शाहरुख खान की ‘जवान’ निश्चय ही यह एक बंबइया फिल्म है, उसी तरह जिस तरह ‘पठान’ थी। लेकिन यह फिल्म पाकिस्तान, सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद को मसाले की तरह इस्तेमाल करने से सचेत रूप से बचती है और उन सब सवालों को अग्रिम मोर्चे पर ले आती है जिनका संबंध भारत की उस गरीब, बदहाल और बेरोजगार जनता से है जिन्हें मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान और हिंदुस्तान-पाकिस्तान की बाइनरी में फंसाकर उन सब सवालों को भूल जाने को उकसाती है जो उनके अस्तित्व के लिए जरूरी है। परंपरागत मेलोड्रामाई शैली में बनी इस फिल्म में बहुत कुछ ऐसा है जिसके आधार पर फिल्म को आसानी से खारिज किया जा सकता है। लेकिन इसी शैली में उन सब सवालों को गंभीरता के साथ पिरोया गया है जो आज की हमारी राजनीति के केंद्र में होने चाहिए। मसलन, फिल्म जो सवाल सबसे पहले उठाती है वह है किसानों की आत्महत्या का। एक किसान परिवार की कहानी बतायी जाती है जिसने बैंक से ट्रैक्टर खरीदने के लिए चालीस हजार का ऋण लिया था, लेकिन जो समय पर इसलिए नहीं चुका सका क्योंकि एक साल बाढ़ ने फसल खराब कर दी और दूसरे साल सूखे ने।बैंक इस किसान से कर्ज वसूल करने के लिए उसे धमकी देता है, गांव वालों के सामने अपमानित करता है, मार-पीट करता है और उसका ट्रैक्टर ले जाता है। नतीजतन किसान मजबूर होकर आत्महत्या कर लेता है।
यह कोई फिल्मी कहानी नहीं है। यह भारत की हकीकत है जहां हर साल कर्ज के बोझ तले सैकड़ों किसान आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं। फिल्म बताती है कि एक ओर तो कुछ हजार का उधार भी किसानों का माफ नहीं किया जाता, दूसरी तरफ पूंजीपतियों का चालीस हजार करोड़ का ऋण बैंक माफ कर देती है।
यह जो सत्ता का दोहरा चरित्र है, उसी चरित्र को फिल्म बहुत ही ताकतवर ढंग से सामने रखती है। हां, फिल्म इसका एक समाधान भी पेश करती है और निश्चय ही यह फिल्मी समाधान है। मेट्रो में यात्रियों का अपहरण करना जिनमें उस पूंजीपति की बेटी भी सफर कर रही है, उस पूंजीपति से जिसके चालीस हजार करोड़ बैंकों ने माफ कर दिया था उससे वह रकम वसूल करना और फिर इन रुपयों को उन सात लाख किसानों के खाते में पहुंचाना जिन पर बैंकों का उधार बकाया था।
फिल्म दूसरी कहानी उठाती है, सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की बर्बादी की। फिल्म में एक सरकारी अस्पताल में भर्ती साठ बच्चों को आॅक्सीजन की जरूरत है लेकिन अस्पताल में न दवाइयां हैं और न आॅक्सीजन। जब अस्पताल के डीन को बताया जाता है कि बच्चों को बचाने के लिए तत्काल आॅक्सीजन की जरूरत है लेकिन वह नौकरशाही तंत्र का हवाला देकर आॅक्सीजन तत्काल उपलब्ध कराने में अपनी असमर्थता व्यक्त करता है। जब एक जूनियर डॉक्टर इसकी शिकायत स्वास्थ्य मंत्री से करने की बात करती है, तो उसे धमकी दी जाती है।
आॅक्सीजन न मिलने के कारण साठ बच्चे बेमौत मारे जाते हैं और इसके लिए उसी डॉक्टर पर इल्जाम लगाकर जेल में डाल दिया जाता है जिसने यह सवाल उठाया था। यह भी कोई फिल्मी कहानी नहीं है। गोरखपुर के डॉक्टर कफील खान को इसी अपराध के लिए जेल में डाल दिया गया था उसने अस्पताल में अव्यवस्था के बारे में आवाज उठायी थी और बच्चों को बचाने के लिए आॅक्सीजन का इंतजाम करने की कोशिश की थी। उस अस्पताल में भी साठ बच्चे आॅक्सीजन के अभाव में मारे गये थे। इस यथार्थ घटना के साथ एक और घटना को जोड़ा गया है।
