Thursday, September 19, 2024
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क्या हिंसा स्वीकार्य हो चुकी है?

SAMVAD

 


APURAVANANDइसमें अब कोई संदेह नहीं रह गया है कि भारत में शासक दल भारतीय जनता पार्टी के द्वारा हिंसा भरी जा रही है। उससे भी ज्यादा फिक्र की बात यह है कि हिंसा को लेकर एक तरह की बेहिस बेपरवाही लोगों में भरती जा रही है। हिंसा और हत्या की इस संस्कृति को समझना हमारे लिए बहुत जरूरी है इसके पहले कि यह इस देश को पूरी तरह तबाह कर दे। लखीमपुर खीरी में एक विरोध प्रदर्शन से लौट रहे किसानों को रौंदते हुए फरार्टे लेती गाड़ियों का दृश्य हतवाक् कर देने वाला था। लेकिन ऐसे लोग हमारे बीच हैं जो इसका औचित्य खोज रहे हैं। पहले दिन कुछ घंटों तक तो कुछ टीवी चैनलों से यह साबित ही कर दिया था कि वास्तव में यह दुर्घटना थी और इसलिए घटी कि मंत्री की गाड़ियों पर किसानों ने हमला किया था, पत्थरबाजी की थी। थोड़ी ही देर में साबित हो गया कि यह झूठ था। इस हिंसा का कारण है। इसके कुछ पहले ही गाड़ी के मालिक, भारत के गृह राज्यमंत्री ने एक खुली सभा में किसानों को धमकी दी थी। ‘सुधर जाओ वरना दो मिनट में ठीक कर देंगे’ और इलाके में रहना दूभर कर देंगे, मंत्री ने यह धमकी आंदोलनकारी किसानों को दी थी।

जिस वक्त केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा का किसानों को धमकी देता वीडियो सामने आया उसी के आस-पास एक और वीडियो प्रसारित हुआ। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर अपने दल के कार्यकर्ताओं को लट्ठ उठाकर किसानों को ‘ठीक कर देने’ का आह्वान करते हुए दिखलाई पड़ रहे हैं।

फिर जो होगा, वह देखा जाएगा। अगर वे जेल गए तो कुछ दिन में निकल आएंगे और बड़े नेता बन जाएंगे, यह भरोसा भी दिलाया। मुख्यमंत्री खुलेआम हिंसा के लिए अपने लोगों को उकसा रहा है, यह देखकर भारत में बाहर के लोग शायद हैरान रह जाएं लेकिन भारत में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को ऐसा करते देखने की अब सबको आदत पड़ गई है। खट्टर के उस वीडियो में उनकी मुद्रा भी गली के दबंग दादा जैसी ही है।

हिंसा का खुलेआम प्रचार और उकसावा कोई अचानक इसी वक्त नहीं किया जा रहा है। किसान आंदोलन शुरू होने के समय ही उसे हिंसा के बल पर दबाने की कोशिश की गई थी। दिल्ली को मार्च करते किसानों पर हरियाणा सरकार की पुलिस ने जिस तरह लाठियां चलाईं, उनके रास्ते को कोड़ दिया, खोद डाला और रुकावटें खड़ी कीं, वह भूलना मुश्किल है। फिर भी किसान यह सब कुछ झेलते हुए दिल्ली की सरहदों तक पहुंच गए और जब दिल्ली पुलिस ने रुकावट खड़ी की, तो वहीं डेरा डाल दिया।

सबने किसानों के धैर्य को देखा,उनके शांतिपूर्ण, अहिंसक आंदोलन ने बहुतों को चकित भी किया। लेकिन सरकारी दल और उनके समर्थक अखबार और टीवी चैनल तब क्या कर रहे थे? वे किसानों को खालिस्तानी, माओवादी बतला रहे थे।

वे गैर किसान जनता में और भारत के दूसरे राज्यों में मुख्य रूप से पंजाब से आए इन आंदोलनकारियों के खिलाफ संदेह और घृणा का प्रचार कर रहे थे। किसी के खिलाफ शक और नफरत अगर समाज में भर दी जाए तो उस पर हिंसा आसान हो जाती है क्योंकि उसका एक कारण पहले से तैयार कर लिया गया होता है।

किसानों के आंदोलन के पहले दिल्ली और देश के कई हिस्सों में सीएए के खिलाफ आंदोलन हुए। दिसंबर में जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में छात्रों ने विरोध प्रदर्शन शुरू किया। उस विरोध पर दोनों जगह पुलिस ने क्रूरतापूर्वक हिंसा की। यह पुलिस की साधारण कार्रवाई न थी।

