Tuesday, March 19, 2024
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किसान को पुराण पुरुष बनाने की त्रासद कथा!

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सुधांशु गुप्त
सुधांशु गुप्त
तेलुगु के प्रतिष्ठित उपन्यासकारों में केशव रेड्डी की गिनती होती है। संयोग से इस समय पूरे देश में किसान एक बार फिर चर्चा में हैं। यही वजह रही कि केशव रेड्डी के उपन्यास भू-देवता  (मूल लेखक केशव रेड्डी, अनुवाद जेएल रेड्डी और प्रकाशक राजकमल प्रकाशन) को पढ़ने का अवसर मिला। भू-देवता 1993 में रचा गया लेकिन इसका कथाकाल 1950 का है। भू-देवता में लेखक ने 70 साल पहले की उन स्थितियों का चित्रण किया है जब अकाल रोज ही तांडव किया करता था। लेकिन 70साल बाद भी किसानों की स्थिति  में कोई बदलाव नहीं आया है। केशव रेड्डी खुद करते हैं, देश की रीढ़ की हड्डी है किसान और किसान की रीढ़ की हड्डी है, उसकी जमीन। जमीन और किसान का वही संबंध होता है, जो मनुष्य और उसके प्राण का होता है। भूमिरहित किसान का जीवन कटी पतंग के समान होता है। फसल हाथ में आने तक प्राकृतिक शक्तियों से निरंतर संघर्षरत किसान को हिम्मत देने वाली तो उसकी जमीन ही है। तो भू-देवता एक ऐसे किसान की कथा है जिसने अपने जमीन गंवा दी है। लेकिन यहां एक बात और बताना जरूरी है कि यह उपन्यास उन लोगों के लिए कतई नहीं है जो आनन्द संतुष्टि और मनोरंजन के लिए साहित्य पढ़ते हैं। केशव रेड्डी का भू-देवता हमें झकझोर कर रख देता है, इसे पढ़कर एक झटका सा लगता है। आप यह सोचने को बाध्य हो जाते हैं कि शोषण कितने रूपों में होता है, और वह कितने प्रकार से रूपांतरित होता रहता है।
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महज 82 पेज के इस छोटे से उपन्यास का फलक कितना बड़ा है, यह उपन्यास की कथा जानने के बाद पता चलता है। ओंटिल्लू नामक एक गांव में बक्कि रेड्डी नाम का एक किसान रहता था। गांव  में अकाल प़ड़ने और कुएं से पानी निकालने की कोशिशों के चलते बक्कि रेड्डी को कर्जा लेना पड़ा, लेकिन कुएं से पानी नहीं निकला। लिहाजा बक्कि रेड्डो को अपनी जमीन बेचनी पड़ी। जमीन के बिना बक्कि रेड्डी को लगा की वह अपनी पहचान खो चुका है। वह सोचता है कि अब वह कहां जाए। चौपाल में जाकर वह किसानों के साथ मौसम की बात कर सकता है। लेकिन वह सोचता है कि अब वह किसान नहीं है। उसके पास जमीन नहीं है। अब तालाब भरे या सूखकर बबूल हो जाएं उसे क्या फर्क पड़ता है। वह फिर सोचता है कि गंगि रेड्डे के मकान के चबूतरे पर बैठकर वह खेती के कामों को लेकर बात कर सकता है, वह बात कर सकता है कि इस मौके पर किस किस्म का धान बोना चाहिए, फलाने किस्म की डंडियां कितनी लंबी हो जाती है, उसके दूधिया दाने को पकने में कितने हफ़्ते लगेंगे। फिर उसे ध्यान आता है कि वह अब किसान नहीं है। बक्कि रेड्डी तमाम जगहों पर जाने की बात सोचता है लेकिन किसी भी जगह उसका जाना खेती और जमीन से ही जुड़ा है। वह कहीं नहीं जा पाता। केशव रेड्डी दिखाते हैं कि जमीन चले जाने पर किसान के सभी रिश्ते टूट जाते हैं। बक्कि रेड्डी के भीतर निर्रथकताबोध गहरा होता जाता है। धीरे-धीरे