Saturday, July 27, 2024
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इस दौर में दम तोड़तीं मर्यादाएं

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KP MALIKनई पीढ़ी के अधिकतर नेता और अधिकारी अब मर्यादाओं और संस्कारों को बोझ समझने लगे हैं। ऐसे लोगों की वजह से अब मर्यादाएं खत्म सी होने लगी हैं। अगर हम यह कहें कि यह दौर मर्यादाओं की खुदकुशी का है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मर्यादाओं को धनलोलुपता ने आत्महत्या के लिए विवश किया है या फिर न्यायिक और प्रशासनिक तंत्र में काम करते-करते ‘चाटी’ गई ‘चापलूसी’ की ‘चाट’ से बलवती हुई ‘राजनीतिक महत्वाकांक्षा’ ने मर्यादाओं के गले फंदा डाला है? यह फंदा नए और भटके हुए युवाओं के हाथों से, स्तरहीन नेताओं के हाथों से कई तरीकों से डाला जा रहा है। सवाल यह है कि क्यों आज मर्यादाओं के साथ-साथ देश और देश के आम आदमी की गरिमा तार-तार करने पर वो चंद लोग तुले हुए हैं, जो न सिर्फ लालची हैं, बल्कि गलत भी हैं?

इस सवाल का जबाव सर्वोच्च न्यायालय के सर्वोच्च पद पर आसीन रहे अनेक लोगों के राज्यसभा सदस्य और राज्यपाल बनने के उस सफर में ढूंढा जा सकता है, जहां अनगिनत ‘प्रश्नों’ की मार से ‘थका’ हुआ ‘उत्तर’ आज भी आरोपों के कठघरे में खड़ा नजर आता है।

दरअसल, सच बात तो यह है कि आज की भागदौड़ भरी इस आपाधापी वाली जिंदगी में हर कोई बिना मेहनत के आगे निकल जाना चाहता है, और इतने आगे निकल जाना चाहता है कि वह सोचता है कि उसके पास नौकर-चाकर से लेकर हर तरह की लग्जरी लाइफ हो, महल हो, बड़ी-बड़ी गाड़ियां हों, एक अपनी अलग सत्ता हो, जिसके दम पर वो जो चाहे चुटकी बजाते ही कर सके।

लेकिन सवाल यह है कि ये महत्वाकांक्षा लोगों के मन में भर कौन रहा है? दरअसल, ये महत्वाकांक्षा लोगों के मन में वही लोग भर रहे हैं, जो सत्ता और धन के भूखे हैं और गलत तरीके से सारी सुख-सुविधाएं जिन्होंने हासिल की हैं। फिर एक सवाल उठता है कि क्या यह सही है? जाहिर है कि यह कितना भी ठीक दिखे, लेकिन गलत है।

लेकिन वही बात, जो काम बड़े या समाज के आइडियल लोग करते हैं, वही काम ज्यादातर लोग करना चाहते हैं, फिर चाहे वो गलत हो या सही हो। जाहिर सी बात है कि जब उच्च पदों पर बैठे लोगों की महत्वाकांक्षाएं इतनी ज्यादा होंगी कि वो किसी को भी अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, किसी के साथ कुछ भी सही या गलत कर सकते हैं, तो फिर लोगों पर उसका असर तो होगा ही।

महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए यह हाल है कि जिसे जो मिल चुका है, वो उससे आगे पाना चाहता है। अगर कोई एक पद पा चुका है, तो वो उससे बड़ा पद चाहता है और जब वो अपने विभाग के सबसे बड़े पद पर पहुंच जाता है, तो वो उस विभाग से बड़े विभाग में बड़े पद की ओर ललचाई आंखों से देखने लगता है। बाद में उससे निकलकर वो राजनीति का स्वाद भी चखना चाहता है।

विचारक एवं वरिष्ठ पत्रकार चंद्रकेतु बेनीवाल कहते हैं कि आज महत्वाकांक्षाओं के इस कठिन दौर में उस शपथ का कोई महत्व नहीं रहा है, जिसे पद संभालते वक्त बड़े गर्व से बोला जाता है।

जब सर्वोच्च न्यायालय का कोई मुख्य न्यायाधीश या न्यायाधिपति सरकार के हक में ताबड़तोड़ फैसलों के बाद सेवानिवृत्त होते ही उसी सरकार की कृपा से राज्यसभा सदस्य या राज्यपाल बन जाता है, तो आप मान सकते हैं कि वह अपनी आत्मा को बहुत पहले ही चापलूसी के चिमटे से मार चुका है।

