Saturday, December 28, 2024
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कागज की कहानी

रश्मि अग्रवाल
रश्मि अग्रवाल 

202 ईसापूर्व हान राजवंश के समय में कागज का अविष्कार चीन के निवासी के द्वारा हुआ। भारत में कागज के निर्माण और उपयोग के कई प्रमाण आए, जिनसे यह प्रमाणित होता है कि चीन के बाद सर्वप्रथम कागज का प्रयोग भारत में हुआ। इस खोज के बादआज पूरा विश्व इसका प्रयोग कर रहा है। वैश्विक, आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था में कागज के योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती क्योंकि संपूर्ण कार्य प्रणाली का पूर्ण हो पाना कागज के बिना संभव नहीं रहा है। शिक्षा का क्षेत्र, व्यापार, बैंक, उद्योग, सरकारी व गैर सरकारी, संस्थानों, प्रतिष्ठानों में कागज की महत्वपूर्ण भूमिका और बहुधा प्रयोग किया जाता है। विश्व की लगभग सभी प्रक्रियाओं का प्रारंभ कागज से होता है। देखा जाए कागज व्यक्ति व समाज के विकास में ‘आदि और अंत’ दोनों प्रकार की भूमिका का निर्वहन करते हुए मानवीय सभ्यता का विकास व उन्नति से संबंध रखता है।

आजकल कागज बनाने के लिए उक्त वस्तुओं का उपयोग मुख्य रूप से होता है, चिथड़े, कागज की रद्दी, बांस, विभिन्न पेड़ों की लकड़ी जैसे स्पूस और चीड़ तथा विविध घासें जैसे सबई और एस्पार्टो। भारत में बांस और सबई घास का उपयोग कागज के निर्माण में विशेष रूप से होता है। वैसे कोई भी पौधा या पदार्थ, जिसमें सैल्यूलोज अच्छी मात्रा में हो, कागज बनाने के लिए उपयुक्त हो सकता है। जबकि रूई शुद्ध सैल्यूलोज है, किंतु महंगी होने के कारण, कागज के निर्माण में इसका प्रयोग नहीं किया जाता, यह मुख्य रूप से कपड़ा निर्माण में प्रयोग की जाती है। वहीं कपड़ों के चिथड़ों, कतरन तथा रद्दी में लगभग शत प्रतिशत सैल्यूलोज होता है, अत: इसमें कागज सरलता से और अच्छा बनता है।

चिंतन का विषय यह है कि कागज की अहम भूमिका होने पर भी इसके उत्पादन और उपयोग पर पर्यावरण पर कई प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। पिछले 40 वर्षों में विश्व भर में कागज की खपत में लगभग 400 प्रतिशत की वृद्धि हुई जिसके कारण वनों की कटाई यानि 35 प्रतिशत की वृद्धि आंकी गई है, जो कागज बनाने में प्रयोग होते हैं। अधिकतर कागज कंपनियों ने वनों के पुन: वन्य बनाने में योगदान देकर पौधे रोपित किए हैं फिर भी कोई इतना गंभीर कहां है कि कागज के प्रयोग व वनों का दोहन का परस्पर मूल्यांकन करता हो। आज दूर संचार की सुविधाओं का कैसा व कितना भी जाल बिछा हो फिर भी कागज की खपत कम नहीं आंकी जा सकती और न ही बरबादी की।