उसकी मानसिक स्थिति खराब होने लगती है। उसे यह बात भी सताती रहती है कि उसने पिता से वादा किया था कि वह अपनी जमीन की हिफाजत उसी तरह करेगा जैसे पलक आंख की हिफाजत करती है। लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाया। वह घर आने वालों से भी कहता है, मैं रेड्डी जात का कहां से हूं…एक सेंट (एक एकड़ का सौवां भाग) भी मेरे पास नहीं है। बक्कि रेड्डी के भीतर पागलपन के लक्ष्ण दिखाई पड़ने लगते हैं। यह बात पूरे गांव में फैल जाती है कि बक्कि रेड्डी का दिमाग चल गया है। एक दिन नम्बरदार बक्कि रेड्डी को देखने आता है। बक्कि रेड्डी उससे कहता है कि अब उसका चोला छूटने वाला है, तुम्हें एक वादा करना होगा कि मुझे मेरी जमीन में उस पेड़ के नीचे गाड़ देना। नम्बरदार उससे ऐसा ही करने का वादा करता है। एक दिन विक्षिप्तता अवस्था में बक्कि रेड्डी अपने खेतों पर पहुंच जाता है। उस दिन बारिश बहुत तेज हो रही है। खेत पर पहुंचकर वह अपनी जमीन पर नजर डालता है…चौदह एकड़ जमीन…आठ चकों में बंटी हुई…छह चक बड़े और दो छोटे। अगले दिन बक्कि रेड्डी अपने ही खेत में मृत मिलता है। नम्बरदार उसे वादे के अनुसार उसके खेत में ही पेड़ के पास दफ़्ना देता है।
बक्कि रेड्डी की मौत को छह महीने बीत जाते हैं। छह महीने पहले जो तालाब सूखकर दरारों से भर गया था, अब वह पानी से लबालब है। लेकिन कालचक्र की गति में गांव के लोगों की स्मृतियों से बक्कि रेड्डी भी पूरी तरह हट जाता लेकिन ऐसा नहीं होता। बक्कि रेड्डी इस गांव के इतिहास में एक मील का पत्थर बन जाता है। कई दशक बीत जाते हैं, अब ग्रामवासियों का विश्वास है कि बक्कि रेड्ड़ी नाम का एक साठ साल का किसान अपनी चौदह एकड़ जमीन में खेती करता था। उसकी जम़ीम कुर्की में निकल गई और उसी जमीन को जोतते जोतते उसकी मृत्यु हो गई। वह जमीन किसी दूसरे के हाथ नहीं बेची गई। वह जमीन क्रमश: एक छोटे से जंगल में बदलकर अब ‘बक्कि रेड्डी का जंगल’ के नाम से जानी जाने लगी। गांव में प्रवेश करने वाला हर आदमी उस जंगल के निकट पहुंचते ही अनायास अपने सिर से पगड़ी हटा लेता है। अनायास ही उसका सिर झुक जाता है।
भू-देवता एक किसान  की मृत्यु और उसके पुनरुत्थान की मार्मिक गाथा है। उस किसान के प्रयत्न से लेकर उसकी विफलता तक की, असुरक्षा से उन्माद तक की और उन्माद से मृत्यु तक की यात्रा इसमें दर्ज है। केशव रेड्डी ने प्राणत्याग की विधि द्वारा  बक्कि रेड्डी को न केवल अमर बनाया है बल्कि एक पुराण पुरुष बना दिया है। वह अपने ही गांव में प्रचलित एक स्थलपुराण का नायक बन जाता है। जमीन और किसान के रिश्ते को जिस खूबसूरती से केशव रेड्डी ने चित्रित किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। प्रेमचंद (कार्यकाल 1880-1936) और उड़िया भाषा के फकीर मोहन सेनापति (कार्यकाल 1843-1918) द्वारा चित्रित किसानों की दुनिया भी कहीं न कहीं उनके शोषण पर समाप्त हो जाती है। लेकिन केशव रेड्डी किसान का कायाकल्प करके उसे पुराण पुरुष बनाने तक अपनी कथा को ले जाते हैं, यही इस उपन्यास की ताकत है।
फीचर डेस्क Dainik Janwani
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