दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा प्रकरण में कुछ सुलगते सवाल सामने आए हैं। वे हमारी व्यवस्था और प्रशासनिक चरित्र को बेनकाब करते हैं। इस प्रकरण में देश के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना और दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डीके उपाध्याय भी प्रमुख किरदार हैं, जिन्हें 15 मार्च को ही आगजनी और नकदी नोटों से भरी बोरियों का खुलासा कर दिया गया था। सवाल है कि 21 मार्च को खबर छपने तक वे खामोश क्यों रहे? उन्होंने क्या संज्ञान लिए? न्यायमूर्तियों के किसी फैसले या न्यायपालिका की मैं अवमानना नहीं कर रहा हूं, न ही उनके निर्णयों पर कोई सवाल खड़े कर रहा हूं, लेकिन वे भी देश के प्रति जवाबदेह हैं। मैं तो स्थितिजन्य सवालों को उठा रहा हूं। अंतत: सर्वोच्च अदालत को उस वीडियो रपट को देश के सामने सार्वजनिक करना ही पड़ा, जो दिल्ली पुलिस ने तैयार की थी और दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को सौंपी थी, लेकिन तमाम तस्वीरें, वीडियो और आवास के बाहर मलबे में जले हुए 500 रुपए के नोट आदि अर्धसत्य हैं। उनके जरिए ही पूर्ण सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता और किसी को अपराधी भी साबित नहीं किया जा सकता।
सवाल है कि 9 दिन के बाद भी जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास के बाहर मलबा और जले हुए नोट क्यों मौजूद हैं? क्या वे साक्ष्य हैं? तो उन्हें सुरक्षित तौर पर घेरेबंदी में क्यों नहीं रखा गया है? आग लगे कमरे से बाहर तक मलबा कौन लाया और किसने आदेश दिए? नकदी नोट 5-6 बोरियों में भरे थे, वे कहां गायब हो गए? पुलिस ने आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई और अन्य संबद्ध एजेंसियों को इतने नकदी नोटों की सूचना क्यों नहीं दी? ‘रिकवरी मेमो’ सामने नहीं आया है!
सवाल उठाया जा रहा है कि कड़ी सुरक्षा में रहने वाले सरकारी आवास में क्या बिना जानकारी के पैसा रखा जा सकता है? तो क्या किन्हीं आवासीय कर्मचारियों या बाहरी लोगों ने ऐसा कृत्य किया? यदि यह वास्तव में जज को फंसाने की सजिश थी, तो उसमें कौन लोग शामिल थे? निश्चित रूप से ऐसे सवालों का जवाब मिलने में विलंब से अविश्वास की धुंध और गहरी होगी। सबसे अहम सवाल तो यह है कि पुलिस ने प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज क्यों नहीं की? जस्टिस वर्मा की संवैधानिक सुरक्षा के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज नहीं करनी थी। प्राथमिकी अग्निकांड, घटनाक्रम और बरामद नकदी नोटों को लेकर दर्ज की जानी चाहिए थी। वैसे भी जज के सरकारी घर से अधजले नोट मिले हैं। बेहिसाब नकदी रखना न्यायिक काम भी नहीं है। ऐसे में जज की इम्युनिटी (संवैधानिक सुरक्षा) कैसे खंडित होती?
इस संदर्भ में प्रधान न्यायाधीश अथवा मुख्य न्यायाधीश की अनुमति लेना भी अनिवार्य नहीं था। सेवामुक्त न्यायाधीश जस्टिस एसएन ढींगरा का सवाल है कि यदि जज के आवास से कोकीन या अन्य आपत्तिजनक पदार्थ बरामद होते, तो क्या पुलिस तब भी प्राथमिकी दर्ज नहीं करती? पुलिस आयुक्त संजय अरोड़ा और फायर ब्रिगेड प्रमुख अतुल गर्ग इतने कमजोर किरदार नहीं हैं कि वे किसी ह्यअति शक्तिशालीह्ण किरदार के दबाव में आकर कार्रवाई करते! इस मामले में प्राथमिकी सबसे पहली और बुनियादी कार्रवाई थी।
