेने के बजाय मजाक के तौर पर लेना चाहिए। क्योंकि सूचना क्रांति के इस दौर में मतदाता इतने अन्जान नहीं रह गए हैं कि इतना भी न समझ सकें कि कौन से न्यूज चैनल या अखबार उन्हें गुमराह कर रहे हैं। वे उनकी भक्ति को भी समझते हैं और उसके लिए अपनी शक्ति के दुरुपयोग को भी। जानते हैं कि क्यों वे चुनाव की अधिसूचना जारी होने के पूर्व ही बताने लग जाते हैं कि अगर उस वक्त चुनाव हो जाएं तो किस दल को कितने प्रतिशत वोट मिलेंगे और मुख्यमंत्री पद के लिए मतदाताओं की पहली पसंद कौन है? क्यों वे एक ओर कहते हैं कि उनके निष्कर्ष एक निश्चित प्रतिशत तक गलत हो सकते हैं और दूसरी ओर दशमलव के बाद तक के अपने अनुमानों को निश्चयात्मक बताते हैं।
वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी ने 2013 में लिखा था, ‘भले ही इन ओपिनियन पोलों पर कम लोगों को ही यकीन हो, वे इस अर्थ में ‘सफल’ हो जाते हैं कि चर्चा के विषय बनते हैं। लेकिन कोई दावा नहीं कर सकता कि हमारे देश में चुनाव पूर्व सर्वेक्षण पूरी तरह विश्वसनीय होते हैं। हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि सर्वेक्षण के लिए सही सांचा ही तैयार नहीं हो पाता है। सर्वेक्षकों की विश्वसनीयता में सामान्य वोटर की दिलचस्पी दिखाई नहीं देती और न उसे पेश करने वाले मीडिया हाऊसों को उसे लेकर फिक्र दिखाई पड़ती है। मोटे तौर पर यह एक व्यावसायिक कर्म है जो चैनल या अखबार को दर्शक और पाठक मुहैया कराता है सर्वेक्षक अपनी अध्ययन पद्धति को ठीक से घोषित नहीं करते और किसी के पास समय नहीं होता कि उनकी टेब्युलेशन शीट्स को जांचा-बांचा जाए।’ जोशी की यह बात आज के संदर्भ में भी सच्ची लगती है।