दूसरे पहलू पर विचार करें तो कागज को सफेद यानि (ब्लीच) करने के साधारण तरीके पर्यावरण में अधिक क्लोरीन सहित रसायन छोड़ते हैं, जो अत्यधिक विषैले होने के कारण मानव के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। पर्यावरण के लिए हम क्या कर सकते कि कागज का निर्माण बना रहे व प्रदूषण कम से कम हो? इसके लिए सिर्फ 5 जून विश्व पर्यावरण दिवस ही क्यों? प्रत्येक दिन अपनी आदतों में सुधार करते चलें जैसे-घर में उपयोग आने वाले कचरे पर ध्यान दें, इनमें से वो कचरा कबाड़ी वाले को दें, क्योंकि वहां से पुराने सामान रिसायकल सैंटर तक पहुंचते हैं और इन्हीं से उपयोग में आने वाले नए सामान तैयार होते हैं। बिजली पर ध्यान दें, जहां प्राकृतिक प्रकाश आ सकता है, उसका उपयोग करें। एक पौधा लगा कर उसे बच्चे की तरह पालने-पोसने की जिम्मेदारी लें और सूची बनाकर देखें कि एक माह में किन आदतों को बदलकर पर्यावरण को सुधार सकते हैं, ताकि इनसे निर्मित होने वाली चीजें हमें उपलब्ध होती रहें, धरती निखरती रहे और कागज की उपलब्धता निरंतर बनी रहे, भले ही आगे चलकर परिवर्तन हो जाएं, लेकिन आज भी लोग कागज के महत्व को समझते हुए कापियों में लिखना व एग्जाम देना पसंद करते क्योंकि दूर संचार के सुगम साधन भारत के प्रत्येक नागरिक के पास हों, ऐसा नहीं है, विद्युत व्यवस्था ही पूरी नहीं पड़ती, ऐसे में कागज ही स्मरण आता है।

वस्तुत: दिन -प्रतिदिन ऐसी महत्वपूर्ण वस्तु ‘कागज’ जिससे सामना होता हो और पढ़कर स्वयं गौरवान्वित होते हों, वो प्रात:काल का समाचार पत्र धर्म पुराण, स्कूल, कॉलेज का ज्ञान, न्यायालयों का फरमान और सबसे बड़ी धन-सम्पदा का रूप-स्वरूप। अत: प्रयोग किए गए कागज को रिसायकल करने की कला से ही पर्यावरण सुरक्षित एवं कागज की निरंतरता बनी रह सकती है।

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पेपर शब्द की उत्पत्ति

– मुकुल श्रीवास्तव

पत्र, पत्रिकाओं, पुस्तकों, अखबार, कापियों, कैलेंडरों, पैकिंग के डिब्बों आदि अनेक वस्तुओं के निर्माण में कागज का ही उपयोग किया जाता है। कागज आज हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। विभिन्न सामग्री के निर्माण में विभिन्न किस्मों के कागज का प्रयोग होता है।

कागज को अंग्रेजी में पेपर कहा जाता है। पेपर शब्द की उत्पत्ति फ्रांसीसी शब्द ‘पेपियर’ और ग्रीक शब्द ‘पेपाइरस’ से हुई है। इतिहासविज्ञों का मानना है कि मनुष्य में कला का विकास लगभग तीस हजार वर्ष पूर्व हुआ। इस समय प्रागैतिहासिक मनुष्य ने गुफाओं में प्रस्तरों पर अपने सामाजिक जीवन का चित्रण शुरू किया और फिर जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता गया मानव ने अपनी भाषा और चित्र लिपि का आविष्कार कर लिया तथा उसे लिखने की आवश्यकता महसूस होने लगी। इसका कारण यह था कि चौथी सहस्राब्दी ईसा पूर्व तक मनुष्य का ज्ञान इतना बढ़ गया था कि सभी कुछ याद रखना और मौखिक रूप से दूसरों को बता पाना अब संभव नहीं था। लेखन कला या लिपि का जन्म मिस्र में राज्य की उत्पत्ति के साथ हुआ।

मिस्र में लेखन के लिए बहुत अच्छी सामग्री उपलब्ध थी। वहां पेपाइरस नाम की चार-पांच मीटर ऊंची घास उगा करती थी। इसके तनों को काटकर पतली-पतली परतें निकाल लेते थे और उन्हें आपस में चिपका कर कागज के पन्ने जैसा बना लेते थे। अब इस पन्ने पर नरकुल की कलम और स्याही से लिखा जाता था। अगर पन्ना पूरा नहीं पड़ता तो उस पर नीचे एक और पन्नी चिपका लिया जाता था। इस तरह एक लम्बी पट्टी बन जाती थी। इन पन्नों को पेपाइरस ही कहा जाता था।


फीचर डेस्क Dainik Janwani

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