23 जनवरी 1897… उड़ीसा के कटक में एक ऐसे सितारे का उदय हुआ जो असंख्य देशभक्तों के बीच आज तक एक धु्रव तारे की तरह दैदीप्यमान है, जिसे भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में नेताजी के खिताब से नवाजा गया। उसने जब आवाज दी कि , तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा, तो न केवल देश के नवयुवकों का खून खौला वरन माताओं ने अपने गहने तक उनके चरणों में आजादी की चाह में अर्पित कर दिये। नतीजा था, आजाद हिंद फौज, जिसने 1943 में ही सिंगापुर में हिंदुस्तान की आजाद सरकार की घोषणा कर अपनी फौज, मुद्रा, स्टांप व्यवस्था, ध्वज, मंत्रिपरिषद आदि बनाकर शक्तिशाली जर्मनी, जापान जैसे दुनिया के लगभग 9 देशों से मान्यता प्राप्त कर ली। जी हां! हम बात कर रहे हैं भारतीय स्वतंत्रता में एक महत्वपूर्ण मोड़ लाने वाले सुभाष चंद्र बोस के बारे में जिनकी आज जयंती है।
सुभाष ने देश को न केवल दिल्ली चलो, जय हिंद जैसे नारे देकर जाग्रत किया वरन वे स्वतंत्रता-संघर्ष के एकमात्र ऐसे व्यक्तित्व रहे जिनकी तथाकथित मृत्यु को आज तक भारतीय जनमानस स्वीकार ही नही कर पाया और वर्षों तक उनकी प्रतीक्षा करता रहा। सुभाष के जीवन की सभी घटनाएं परिवर्तनकारी रही हैं फिर चाहे वो बचपन की स्कूल जाने के पहले दिन की घटना ही क्यों न हो? पहले दिन स्कूल के लिए घर से निकलते समय वे फिसलकर गिरे और सिर में चोट लगने के कारण घंटों बिस्तर पर बेसुध रहे। उनके शब्दों में, भाग्यशाली स्कूल जा चुके थे और मै अंधेरे मे लेटा अपना चेहरा देख रहा था। स्कूली जीवन में वे एक मेधावी छात्र थे और उन पर उनके हेडमास्टर बेनीप्रसाद का गहरा प्रभाव था। पर बाद में अचानक उनका झुकाव योग व साधु सन्यासियों की ओर बहुत अधिक हो गया। उन्होने लिखा कि मैं भिखारियों, फकीरों के प्रति बहुत उदार हो गया था, मुझे उन्हे कुछ देकर एक खास तरह की संतुष्टि मिलती थी। इसी बीच एक सहपाठी के घर उस समय के युगपुरूष विवेकानंद की पुस्तक को पढ़कर उन पर विवेकानंद व उनके गुरू रामकृष्ण के विचारों का ऐसा गहरा असर हुआ कि आजीवन वे इसी प्रभाव मे रहे। पिता के दबाव में वे लंदन गये और पहले ही प्रयास में उस समय की सम्मानित इंडियन सिविल सेवा परीक्षा में चौथा स्थान प्राप्त किया परंतु ऐसी ऐशोआराम से भरी नौकरी से त्यागपत्र देकर मां भारती के चरणों मे खुद को अर्पित कर उन्होने अपने भाई को लिखा कि ………प्रत्येक सरकारी कर्मचारी, चाहे वह छोटा चपरासी हो या फिर प्रांतीय गर्वनर वह भारत में अंग्रेज सरकार के स्थायित्व में सहायता ही करता है। अत: इससे हाथ खींच लेना ही सही है। मैने अपना इस्तीफा भेज दिया है।
वाह कैसा अद्भुत व्यक्ति था वह! भारत लौटकर वह हालांकि गांधी से मिले परंतु उनके विचारों से संतुष्ट न होने पर गांधी ने उन्हे कांग्रेस के बड़े नेता चितरंजन दास के पास भेजा। सुभाष को जिस गुरू की तलाश वर्षो से थी वह दास के रूप में पूरी हुई। उन्ही के साथ सुभाष ने राजनीतिक कार्य प्रारम्भ किया और 1923 में अखिल भारतीय युवा कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। 1924 मे जब दास की स्वराज पार्टी के अंतर्गत सुभाष कलकत्ता कार्पाेरेशन के सीईओ बने तो उन्होने खादी को वहां के सभी सरकारी कर्मचारियों की ड्रेस बनाना, उचित मूल्य पर स्वदेशी सामान उपलब्ध कराना, चौराहो व मार्गो के नाम भारतीयों के नाम पर रखना जैसे बदलाव किये। अंग्रेजों ने ईर्ष्यावश विभिन्न झूठे आरोप लगाकर उन्हे मांडले जेल में कैद कर लिया। वहां भी सुभाष कहां मानने वाले थे। जेल सुधारों की मांग में हड़ताल व वहां की अमानवीय परिस्थितियों से उन्हे तपेदिक हो गया। यह खबर देश में आते ही लोगों में दीवानगी सी छा गयी और उनकी रिहाई की मांग ने जोर पकड़ लिया। सरकार ने कहा की वे यूरोप चले जाने को राजी हों तो छोड़ें पर सुभाष नही माने। 1927 में उन्हे बिना शर्त रिहाई मिली।
कुछ समय बाद ही उन्हे सविनय अवज्ञा के लिए पुन: गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में ही वे कलकत्ता के मेयर का चुनाव जीते। जेल आने-जाने का ये सिलसिला चलता रहा। अंत में अंग्रेजों की नजरबंदी से वे वेश बदल कर निकल गये। और विदेशी सहायता से अंग्रेजी राज के विरूद्व एक सशस्त्र युद्व की आशा में रूस, जर्मनी, इटली व जापान आदि अनेक देशों की यात्रा की। अंत में फरवरी 1943 में सिंगापुर में जापान की सहायता से उन्होने आईएनए यानि आजाद हिंद फौज की स्थापना कर अंग्रेजों के विरूद्व सशस्त्र क्रांति का शंखनाद किया।
सुभाष के नेतृत्व में आईएनए ने असम की ओर से भारत में आक्रमण कर शुरूआती सफलता अर्जित की पर धीरे-धीरे जापान की विश्वयुद्व में पराजय व प्राकृतिक कारणों से उन्हे पीछे हटना पड़ा। उन्हे अंग्रेज फौज के भारतीय सैनिकों से अपनी उम्मीद के मुताबिक समर्थन भी नही मिल पाया। अंत में साथियों के आग्रह पर आंदोलन पुनर्गठन करने की आशा में अगस्त 1945 को नेताजी ने टोक्यों जाने के लिए एक विमान मे उड़ान भरी पर वह फिर कभी नही मिले। देश को सशस्त्र क्रांति से परिचित करा साहस भरने वाले सुभाष आज सत्तालोलुपता में एक-दूसरे पर अनर्गल आरोप लगाते राजनेताओं के लिए तब अनुकरणीय हो जाते हैं जब वे आजादी प्राप्त करने के तरीकों को लेकर पर्याप्त असहमति के बावजूद गांधी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता कहकर सम्मान देते हैं। आज जब गणतंत्र-दिवस पर सुभाष की झांकी को शामिल न करने का आरोप सरकार पर उनकी पुत्री अनीता द्वारा लगाया जाता है तब उस सुभाष की बहुत याद आती है जिसने पल-भर में आईसीएस की सुनहरी नौकरी को ठोकर मार दी थी जिसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष पद को छोड़ने में जरा भी देर नही लगायी थी। किसके लिए! यह सोचनीय है।
प्रस्तुति गुलशन गुप्ता