गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने के बाद शिष्य का विदा लेने का समय आया। वह गुरु के पास आज्ञा लेने गया। गुरु ने कहा, ‘वत्स! यहां रहकर तुमने शास्त्रों का समुचित ज्ञान प्राप्त कर लिया। किंतु जीवन में उपयोगी कुछ पाठ अभी बाकी हैं। तुम मेरे साथ आओ।’ शिष्य गुरु के साथ चल पड़ा। गुरु उसे जंगल से दूर एक बस्ती में ले गया। वहां बस्ती के निकट ही एक खेत के पास दोनों खड़े हो गए। खेत में एक किसान क्यारियां बनाकर उसमें पौधों को पानी दे रहा था। गुरु और शिष्य किसान की हर क्रिया को बड़े गौर से देखते रहे। आश्चर्य की बात कि किसान ने एक बार भी आंख उठाकर उन दोनों की ओर नहीं देखा। गुरु और शिष्य ने अब बस्ती का रास्ता लिया। वहां पहुंचकर देखा, एक लुहार भट्टी में कोयला डाले उसमें लोहे को लाल कर रहा था। धौंकनी चलाना, लोहे को उलटना-पुलटना, यह सब कार्य उसके द्वारा यंत्रवत हो रहे थे। लुहार अपने कार्य में इतना दत्तचित्त था कि उसने गुरु और शिष्य की तरफ देखा तक नहीं। वह तप्त लौहखंड पर हथौड़े की चोट करता रहा। उसे एक निश्चित आकार देता रहा। अपने काम के अतिरिक्त उसे जैसे दुनिया की कोई परवाह ही नहीं थी। गुरुजी शिष्य को साथ लेकर वापस आश्रम आ गए। शिष्य को बोध देते हुए कहा, ‘वत्स! मेरे पास रहकर तुमने शास्त्रों का जो अध्ययन किया, वह तुम्हारे जीवन में काम आएगा, किंतु उससे भी ज्यादा काम आएगी, तुम्हारी एकाग्रता और तुम्हारा मनोयोग।’ सच भी है ज्ञान का होना एक बात है, लेकिन एकाग्र होकर अपने हुनर से कार्य करते रहना ही सफलता का मंत्र है।