स्वार्थ सिद्धि की राजनीति ने नेताओं को इस कदर भ्रष्ट कर दिया है कि अब उन्हें अच्छे और बुरे का फर्क ही नजर नहीं आता। दरअसल पिछले कुछ दशकों से सत्ता में मलाई काटने की प्रवत्ति बढ़ी है और हाल यह है कि सत्ता की मलाई जिसके मुंह एक बार लग जाए, वो उसे दूसरों के हिस्से में नहीं जाने देना चाहता। यही हाल केंद्र में 2014 में आई भाजपा का है, उसकी भूख है कि मिटती ही नहीं, उसके हालात तो ऐसे हैं कि उसकी कहीं पर एक-दो सीटें भी आ जाएं, तो सरकार बना लेती है। हालांकि ये राजनीतिक कूटनीति का खेल है और इस खेल में अब अटल बिहारी बाजपेई की तरह नीति मार्ग पर चलने की परंपरा भाजपा में अब नहीं रही कि एक वोट कम रह गया, तो सत्ता चली गई। अब आज की भाजपा, जिसके सर्वेसर्वा नरेंद्र मोदी हैं, और रणनीति बनाने वाले और पार्टी के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह हैं, जो एक सीट आने पर भी सरकार बनाने की सोचने वालों में से हैं।
बहरहाल, करीब 40 साल के बाद देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में सभी लोकसभा की 80 सीटों पर जीत के साथ-साथ भाजपा तीसरी बार 2024 में केंद्र की सत्ता में कब्जा बरकरार रखने के लिए जबरदस्त तैयारी कर रही है। ऐसा लगता है कि पिछले करीब तीन-चार महीने से 2024 के लोसभा चुनाव जीतने की तैयारी में लगी हुई है। भाजपा से टक्कर लेने की स्थिति में आज भी विपक्ष में कहीं कोई खड़ा दिखाई नहीं देता है? क्या विपक्ष वास्तव में इस स्थिति में है कि वह सत्तारूढ़ भाजपा के साम-दाम-दंड-भेद और तमाम सियासी हथकंडों और पैंतरेबाजी का सामना कर सके? क्योंकि ऐसे तमाम कारक और कारण हैं, जो भाजपा को अपने लक्ष्य को साधने और चुनाव में जीत हासिल करने के लिए उसको अगली पंक्ति में खड़ा करने में सहायक सिद्ध होते हैं?
दरअसल भाजपा के हर छोटा बड़ा चुनाव जीतने का एक बड़ा कारक यह भी है कि पार्टी प्रखर राष्ट्रवाद और अपने एजेंडे और चुनाव में प्रचार-प्रसार पूरी ताकत से करती है। पार्टी अपने तमाम संबंधित अन्य संगठनों के संसाधनों का भरपूर प्रयोग करते हैं। भाजपा और संघ के पास जमीन से जुडे कार्यकर्ताओं की लंबी श्रखंला होना और उनका सतत प्रवाह जो संघ के स्वयंसेवकों के रूप में पूरी तत्परता और लगनशीलता से दूरगामी और तत्कालिक तय एजेंडों पर समर्पित भाव से लगे रहने के संकल्प के साथ पूरी टीम भावना से लक्ष्य भेदने को लगे रहना है। पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की एक खास आदत यह है कि वे सभी केंद्रीय नेतृत्व के आदेश का तत्काल पालन करते हैं, उन्हें वहां किंतु-परंतु करने की न हो परमीशन है और न ही वे आदतन ही ऐसा करते हैं।
उन्हें ये अच्छी तरह मालूम है कि उनकी सरकार रहेगी, तो उन्हें किसी भी तरह की दिक्कत नहीं होने वाली। दूसरी बात यह है कि भाजपा के नेता हर हाल में अपने चुनावी और प्रचार-प्रसार के टारगेट को लेकर चलते हैं और जहां भी चुनाव होने को होते हैं, वहीं डेरा डाल लेते हैं और तब तक डटे रहते हैं, जब तक कि उस जगह वोटिंग होकर चुनावी परिणाम सामने नहीं आ जाते। सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं को, यहां तक कि केंद्रीय मंत्रियों तक को जो भी जिम्मेदारी मिलती है, वे उसे भली-भांति निभाते हैं। वे हर मोर्चे पर अंत तक डटे रहते हैं, चाहे वो वोटरों को लुभाने, समझाने या अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाने का मामला हो या फिर चाहे विपक्ष को घेरने के लिए कोई मुद्दा हो।
