किसी भी देश के आर्थिक विकास में वहां के मानव संसाधनों की बडी भूमिका होती है। शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों पर व्यय बढ़ाने से समाज में गुणवत्तापूर्ण मानव संसाधनों में वृद्धि होती है। गुणवत्ता पूर्ण मानव संसाधनों में वृद्धि करके हम लोक कल्याण को भी बढ़ावा दे सकते हैं। एक विकासशील देश, जहां बड़ी संख्या में लोग अपने जीवन-निर्वाह के लिए सरकार से मिलने वाले मुफ्त राशन पर निर्भर रहते हों, में निजी क्षेत्र से शिक्षा एवं स्वास्थ जैसी बुनियादी सेवाओं पर व्यय बढ़ाने की अपेक्षा करना व्यर्थ है। हम सभी को इससे सहमत होना चाहिए कि शिक्षा एवं स्वास्थ्य दो ऐसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं, जहां पर सरकारों को अपना व्यय बढ़ाना चाहिए। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि पिछले कुछ वर्षों में राज्य सरकारों द्वारा शिक्षा एवं स्वास्थ्य दोनों क्षेत्रों में संसाधनों के आवंटन में कमी की गई है। उच्च आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद व्यक्तिगत आयकर का आधार स्थिर बना हुआ है। अनेक करों का हम भारत में उपयोग ही नहीं कर पा रहे हैं। जैसे वेल्थ टैक्स, एस्टेट टैक्स, इन्हेरिटेंस टैक्स (उत्तराधिकार कर) आदि। संपत्ति कर भारत में दूसरे देशों की तुलना में काफी कम है। इन करों के माध्यम से सरकार राजस्व में वृद्धि करके व्यय के लिए अधिक संसाधन जुटा सकती है। देश में विशेषाधिकार प्राप्त धनी एवं सामर्थ्यवान तबका इन पहलुओं पर चर्चा भी नहीं करना चाहता।
श्रीलंका का संकट केवल कल्याणकारी व्यय में वृद्धि होने की वजह से नहीं, बल्कि अन्य दूसरों दूसरे कारणों की वजह से आया था। राज्यों की बात करें तो 2015-16 से पहले राज्य सरकारें मध्यावधि राजकोषीय फ्रेमवर्क का अनुसरण करते हुए अधिक संसाधन व्यय करती थीं। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के एक अध्ययन के अनुसार 2015-16 के बाद सार्वजनिक व्यय की गुणवत्ता में लगातार गिरावट देखने में आई है।
राज्य सरकारों ने एक आसान रास्ता अपना लिया है जिसकी परिणति है कि आज हम मुफ्त रेवड़ी की चर्चा कर रहे हैं। उत्पादक कार्यों पर सार्वजनिक व्यय कम होने से आर्थिक वृद्धि दर कम हुई है और इसके परिणाम स्वरूप कर-राजस्व में भी कमी आई है। आज भी भारत में मात्र 6 प्रतिशत लोग ही व्यक्तिगत आयकर का भुगतान कर रहे हैं। काफी संस्थागत उपाय करने के बावजूद व्यक्तिगत आयकर आधार को बढ़ाने में अपेक्षित सफलता हासिल नहीं हो सकी है। अप्रत्यक्ष करों के संदर्भ में वस्तु एवं सेवा कर के रूप में भी एक बड़ा कर सुधार हुआ है। इससे अप्रत्यक्ष कर राजस्व में वृद्धि हुई है लेकिन इससे आय वितरण में असमानता भी बढ़ी है।
गैर-कर राजस्व के संबंध में केंद्र सरकार ने काफी वृद्धि की है, जबकि राज्यों के स्तर पर गैर-कर राजस्व में कमी आई है। थॉमस पिकेटी एवं अन्य ने भारत में व्यक्तिगत आयकर आधार में चीन व ब्राजील की तरह अपेक्षित वृद्धि नहीं कर पाने के लिए कर छूट की सीमा में लगातार वृद्धि करते रहना एवं कर संकलन में भ्रष्टाचार को महत्वपूर्ण कारण बताया था। क्या भारत में मात्र 6% लोग ही व्यक्तिगत आयकर देने योग्य हैं? और यदि हां तो यह बहुत ही गंभीर विषय है।