बहरहाल, शीर्ष अदालत ने विवादों में घिरे न्यायाधीश के प्रति सख्त रवैया अपनाते हुए उन्हें न्यायिक कामकाज से अलग रखने के निर्देश दिए हैं। सार्वजनिक विमर्श में उनका तबादला इलाहाबाद हाईकोर्ट करने की चर्चा भी रही। इस मामले में शीर्ष अदालत ने जिस तरह तत्परता से कार्रवाई की और पारदर्शिता बनाए रखने के लिए कदम उठाए, उसे सराहा गया। यहां तक कि दिल्ली हाईकोर्ट ने जस्टिस वर्मा के घटनाक्रम से जुड़े कॉल्स सुरक्षित रखने को कहा है। यहां तक कि अदालत ने पिछले छह माह के कॉल रिकॉर्ड भी पुलिस से मांगे हैं। वहीं दूसरी ओर शीर्ष अदालत ने पुलिस द्वारा रिकॉर्ड वीडियो, तस्वीरें व शुरूआती जांच रिपोर्ट भी सार्वजनिक विमर्श में ला दी है।
ऐसा आभास होता है कि 14-21 मार्च के दरमियान न्यायाधीश के आवास में आग लगने और नोटों से भरी बोरियां बरामद होने के प्रकरण में कुछ संवेदनशील छेड़छाड़ की गई है, ताकि साक्ष्य मिटाए जा सकें। गहन जांच जरूरी है। निस्संदेह, न्यायपालिका में जनता के विश्वास को कम करने वाले किसी भी विवाद की गहरी जांच होनी चाहिए। साथ यह भी जरूरी है कि जांच निर्धारित समय सीमा में अनिवार्य रूप से पूरी हो। बेशक जस्टिस वर्मा को अपना पक्ष रखने का पूरा मौका दिया जाना चाहिए और सभी संबंधित व्यक्तियों से पूरी पूछताछ कर साक्ष्य जुटाया जाना चाहिए। मगर इसे अनावश्यक देर का कारण नहीं बनने दिया जाना चाहिए। इसका अहसास तो माननीय न्यायाधीशों को भी होगा कि इस घटना से न्यायपालिका में लोगों के भरोसे पर नए सिरे से प्रहार हुआ है। न्यायपालिका में भ्रष्टाचार है, ऐसी सोच रखने वाले लोगों की संख्या पहले ही काफी हो चुकी है। उसके अलावा वर्तमान सत्ताधारी पार्टी के हितों से जुड़े मसलों पर न्यायपालिका के रुख ने भी समाज के एक बड़े हिस्से में उद्विग्नता पैदा कर रखी है। रिटायरमेंट के तुरंत बाद जजों के लाभ का पद स्वीकार करने की बढ़ी प्रवृत्ति से पद पर रहते हुए उनके दिए न्यायिक फैसलों के पीछे के प्रेरक कारणों पर अटकलों का बाजार गर्म कर रखा है। इस पृष्ठभूमि में न्यायपालिका में कथित रिश्वतखोरी का संदेह अगर और गहरा हुआ, तो उसका कितना हानिकारक असर इस संस्था की विश्वसनीयता पर पड़ेगा, इसकी चिंता तमाम लोगों को करनी चाहिए।
निश्चित रूप से न्याय की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति से बेदाग होने की उम्मीद की जाती है। सोशल मीडिया पर इस प्रकरण से जुड़ी सामग्री के वायरल होने के बाद लोग उम्मीद कर रहे हैं कि इस मामले में निष्पक्ष जांच होगी, ताकि सच सामने आ सके। यदि कोई साजिश है तो उसका खुलासा हो और यदि नहीं तो न्यायिक व्यवस्था की शुचिता अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये सख्त कार्रवाई की जाए। यह एक हकीकत है कि अन्याय के विरुद्ध उम्मीद की अंतिम किरण लेकर व्यक्ति न्याय की चौखट पर दस्तक देता है। यदि ऐसे प्रकरण सच साबित होते हैं तो उसके विश्वास को धक्का लगेगा।
निस्संदेह, न्याय व्यवस्था का सवालों के घेरे में आना एक गंभीर मुद्दा है। इस घटनाक्रम से न्याय व्यवस्था पर छींटे आए हैं, उन्हें साफ करना जरूरी है। आम लोगों को विश्वास है कि शीर्ष अदालत द्वारा गठित जांच समिति सच को सामने लाने में पारदर्शी व निष्पक्ष कार्रवाई करेगी। लोकतंत्र के आधारभूत स्तंभ की शुचिता बनाये रखने के लिए यह बेहद जरूरी भी है। निस्संदेह, न्यायपालिका का लक्ष्य सिर्फ संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करना ही नहीं है बल्कि सार्वजनिक जीवन में निष्पक्षता, ईमानदारी और विश्वसनीयता के मूल्यों के आदर्शों का प्रतिनिधित्व करना भी है। असल में न्यायिक व्यवस्था के प्रति आम आदमी की विश्वसनीयता बनाये रखने में सबसे अहम जिम्मेदारी स्वयं न्यायपालिका का ही है। अगर यह विश्वसनीयता भंग हुई तो फिर देश के तमाम दूसरी व्यवस्थाएं भी चरमरा जाएंगी।