उसके लिए मर्यादा या मर्यादा से बंधी परम्पराएं कोई मायने नहीं रखती हैं। बात अपने राजस्थान की। अब उन साहब को ही ले लें, जिन्होंने मुख्य सचिव के ‘हाथी की सवारी’ जैसे अति सम्मानजनक और महत्वपूर्ण पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात ‘गधे की सवारी’ के समतुल्य पद पर सेवाएं देने की इच्छा जतायी और सरकार ने भी अपने ‘आज्ञाकारी महावत’ पर मेहरबान होते हुए उन्हें सहर्ष ‘गधे’ की ‘सवारी’ के ‘समतुल्य’ दायित्व निभाने की आदेशात्मक जिम्मेदारी सौंप दी। आप हैरान और परेशान नहीं हों।

अभी तो ‘राजनीति’ के ‘कीचड़’ में मर्यादाएं सिर्फ ‘फंसी’ हैं। आने वाले कल में अगर ‘राजनीति’ के ‘दलदल’ में धंसी इन्हीं मर्यादाओं की ‘बचाओ-बचाओ’ की शक्ल में चीखें सुनाई दें तो हमें मर्यादाओं के इन बदलते तैवरों पर तनिक भी क्षोभ नहीं होना चाहिए।

मेरठ के सामाजिक चिंतक डीपी सिंह का कहना है कि कानूनी मत के मुताबिक यह गंभीर संज्ञेय अपराध है, जो जमानत के योग्य नहीं है, जिस अपराध की सजा सात वर्ष से अधिक है, उसमें गिरफ्तारी अनिवार्य है विवेचना बाद में। एफआईआर के लिए कोर्ट क्यों आना पड़ा? ये सरकार का विषय है।

दूसरा पुलिस प्रशासन द्वारा एफआईआर न लिखने पर सरकार ने पुलिस के खिलाफ क्या कार्रवाई की और नही की तो क्यों नही की? तीसरा एफआईआर के बाद गिरफ्तारी न होना सरकार की जिम्मेदारी है और गिरफ्तार करना पुलिस का काम है। धरने पर बैठने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ा? क्योकि सरकार ने अपने उत्तदायित्व का निर्वाह नही किया।

इसके अलावा एक सवाल पहलवान बजरंग पूनिया और जंतर-मंतर के धरने पर बैठे अन्य महिला पहलवानों से भी कि आपकी लड़ाई किससे है? केवल बाहूबली, माफिया, दुष्कर्मी बृज भूषण शरण सिहं से अकेले क्यों? जबकि इसके लिए पुलिस और केंद्र सरकार भी दोषी है फिर सरकार का बचाव क्यों? यदि सरकार अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करती तो, न कोर्ट जाना पड़ता न धरना-प्रदर्शन करना पड़ता।

इसलिए इस लड़ाई में अकेले ब्रजभूषण से नहीं है। ये लड़ाई सरकार सहित विपक्ष से भी है। सवाल है कि विपक्ष की भूमिका मात्र समर्थन तक क्यों सीमित है? विपक्षी दल ऐसे मुद्दों पर स्वयं आंदोलन और विरोध क्यों नहीं करते?

सत्ताधारी दल भाजपा में करीब दो दर्जन जाट समाज के सांसद हैं और लगभग तीन दर्जन सांसद इस समाज के सहयोग से बनते हैं, तो वह अपना बयान जारी क्यों नहीं कर रहे हैं? ये तमाम सवाल हैं, जो सत्ताधारी दल में समाज के नाम पर मलाई खा रहे हैं, वो भी कहीं न कहीं इतने ही जिम्मेदार हैं।

बहरहाल, सवाल यह है कि सभी को मलाई क्यों चाहिए, वो भी बिना कोई बड़ा परिश्रम किए, सिर्फ जनता का लीडर बनकर। युवा पीढ़ी को सोचना होगा कि वो किसे समर्थन दे रही है, और क्यों समर्थन दे रही है? युवा पीढ़ी को समझना होगा कि जिंदगी में गलत काम करके सुख-चैन छिन जाता है।

अमीर भी दो रोटी खाता है और गरीब भी दो ही रोटी खाता है, खाने-खाने में फर्क हो सकता है, खाने की कीमत में फर्क हो सकता है, खाने के तरीके में फर्क हो सकता है, लेकिन कोई अमीर सोना नहीं खाता।

लेकिन अगर किसी के संस्कार खत्म हो गए और महत्वाकांक्षाएं बढ़ गईं, तो उसका एक दिन नाश होना तय है। इसलिए संस्कारों को बचाइए और महत्वाकांक्षाएं पालिए, लेकिन अपनी मेहनत के दम पर।


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