इसमें प्रदर्शनकारी छात्रों को सबक सिखा देने का इरादा था। अमूमन पुलिस की हिंसा पर हम बात नहीं करते क्योंकि मान लेते हैं कि यह तो उसका अधिकार है। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि पुलिस को हिंसक होने का अधिकार नहीं है। उसे कानून-व्यवस्था बनाए रखनी है। उसमें वह बल प्रयोग करती है।

बल प्रयोग जब घृणापूर्ण हिंसा में बदल जाए तो हमें जरूर फिक्र करनी चाहिए। जामिया और अलीगढ़, दोनों जगह ही पुलिस की कार्रवाई व्यवस्था बहाल करने के लिए मजबूरी का बल प्रयोग न था। वह प्रदर्शकारियों के खिलाफ एक विचारधारात्मक हिंसा थी।

सीएए विरोधियों को राज्य दुश्मन बल्कि राष्ट्र विरोधी और हिंदू विरोधी घोषित कर दिया गया था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के पहले देश के प्रधानमंत्री ने अपनी सभा में कहा कि जो कानून का विरोध कर रहे हैं, उन्हें उनके कपड़ों के रंग से पहचाना जा सकता है। इशारा साफ था।

यह कानून का विरोध करने वालों को उनके धर्म के आधार पर परिभाषित करने की कोशिश थी। यानी कानून का विरोध सांप्रदायिक है, यह प्रधानमंत्री कहना चाहते थे। और यह बात उनके मतदाताओं तक पहुंची।

हिंसा की संस्कृति अब राज्य द्वारा प्रसारित की जा रही है। हाल में असम में दरांग जिले के सिपाझार में अतिक्रमण हटाने के समय पुलिस ने जो हिंसा की उससे पुलिसवाले भी सतब्ध थे। लेकिन असम के मुख्यमंत्री ने मारे गए लोगों के प्रति कोई संवेदना व्यक्त न की। हिंसा का समर्थन किया।

दरांग के पुलिस प्रमुख ने बेदखली का विरोध कर रहे लोगों को धमकी दी कि जमीन, आसमान ऊपर-नीचे हो जाए, बेदखली होकर रहेगी। असम के मुख्यमंत्री लगातार बाहरी के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ घृणा का प्रचार कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की तरह ही उन्होंने भी पुलिस को ठोंक देने की छूट दे दी है।

इस आदेश का नतीजा हुआ है अब तक सैकड़ों लोगों को पुलिस द्वारा गोली मारने में। उनमें तकरीबन 100 मारे गए हैं। कोई यह नहीं कह रहा कि इस तरह पुलिस को हिंसक बनाने का यह खेल राज्य को महंगा पड़ेगा। यह उत्तर प्रदेश में हाल में गोरखपुर के एक होटल में घुसकर एक व्यापारी की पुलिस द्वारा की गई हत्या से स्पष्ट हो जाना चाहिए।

हिंसा के प्रचार का असर मध्य प्रदेश के नरम माने जानेवाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर भी पड़ा है। ‘डंडा लेकर निकला हूं..’ से लेकर ‘अगर हमारी बेटियों के साथ कुछ करने की कोशिश की तो तोड़ दूंगा, लव जिहाद करने वालों को बर्बाद कर दूंगा‘ तक के उनके बयानों से कई लोग हैरान हुए हैं। लेकिन यह हिंसा भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक भाषा से अभिन्न है और उसके बिना वह अपनी जनता से बात नहीं कर सकती।

यह हिंसा मुसलमान विरोधी घृणा पर टिकी है। उसके सहारे वह हिंदुओं में स्वीकार्यता हासिल करती है और फिर उनका स्वभाव बनती जाती है। लेकिन इस हिंसा का प्रचार और प्रसार सुनियोजित और संगठित है। यह हिंसा राजनीतिक संस्कृति और सामाजिकता का निर्माण करती है।

फिर जनता इसमें आनंद लेने लगती है और हिंसा की मांग करने लगती है। हिंसा का समाज के दिलो-दिमाग पर कब्जा समाज को खत्म कर देगा, यह उस वक्त कोई नहीं सोचता। फिर हम देखते हैं कि बहुत देर हो चुकी है और हिंसा ने समाज को परास्त कर दिया है। भारत क्या उस रास्ते पर चल रहा है या उस बिंदु पर पहुंच गया है?


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