Saturday, July 27, 2024
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महानगरों की मतदान के प्रति बेरुखी

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33 6दिल्ली से सटे गाजियाबाद का एक ऊंची इमारतों वाला इलाका है-क्रॉसिंग रिपब्लिक, जहां 29 हाऊसिंग सोसायटी हैं। साक्षरता दर लगभग शत प्रतिशत। यहा कुल 7358 मतदाता पंजीकृत हैं। उत्तर प्रदेश में दूसरे चरण के नगर निगम चुनाव में इनमें से महज 1185 लोग वोट डालने गए। महज कोई 16 फीसदी। वैसे तो पूरे नगर निगम क्षेत्र में मतदाताओं की संख्या किसी लोक सभा सीट से कम नहीं है-15 लाख 39 हजार 822 , लेकिन इनमें से भी मात्र 36. 81 प्रतिशत लोग ही वोट डालने गए। यहां से विजेता मेयर पद की प्रत्याशी को 350905 वोट मिले अर्थात कुल मतदाता के महज 22 फीसदी की पसंद का मेयर।

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकायों के चुनाव में दो चरणों में संपन्न 17 नगर निगमों में चुनाव का मतदान बहुत ही निराशाजनक रहा। अयोध्या में मतदान हुआ-47.92 प्रतिशत और विजेता को इसमें से भी 48.67 प्रतिशत वोट ही मिले। बाकी बरेली 41.54 वोट गिरे और विजेता को उसमे से भी साढ़े सैंतालिस प्रतिशत मिला, कानपुर 41.34 मतदान हुआ और विजेता को उसका भी 48 फीसदी मिला।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शहर गोरखपुर में तो मतदान 34.6 फीसदी ही हुआ और विजेता को इसका आधा भी नहीं मिला। प्रधानमंत्री जी के संसदीय क्षेत्र बनारस के शहर की मात्र 38.98 लोग ही वोट डालने निकले और मेयर बन गए नेता जी को इसका 46 प्रतिशत मिला। प्रयागराज में तो मतदान महज 31. 35 फीसदी रहा और 47 प्रतिशत पाने वाला शहर का महापौर हो गया। राजधानी लखनऊ के हाल तो बहुत बुरे थे।

वहां पड़े-मात्र 35.4 फीसदी वोट और विजेता को इसमें से 48 फीसदी। सभी 17 नगर निगम में सहारनपुर के अलावा कहीं भी आधे लोग वोट डालने निकले नहीं और विजेता को भी लगभग इसका आधा या उससे कम मिला। जाहिर है विजयी मेयर भले ही तकनीकी रूप से बहुमत का है लेकिन ईमानदारी से यह शहर के अधिकांश लोगों का प्रतिनिधित्व करता ही नहीं है। सर्वाधिक निराशा महानगरों में मतदान को ले कर है और यह यह लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। भले ही कुछ लोग इसमें से जीत जाएं, लेकिन वे कुल मतदाता के महज पंद्रह से बीस फीसदी लोगों के ही प्रतिनिधि होंगे।

यह भी समझना होगा कि जिन बड़े शहरों में कम मतदान हो रहा है, वहां विकास के नाम पर सबसे अधिक सरकारी धन लगाया जाता है और अधिक मतदान वाले छोटे कस्बे गंदगी, नाली जैसे मूलभूत सुविधाओं पर भी मौन रहते हैं। एक बारगी आरोप लगाया जा सकता है कि पढ़ा लिखा मध्यम वर्ग घर बैठ कर लोकतंत्र को कोसता तो है, लेकिन मतदान के प्रति उदासीन रहता है। यह विचारणीय है कि क्या वोट ना डालने वाले आधे से अधिक फीसदी से ज्यादा लोगों की निगाह में चुनाव लड़ रहे सभी उम्मीदवार या मौजूदा चुनाव व्यवस्था नालायक थी?

जब कभी मतदान कम होने की बात होती है तो प्रशासन व राजनैतिक दल अधिेक गरमी या, छुट्टी न होने जैसे कारण गिनाने लगते हैं। लेकिन इस बार तो मौसम भी सुहाना था और महानगरों में सभी प्रतिष्ठान भे बंद थे। इस कड़वे सच को सभी राजनेताओं को स्वीकारना होगा कि मत देने ना निकलने वाले लोगों की बड़ी संख्या उन लोगों की है जो स्थानीय निकायों की कार्य प्रणाली से निराश और नाउम्मीद हैं।

यह भी दुखद पहलू है कि आम लोग यह नहीं जानते कि स्थानीय निकाय के प्रतिनिधि से उसे क्या उम्मीद है और विधायक और सांसद से क्या? वह सांसद से सड़क नाली की बात करता है और पार्षद चुनाव में पाकिस्तान को मजा चखाने के भाषण सुनता है। एक बात और, हजारों लोग ऐसे सड़क पर मिले, जिन्होंने लोसभा और विधानसभा में वोट डाला, उनके पास मतदाता पहचान पत्र है लेकिन उनके नाम स्थानीय निकाय की मतदाता सूची में थे नहीं।

मतदाताओं की बढ़ती संख्या के साथ-साथ उम्मीदवारों की संख्या अधिक हो रही है, लेकिन इसकी तुलना में नए मतदाता केंद्रों की संख्या नहीं बढ़ी है। मतदाता सूची में नाम जुड़वाना जटिल है और उससे भी कठिन है अपना मतदाता पहचान पत्र पाना। एक आंकड़े को बारीकी से देखें तो मतदाता सूची तैयार करने या उसमें नाम जोड़ने में आने वाली दिक्कतों का आकलन हो सकता है। उत्तर प्रदेश में नगर निगम वाले 17 शहरों में पुरुष मतदाता तो एक करोड़ 27 हजार 203 हैं, लेकिन महिला मतदाता की संख्या महज 88 लाख, 17 हजार 531। बड़े शहरों में इतना अधिक लैंगिक विभेद का आंकडा होता नहीं। स्पष्ट है कि महिला मतदाता के पंजीयन के काम में उदासी है।

आज चुनाव से बहुत पहले रणनीतिकार मतदाता सूची का विश्लेषण कर तय कर लेते हैं कि हमें अमुक जाति या समाज या इलाके के वोट चाहिए ही नहीं। यानी जीतने वाला क्षेत्र का नहीं, किसी जाति या धर्म का प्रतिनिधि होता है। यदि नगरीय निकायों में कुल मतदान और जीत के अंतर के हिसाब से इलाके की जन सुविधा और पार्षद की हैसियत तय करने का कानून आए तो प्रतिनिधि न केवल मतदाता सूची में लोगों के नाम जुड़वाएंगे, बल्कि मतदाता को वोट डालने के लिए भी प्रेरित करेंगे। राजनैतिक दल कभी नहीं चाहेंगे कि मतदान अधिक हो, क्योंकि इसमें उनके सीमित वोट-बैंक के अल्पमत होने का खतरा बढ़ जाता है।

कोई भी दल चुनाव के पहले घर-घर जा कर मतदाता सूची के नवीनीकरण का कार्य करता नहीं और बीएलओ पहले से ही कई जिम्मेदारियों में दबे होते हैं। हमारा लोकतंत्र भी एक ऐसे अपेक्षाकृत आदर्श चुनाव प्रणाली की बाट जोह रहा है, जिसमें कम से कम सभी मतदाताओं का पंजीयन हो और मतदान ठीक तरीके से होना सुनिष्चित हो।


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