लेकिन वहीं दूसरी ओर विपक्षी पार्टियों में कई ऐसी कमियां हैं, जिनके चलते उन्हें किसी भी चुनाव में भाजपा का मुकाबला करना मुश्किल हो जाता है। पहली बात तो यह है कि विपक्षी पार्टियों का असंगठित और लक्ष्यहीन होना उनके लिए भारी पड़ता है। दूसरी बात यह है कि विपक्षी पार्टियां में आपस में इतने मतभेद हैं कि उन्हें आपस में एकजुट करना ही काफी मुश्किल काम है। फिर किसी भी विपक्षी पार्टी में जमीनी कार्यकर्ताओं की कमी है। जमीनी कार्यकर्ताओं के न होने और जो कार्यकर्ता हैं, उनके साथ सीधे संबंध न होने से विपक्षी पार्टियों को मुश्किलें आ रही हैं। विपक्षी दलों के पास जो सबसे बड़ी कमी है, वो ये है कि वे मोदी सरकार की नाकामियों को जनता के बीच उतने साक्ष्यों के साथ जोरदार तरीके से नहीं रख पातीं।
विपक्षी पार्टियों के कार्यकर्ताओं और नेताओं में मुद्दे पैदा करने की कला का अभाव है, और जो मुद्दे हैं, उन मौकों को भुनाने की कला को भी वो नहीं समझते। साथ ही विपक्षी पार्टियों के पास सोशल मीडिया पर उतनी एक्टिविटी नहीं है, जितनी की भारतीय जनता पार्टी के पास है। मुद्दों को समय पर न भुना पाना और सत्ता दल के हमले का जवाब न दे पाना भी विपक्षी पार्टियों की हार का बहुत बड़ा कारण है, जो कि हर बार भाजपा के लिए जीवनदायक सिद्ध होता है।
इसके अलावा भाजपा कुछ ऐसे छोटे-छोटे दलों को अपना विरोधी दिखाते हुए भी अपने फायदे के लिए चुनावों में इस्तेमाल करना जानती है, जो ऐसे किसी समाज या कम्युनिटी विशेष के वोट बैंक को अपने पक्ष में करने में समर्थ हैं, जो वोटर उनके चुनावी मैदान में न रहने पर विपक्षी पार्टियों में से किसी को चुन सकते हैं। मसलन, असदुद्दनी ओवैसी, उत्तर प्रदेश में राजभर, चंद्रशेखर रावण और अब शायद मायावती भी उसी तरह गिनी जाने लगी हैं।
पार्टी हर राज्य में इस तरह के छोटे स्थानीय सियासी दलों को अपने विरोध में दिखाते हुए खड़ा करती है, जो विपक्षी दलों की हार में हिस्सेदारी निभाती हैं। इन सबसे हटकर एक सबसे बड़ा फैक्टर ये भी है कि हर छोटे-बड़े चुनाव का एक मात्र चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही रहते हैं। यानि भारतीय जनता पार्टी के पास एक चेहरा है, जिसे लोगों का ही नहीं, हिंदुस्तान का सबसे बड़ा नेता घोषित किया गया है, जबकि विपक्षी दलों के पास कोई भी ऐसा एक चेहरा नहीं है, जो पूरे देश में इस प्रकार से प्रसिद्ध हो। प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की अंतर्राष्ट्रीय छवि तो है, लेकिन न तो वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह कहीं पर भी चुनावी कैंपेन करते हैं और न ही सभी विपक्षी पार्टियां उन्हें अपना नेता मानकर उनके पीछे-पीछे चलने को तैयार दिखाई देती हैं।
हालांकि ऐसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो मानते हैं कि अगर उन्हें एक मौका मिले, तो वे भी एक एक अच्छे प्रधानमंत्री साबित हो सकते हैं। लेकिन सवाल यही है कि उन्हें ये मौका मिल भी सकेगा? क्योंकि जब अपने ही साथ न दें, तो जीत संभव कैसे हो सकती है?
बहरहाल, अब देखना यह है कि 2024 के आम चुनावों में क्या हालात रहते हैं? क्योंकि एक तरफ तमाम विपक्षी दलों पर एजेंसियों की तलवारें लटकी हुई हैं, जिसमें सत्तारूढ़ पार्टी ने तमाम तोते और गिद्धों को विपक्षियों के पीछे लगा दिया गया हैं और वहीं दूसरी ओर महंगाई, भुखमरी, गरीबी, कालाधन, अराजकता, आपसी भेदभाव, बेरेजोगारी, चीन और आतंकवाद जैसे मुद्दे हैं, तो दूसरी तरफ चुनावों की जोरदार तैयारी, उनमें अनाप शनाप पैसा बहाने और फिर से मोदी सरकार का शोर है।