भारत दुनिया का इकलौता देश है, जहां सीएसआर यानी कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसबिलिटी को कानूनन अनिवार्य बनाया गया है। यह कानून व्यापारिक गतिविधियों से अर्जित धन लाभ में से कुछ भाग को सामाजिक रूप से व्यय करने के प्रावधान करता है। 01 अप्रैल 2014 से यह कानून लागू है। आज लगभग एक दशक बाद इस कानून और इसके क्रियान्वयन के अनुभवों पर विचार करने की आवश्यकता है। यह कानून हमारे हजारों साल पुराने जीवन दर्शन की बुनियाद पर खड़ा है, जहां दान और परोपकार का उद्देश्य समाज के वास्तविक जरूरतमन्दों के लिए विकास और उत्कर्ष के लिए अवसरों को सुनिश्चित किया जाता रहा है। सीएसआर कानून सिर्फ भारतीय कंपनियों पर ही लागू नहीं होता है, बल्कि वह सभी विदेशी कंपनियों के पर लागू होता है जो भारत में कार्य करती हैं। कानून के अनुसार, एक कंपनी को जिसका सालाना नेटवर्थ 500 करोड़ रुपये या उसका सालाना इनकम 1000 करोड़ रुपये या उनका वार्षिक प्रॉफिट 5 करोड़ का हो तो उनको सीएसआर पर खर्च करना जरूरी होता है। यह जो खर्च होता है, उनके 3 साल के औसत लाभ का कम से कम दो प्रतिशत तो होना ही चाहिए।
2014 से 2021 की काल अवधि में इस कानून के तहत 126938 करोड़ रुपये धन एकत्रित हुआ, जो निजी औद्योगिक घरानों के अलावा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों से जारी किया गया। जाहिर है, सवा लाख करोड़ से ज्यादा की यह रकम शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति, आधारभूत विकास, पोषण, ग्रामीण विकास सामाजिक न्याय जैसे विहित क्षेत्रों में खर्च हुई है। इस धन खर्ची के विश्लेषण और नीतिगत बदलाव की आवश्यकता इस समय इसलिए महसूस की जा रही है, क्योंकि देश में इस राशि का वितरण असमान है।
भारत में समग्र विकास की गति भौगोलिक रूप से बहुत असमान है। महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, हरियाणा जैसे राज्य विकास के लगभग सभी संकेतकों पर उत्तर भारत के अन्य राज्यों से अभी भी अग्रणी बने हुए हैं। सीएसआर की धन खर्ची के आंकड़े इस असमान विकास को कम करने के स्थान पर बढ़ाते हुए नजर आ रहे हैं। अब तक व्यय की गई कुल सीएसआर राशि में 40 फीसदी तो केवल सात राज्यों में ही खर्च हुई है।
इसमें पैन इंडिया यानी एक साथ हुए देश व्यापी आवंटन को भी जोड़ लिया जाए तो यह आंकड़ा 60 तक जाता है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक-दिल्ली में 4023 करोड़, महाराष्ट्र 18605, गुजरात 6221, कर्नाटक 7160, तमिलनाडु 5437, आंध्र प्रदेश 5100 एवं तेलंगाना में 2500 करोड़ की राशि सीएसआर से 2014 से अब तक व्यय की जा चुकी है। ये ऐसे राज्य हैं, जहां औद्योगिक विकास के साथ मानवीय दृष्टि से भी जीवन स्तर समेत अन्य संकेतक देश के अन्य राज्यों से बेहतर हैं।
उत्तर प्रदेश, बिहार, मप्र, छतीसगढ़, उड़ीसा या पूर्वोत्तर के राज्यों में आधारभूत विकास से लेकर सामाजिक रूप से निवेश की आवश्यकता आज भी अत्यधिक है, लेकिन तथ्य यह कि 22 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में गुजरात की तुलना में आधा यानी 3288 करोड़ का फंड ही मिल सका। इसी तरह बिहार में तो यह आंकड़ा मात्र 691 करोड़ ही हो पाया है। कमोबेश मप्र 1149, छत्तीसगढ़ में 1385, बंगाल में 2487, झारखंड में यह आंकड़ा 873 करोड़ ही है।
जाहिर है, बड़े औद्योगिक घराने या सेवा क्षेत्र की कंपनियां पहले से विकसित राज्यों में पहले तो अपनी इकाइयों की स्थापना के साथ स्थानीय रोजगार की उपलब्धता बढ़ाती फिर सीएसआर की बड़ी राशि भी स्थानीय स्तर पर खर्च करती हैं। दूसरी तरफ यूपी, बिहार, मप्र जैसे राज्य लाख प्रयासों के बाद राज्य के लिए औद्योगिक निवेश नहीं ला पाते हैं। ऐसे में सीएसआर के लिए इन राज्यों को इस कोटे के अखिल भारतीय आवंटन पर निर्भर रहना पड़ता है, जो बहुत ही कम होता है।
सरकार ने कुछ संशोधन कर सीएसआर मद से रिसर्च और डेवलपमेंट को भी जोड़ा है लेकिन अभी इस दिशा में कोई ठोस काम दिखाई नही दे रहा है। एक और विसंगति यह है कि बड़े औद्योगिक घरानों ने अपने प्रभाव वाले एनजीओ एवं ट्रस्ट खड़े कर लिए हैं, जिनमें यूनिवर्सिटीज अस्पताल और कौशल विकास केंद्र भी संचालित किए जा रहे हैं। यह एक तरह से केवल धन का डायवर्जन भर है।
बेहतर होगा सरकार सीएसआर के लिए कुछ बड़े बुनियादी बदलाव सुनिश्चित करे। मसलन, कुल धन का 75 फीसदी अभी तक शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबी पर खर्च हुआ है। इन तीनों क्षेत्रों में सभी सरकारें भी पिछले 75 साल से पानी की तरह पैसा खर्च कर रही हैं। सीएसआर की राशि का इन क्षेत्रों में व्यय किया जाना असल में दोहराव भर लगता है।
अच्छा होगा कि एक नियामक निकाय सीएसआर के लिए खड़ा किया जाए। देश भर की सीएसआर राशि एक स्थान पर संकलित हो। इस राशि के खर्च हेतु एक विशेषज्ञ पैनल जनप्रतिनिधियों, सिविल सोसायटी, अफसरों को मिलाकर बनाया जाए। यह नियामक तंत्र धन के समान वितरण के अलावा सीएसआर से ऐसी आधारभूत संरचनाओं का निर्माण सुनिश्चित करे जो प्रमाणित करते हो।
यानी हर जिले में एक कौशल विकास केंद्र बनाया जाए, जिसमें रिलांयस जिओ अपनी सेवाएं दे, लार्सन एंड टुब्रो भवन एवं अन्य सिविल निर्माण, इंफोसिस सॉफ्टवेयर और यूनीलीवर जैसी कंपनियां मार्केटिंग की ट्रेनिग दें। बनिस्बत शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी पर पहले से चली आ रही योजनाओं में शामिल होकर सरकारी ढर्रे का हिस्सा बना जाए।