आज के आर्थिक और सामाजिक युग में कार्यक्षेत्र के भीतर अत्यधिक काम का दबाव एक प्रमुख और जटिल समस्या बन गया है। यह समस्या किसी एक देश तक सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक स्तर पर व्यापक रूप से देखी जा सकती है। विकसित और विकासशील देशों में कार्य संस्कृति में तेजी से बदलाव आए हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में कर्मचारियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले गंभीर प्रभावों को प्राय: नजरअंदाज कर दिया गया है। कार्यस्थल पर बढ़ते दबाव के कारण न केवल कर्मचारियों की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, बल्कि समाज के भीतर असंतुलन और असंतोष की स्थिति भी उत्पन्न हुई है। हाल ही में, भारत में उद्योगपति नारायण मूर्ति ने युवाओं को साल में 70 घंटे काम करने का सुझाव दिया। उनके अनुसार, यह आर्थिक प्रगति का एक संभावित समाधान हो सकता है। हालांकि, इस सुझाव ने यह गंभीर बहस छेड़ दी कि क्या केवल काम के घंटों को बढ़ाकर आर्थिक विकास को सुनिश्चित किया जा सकता है। भारत जैसे विकासशील देश में, जहां आर्थिक असमानता और श्रम कानूनों का प्रभाव सीमित है, इस तरह के सुझाव कर्मचारियों के लिए नई चुनौतियां पैदा कर सकते हैं।
तकनीकी प्रगति और वैश्वीकरण ने कार्यक्षेत्र के ढांचे में बड़े और व्यापक बदलाव किए हैं। इन बदलावों के कारण कार्य प्रक्रियाएँ अधिक जटिल हो गई हैं और कर्मचारियों से अत्यधिक अपेक्षाएं की जाने लगी हैं। उदाहरण के लिए, जापान में ‘करोशी’ जैसे शब्द का प्रचलन इस समस्या की गहराई को दर्शाता है। ‘करोशी,’ जिसका अर्थ है ‘अत्यधिक काम के कारण मृत्यु,’ यह बताता है कि कार्यक्षेत्र में असंतुलन कितना घातक हो सकता है। जापान में यह स्थिति वहां की संस्कृति में कार्यस्थल को व्यक्तिगत जीवन से अधिक प्राथमिकता देने के कारण उत्पन्न हुई है। यही प्रवृत्ति अब भारत में भी उभर रही है, जहां कर्मचारियों को लंबी शिफ्टों और निरंतर दबाव में काम करने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
भारत में कार्यक्षेत्र में अत्यधिक दबाव कई बहुस्तरीय और जटिल कारणों से उत्पन्न होता है। इनमें आर्थिक असमानता, दक्ष संसाधनों की कमी और श्रम कानूनों के प्रभावी क्रियान्वयन की अनुपस्थिति प्रमुख हैं। कंपनियाँ अपने लाभ को प्राथमिकता देते हुए सीमित संसाधनों और न्यूनतम मानवबल के माध्यम से अधिकतम उत्पादन करने का प्रयास करती हैं। इसका सीधा प्रभाव कर्मचारियों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। इसके अतिरिक्त, कार्य प्रदर्शन का आकलन अक्सर केवल काम के घंटों की गणना पर आधारित होता है, जबकि वास्तविक उत्पादकता और कार्यकुशलता का मूल्यांकन करने के प्रयास न्यूनतम होते हैं। अत्यधिक कार्यभार का प्रभाव केवल कर्मचारियों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि उनके परिवार और समाज पर भी गहरा असर डालता है। मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ जैसे तनाव, अवसाद और चिंता निरंतर कार्य दबाव के कारण तेजी से बढ़ रही हैं। शारीरिक स्वास्थ्य पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ता है, जिससे हृदय रोग, उच्च रक्तचाप और मधुमेह जैसी बीमारियों का जोखिम बढ़ जाता है। परिवार और मित्रों के साथ समय न बिता पाने के कारण सामाजिक संबंधों में दरार आ जाती है, जिससे व्यक्ति अलगाव और असंतोष की भावना का शिकार हो जाता है। उत्पादकता के संदर्भ में, अत्यधिक काम का दबाव अक्सर विपरीत प्रभाव डालता है। निरंतर थकावट और मानसिक तनाव के कारण कर्मचारियों की कार्यक्षमता में गिरावट आती है, जिससे संगठनों के लिए अपेक्षित परिणाम हासिल करना मुश्किल हो जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि केवल कार्य घंटों में वृद्धि से सफलता सुनिश्चित नहीं होती। इसके विपरीत, गुणवत्ता और कार्यकुशलता पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है।
वैश्विक स्तर पर इस समस्या का समाधान ढूंढने के लिए अनेक देशों ने प्रभावी कदम उठाए हैं। स्वीडन ने छह घंटे कार्यदिवस की नीति अपनाई, जिससे कर्मचारियों की उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई और उनके जीवन की गुणवत्ता बेहतर हुई। जर्मनी ने भी कार्य घंटों को सीमित कर कर्मचारियों को दक्षता और कुशलता के साथ कार्य करने के लिए प्रेरित किया। इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि कार्य घंटों को घटाने से कर्मचारियों की संतुष्टि और उत्पादकता दोनों में सुधार होता है, जो संगठनों की दीर्घकालिक प्रगति के लिए भी फायदेमंद है। भारत में इस दिशा में सुधार के लिए व्यापक नीतिगत बदलावों की आवश्यकता है। श्रम कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए, ताकि कार्यदिवस के घंटे तय हों और कंपनियाँ इन नियमों का सख्ती से पालन करें। “स्मार्ट वर्क” के विचार को बढ़ावा देना चाहिए, जिससे कर्मचारी अपनी दक्षता और तकनीकी उपकरणों का उपयोग करते हुए कम समय में बेहतर परिणाम दे सकें।
अंतत:, संगठनों को यह समझना होगा कि उत्पादकता केवल काम के घंटों पर निर्भर नहीं करती, बल्कि यह कर्मचारियों की प्रेरणा, कौशल-सम्मान और प्रोत्साहन पर आधारित होती है। कर्मचारियों को बेहतर परिणाम देने के लिए प्रेरित करना और उनकी क्षमताओं का सही आकलन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। संतुलित कार्यसंस्कृति न केवल कर्मचारियों को संतुष्टि प्रदान करती है, बल्कि उनकी उत्पादकता और समर्पण को भी बढ़ाती है। मानवता और उत्पादकता के बीच संतुलन स्थापित करना समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यदि संगठन और सरकारें इस दिशा में ठोस कदम उठाएं, तो यह न केवल कर्मचारियों के लिए, बल्कि समाज और अर्थव्यवस्था के लिए भी लाभप्रद सिद्ध होगा। यही एक स्थायी, सकारात्मक और समृद्ध कार्यसंस्कृति का आधार है।