स्वास्थ्य मंत्री एक जनसभा में डींग हांकता हुआ कहता है कि हमारे सभी सरकारी अस्पतालों में हर तरह की सुविधा और बेहतरीन डॉक्टर हैं। वह नजदीक के एक अस्पताल का हवाला देते हुए कहता है कि अभी अगर कोई मुझे गोली मार दे तो मुझे कहीं और ले जाने की जरूरत नहीं है इस पड़ोस के सरकारी अस्पताल में ही मुझे बचा लिया जाएगा। फिल्म में मंत्री जी के दुर्भाग्य से उन्हें सभा में ही गोली लग जाती है।
स्पष्ट ही उस सरकारी अस्पताल में इलाज संभव नहीं था और उन्हें किसी दूसरे निजी अस्पताल में ले जाने की जरूरत थी, लेकिन उससे पहले ही उनका अपहरण हो जाता है और उन्हें उसी सरकारी अस्पताल में ले जाया जाता है जहां सब तरह की सुविधा होने का दावा जनसभा में मंत्री जी कर रहे थे। अब अगर मंत्री जी को बचाना है तो उन्हें किसी अच्छे अस्पताल में ले जाया जाना जरूरी था।
हथियारों की खरीद में भ्रष्टाचार, प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों की बात, ईवीएम की बात इन सबको फिल्म का हिस्सा बनाया गया है। लेकिन जिस बात के साथ फिल्म का अंत होता है, वह है आजाद द्वारा सीधे जनता को दिया गया संदेश। वह संदेश है: अपने वोट का सही इस्तेमाल करना और एक ऐसी सरकार चुनना जो जनता के हित में काम करे। उनकी समस्याओं का हल करे।
आजाद सीधे लोगों को संबोधित करते हुए पूछता है कि आप लोग जब कोई चीज खरीदने जाते हैं तब हर तरह का सवाल पूछते हैं लेकिन वोट देने जाते वक्त कोई सवाल नहीं करते। वह लोगों से पूछता है कि आप पांच साल के लिए अपनी सरकार चुनते वक्त कोई सवाल क्यों नहीं करते। जो वोट लेने आये उनसे सवाल पूछो। वह यह भी कहता है कि वोट लेने आने वालों से पैसा, जात-पांत, धर्म, सांप्रदायिकता की बजाय उनसे पूछो कि तुम मेरे लिए पांच साल तक क्या करोगे।
खास बात यह है कि फिल्म सीधे तौर पर निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों की बात तो नहीं उठाती। लेकिन बिना कहे हुए जिस बात को फिल्म में समस्याओं के द्वारा आसानी से समझा जा सकता है वह यह कि सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं की बबार्दी इसलिए की जा रही है, क्योंकि सरकारें जान बूझ कर ऐसे हालात पैदा कर रही हैं जिनसे सार्वजनिक क्षेत्र के स्कूल, कॉलेज, अस्पताल और उद्योग या तो नष्ट हो रहे हैं या उन्हें बेचा या बंद किया जा रहा है।
जबकि ये सरकारी संस्थान ही गरीब जनता की आखिरी उम्मीद हैं इसे कोविड के दौरान अनुभव किया जा चुका है। लेकिन सरकार में बैठे लोगों का हित इसी बात में है कि सार्वजनिक क्षेत्र को बर्बाद करें ताकि निजी क्षेत्र को उन्नति करने का अवसर मिले।स्पष्ट ही जब एक बार सार्वजनिक क्षेत्र बरबाद हो जायें तो लोगों के लिए निजी क्षेत्र में जाने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं बचता। महंगा इलाज, महंगी शिक्षा में ही उनकी उन्नति है लेकिन गरीब जनता के लिए कोई रास्ता नहीं बचता।
इसलिए जो विकल्प फिल्म में सुझाया गया है, वह भले ही कितना ही अविश्वसनीय लगे लेकिन सच्चाई यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूत करने और उसे आगे बढ़ाने में ही देश की उन्नति मुमकिन है। इसी तरह किसानों को कर्ज लेने की नौबत ही न आए और अगर फसलों की बर्बादी के कारण उनके लिए कर्ज चुकाना मुमकिन न हो तो उनका भी कर्ज माफ किया जाना चाहिए। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इस फिल्म का राजनीतिक स्वर फिल्म के काफी बड़े दायरे में मौजूद है और शायद इस बात को पहचानने में भी दर्शक गलती नहीं करते कि इस फिल्म में बहुत कुछ ऐसा है जिसे नरेंद्र मोदी की सरकार का प्रतिपक्ष कहा जा सकता है।