Thursday, June 12, 2025
- Advertisement -

कुछ तो उस पर भी छोड़ दें

Sanskar 8

ओम प्रकाश बजाज

हमारी अधिकांश दुष्चिंताओं, कुण्ठाओं, भागदौड़, उठापटक का मुख्य कारण न्याय तुला अपने हाथ में ले लेना है। मजे की बात यह है कि हम चाहते तो न्याय हैं परन्तु फैसला हर हालत में अपने पक्ष में ही चाहते हैं। हर व्यक्ति हर काम के लिए दक्ष तो नहीं हो सकता। न्याय का काम उसी के हवाले कर देना चाहिए जो इस कार्य में निपुण हो। भला ईश्वर से बड़ा न्यायशील और कौन हो सकता है।

हर धर्म में उसे सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी माना जाता है। यह भी सर्वमान्य है कि उस का न्याय बावन तोला, पाव रत्ती पूरा और पक्का होता है। उस के यहां दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है। उसके न्याय की निष्पक्षता पर भी कभी कोई उंगली नहीं उठाई जाती। यह मान्यता भी है कि उसके यहां राई रत्ती हर बात का, हर काम का, अच्छे बुरे सब का पूरा-पूरा लेखा जोखा रखा जाता है। फिर भी हम उसके न्याय की अपेक्षा और प्रतीक्षा न कर के स्वयं ही अपने साथ हुए वास्तविक अथवा कल्पित अन्याय का प्रतिकार यहीं और अभी करने में जुट जाते हैं। इस हेतु स्वयं को एक ऐसे दुष्चक्र में डाल लेते हैं जिस से जीवन भर निकल पाना कठिन हो जाता है।

सामान्य सामाजिक एवं न्यायिक मयार्दा के अनुसार भी कानून अपने हाथ में लेना अवांछनीय ही नहीं, दण्डनीय भी माना गया है। न्याय का भार निष्पक्ष हाथों में ही होना चाहिए। वादी अथवा प्रतिवादी स्वयं ही भला न्याय कैसे कर
सकते हैं। हमारे एक पड़ोसी नित्य प्रात: उच्च स्वर में गाते हैं:

है छोड़ दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में

है जीत तुम्हारे हाथों में और हार तुम्हारे हाथों में

किंतु जरा-जरा सी बात पर अक्सर पास पड़ोस वालों से उलझते, झगड़ते, निपट लेने की धमकी देते रहते हैं। वही कथनी और करनी में अन्तर का एक और उदाहरण देखें।

एक परिचित कई महीने बाद मिले। देखा दाढ़ी मूंछ ही नहीं, सिर के बाल भी बढ़ा रखे हैं। अच्छी भली सूरत का सत्यानाश कर रखा है। पता चला कि संकल्प किया है कि जब तक अपने प्रतिद्वंद्वी को जेल नहीं भिजवा लेते, बाल नहीं बनाएंगे। अब साधु बाबा बने घूमते हैं, अपनी सुलगाई आग में दिन रात सुलगते दहकते रहते हैं। न्याय अन्याय का संचालन अपने हाथ में जो ले लिया है।

न्याय अन्याय भी तो सापेक्षिक शब्द हैं। मेरे लिए जो अन्याय है वह दूसरे पक्ष के लिए न्यायपूर्ण है। न्याय अन्याय का फैसला तो न्यायालयों में भी उलटता पलटता जाता है। नीचे की अदालत का फैसला ऊपर की अदालत उलट देती है और ऊंची अदालत उसे फिर पलट देती है। कौन कह सकता है कि सर्वोच्च अदालत का फैसला भी न्यायपूर्ण ही है। सर्वोच्च न्यायालय भी तो स्वयं अपने फैसले बदल देता है। असली न्यायकर्ता तो केवल सर्वज्ञ ईश्वर ही है।

कहावत है कि उसके यहां देर है अंधेर नहीं। देर तो हमारे सांसारिक न्यायालयों में भी कुछ कम नहीं लगती। दादा पड़दादा के चलाए हुए मुकदमों-मामलों की पेशियां पोते-पड़पोते भुगतते रहते हैं। इन दुनियावी अदालतों में तो अंधेर होने की भी संभावना रहती है। उस के यहां कम से कम अंधेर होने की बात तो नहीं ही कही जाती, उसके न्याय के उदाहरण तो अपने आसपास स्पष्ट देखने सुनने में आते ही रहते हैं।

मात्र सोच कर देखिए कि यदि हम अपने साथ घटित वास्तविक या तथाकथित अन्याय का प्रतिकार उसके हाथों में सौंप दें तो हमारा जीवन कितना शान्त, सुखमय व तनावरहित हो जाएगा। जो ऊर्जा और समय हम बदला लेने, हिसाब चुकाने, सबक सिखाने की मानसिक ऊहापोह में व्यर्थ गंवाते हैं। वह हम सकारात्मक, रचनात्मक, उपयोगी कामों में व्यय करके अपने जीवन को अधिक सार्थक बना सकेंगे।

हमारी अधिकांश दुष्चिंताओं, कुण्ठाओं, भागदौड़, उठापटक का मुख्य कारण न्याय तुला अपने हाथ में ले लेना है। मजे की बात यह है कि हम चाहते तो न्याय हैं परन्तु फैसला हर हालत में अपने पक्ष में ही चाहते हैं। हर व्यक्ति हर काम के लिए दक्ष तो नहीं हो सकता। न्याय का काम उसी के हवाले कर देना चाहिए जो इस कार्य में निपुण हो।

भला ईश्वर से बड़ा न्यायशील और कौन हो सकता है। इसी मुद्दे का ही एक अन्य पहलू। जरा सी कोई बात हो जाए तो हम घबरा जाते हैं। हमारे हाथ पैर फूल जाते हैं। हम आशंकाओं कुशंकाओं से घिर जाते हैं। नितांत असुरक्षित महसूस करने लगते हैं, अपना आत्मविश्वास खो बैठते हैं, विचलित हो जाते हैं। यह कैसी हमारी निष्ठा है, कैसी आस्था है। ईश्वर पर हमारा कैसा विश्वास है। क्यों हम स्वयं को उसके अर्पण करके सब कुछ उस पर नहीं छोड़ देते। एक बार ऐसा करके तो देखिए। विश्वास कीजिए अपनी आंखों से चमत्कार होता देखेंगे।

janwani address 6

What’s your Reaction?
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
+1
0
spot_imgspot_img

Subscribe

Related articles

spot_imgspot_img