कोविड-19 के दौरान एक अनुमान के अनुसार 953 बड़े अमीर लोगों की औसत आय 5000 करोड़ रुपए से अधिक थी। इनकी सामूहिक आय भारत की कुल सकल घरेलू उत्पाद के 25 प्रतिश से भी अधिक है। यदि इन 953 उच्चतम आय वाले लोगों पर एक बार 4 प्रतिशत वेल्थ टैक्स लगा दें तो देश की जीडीपी के 1 प्रतिशत से ज्यादा राजस्व की प्राप्ति सरकार को हो सकती है। वर्तमान में 1 प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद का मतलब है दो लाख करोड़ रुपए से अधिक।
प्रॉपर्टी टैक्स से अन्य विकासशील देशों में जहां उनकी जीडीपी के 0.6 प्रतिशत राजस्व की प्राप्ति होती है वहीं हमारे देश में प्रॉपर्टी टैक्स से मात्र जीडीपी का 0.2 प्रतिशत राजस्व ही प्राप्त होता है, जबकि ओईसीडी देशों में यह जीडीपी का 2 प्रतिशत है। भारत में कर-राजस्व (मुख्यत: प्रत्यक्ष करों से) को बढ़ाने का काफी स्कोप है। पुनर्वितरण सरकार का एक महत्वपूर्ण कार्य है, इस पर बहुत कुछ सार्थक करना बाकी है।
दुर्भाग्य से आय वितरण के पिरामिड के शीर्ष पर विराजमान लोग अपने को मिडिल-क्लास समझते हैं, और कर देने से ईर्ष्या करते हैं। भारत का सुप्रीम कोर्ट भी वेलफेयर लोक कल्याण व्यय और राजकोषीय सरोकारों के बीच संतुलन स्थापित करने की बात तो करता है, वह विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को मिलने वाली रियायतों और राजकोषीय सरोकारों के बीच संतुलन की बात क्यों नहीं करता? यदि राजस्व में वृद्धि का कोई स्कोप नहीं है और सरकार को पुनर्वितरण का कार्य करना है तो विशेषाधिकार प्राप्त लोगों से संसाधन लेकर वंचित तबके को देना होगा।
सरकारों द्वारा बड़े कॉरपोरेट्स को बैड-लोन वेवर और वैनिटी प्रोजेक्ट्स (बुलेट ट्रेन, बड़े – बड़े स्टेचू आदि के निर्माण) पर होने वाले सार्वजनिक व्यय के बारे में सोचना पड़ेगा। सरकार की प्राथमिकता में सूक्ष्म आधार पर व्यय का प्रबंधन होना चाहिए। जैसे – नौकरियों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने पर सरकार को व्यय बढ़ाना चाहिए। विकासशील देशों में सरकार की राजकोषीय नीति का एक उद्देश्य संसाधनों का सामाजिक दृष्टि से अवांछित क्षेत्र से वांछित क्षेत्र की ओर स्थानांतरित करना भी होता है।
महिला सशक्तिकरण के नाम पर चाइल्ड केयर लीव का लाभ ज्यादातर विशेषाधिकार प्राप्त तबके को मिलता है। जो पहले से ही सशक्त हैं उन्हें और सशक्त करने से असमानताएं और गहरी होंगी। सरकार की नीतियों के केंद्र में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछडी महिलाओं का सशक्तिकरण होना चाहिए। जहां इस ओर सरकार को सोचने की आवश्यकता है, वहीं दूसरी तरफ सरकार को मेच्योरिटी बेनिफिट में वृद्धि करने की तरफ भी ध्यान देना चाहिए।
दुर्भाग्य से आज सब्सिडी एक गाली बन गई है जबकि कुछ क्षेत्रों में यह बहुत ही आवश्यक है। इंपलीसिट सब्सिडीज, जो नॉन-मेरिट सब्सिडी हैं, पर भी ध्यान देना जरूरी है। एम. गोविंदा राव एवं सुदीप्तो मुंडले के एक अध्ययन के अनुसार इंपलीसिट सब्सिडी भारत में सकल घरेलू उत्पाद के लगभग 8 प्रतिशत प्रतिशत के बराबर हैं। इंपलीसिट सब्सिडीज को घटाकर उन संसाधनों को लोककल्याण उपायों पर व्यय बढ़ाकर हम लोक कल्याण में वृद्धि कर सकते हैं।
हम राजकोषीय घाटे या राजस्व घाटे एवं जीडीपी की चर्चा करते हैं, जबकि आर्थिक संकट का सबसे महत्वपूर्ण कारक सार्वजनिक कर्ज एवं बकाया देयताओं का बढ़ता बोझ है। अनेक राज्यों का कर्ज-जीएसडीपी अनुपात खतरनाक स्तर को पार कर चुका है। अत: हमें सरकार के ऊपर बढ़ते कर्ज के बोझ एवं बकाया देनदारियों का संज्ञान लेते हुए श्रीलंका संकट से सबक लेना अनिवार्य है।