
नेताजी और उनकी फौज हमें जो सबक सिखाती है, वह तो त्याग का, जाति-पांति के भेद से रहित एकता का और अनुशासन का सबक है। अगर उनके प्रति हमारी भक्ति समझदारी की और विवेकपूर्ण होगी तो हम उनके इन तीनों गुणों को पूरी तरह अपनाएंगे, लेकिन हिंसा का उतनी ही सख्ती से सर्वथा त्याग कर देंगे-महात्मा गांधी
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए, उन्होंने जापान के सहयोग से आजाद हिंद फौज का गठन किया था। उनके द्वारा दिया गया जय हिंद का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा, बन गया है। ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूंगा’ का नारा भी उनका था जो उस समय अत्यधिक प्रचलन में आया। वह 1941 का वर्ष था जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत को ब्रिटिश राज से आजाद कराने के लिए हिटलर की मदद लेने बर्लिन पहुंचे थे। नेताजी का मानना था कि भारत को आजादी केवल सशस्त्र आंदोलन से ही मिल सकती है। इसी सोच से प्रेरित होकर इस स्वतन्त्रता सेनानी ने अपनी योजनाओं को अमली जामा पहनाना शुरू किया। नेताजी के दो उद्देश्य थे। पहला, एक निर्वासित (देश के बाहर) भारत सरकार की स्थापना करना और दूसरा, ‘आजाद हिंद फौज’ का गठन करना।
नेताजी आईएनए को एक उच्च कोटि की सेना बनाना चाहते थे, जिसका प्रशिक्षण जर्मन आर्मी के स्तर का हो। वे एक ऐसी सेना गठित करना चाहते थे, जिसके सैनिक भारत की स्वतन्त्रता को एकमात्र लक्ष्य मान कर अपने साथी सैनिकों के कंधे से कंधा मिला कर चलें। ऐसा करने के लिए यह जरूरी था कि इस सेना में अटूट एकता और सामंजस्य हो। यह नेताजी के लिए काफी चुनौतीपूर्ण था, क्योंकि भारतीय सैनिक खुद को अपनी जाति व धर्म के समूह तक ही सीमित रखते थे। इसका कारण था कि ब्रिटिश-भारतीय सेना में इन सैनिकों को इनकी जाति और धर्म के अनुसार रेजीमेंट में संगठित किया जाता था, उदाहरण के लिए राजपूत, बलूची, गोरखा, सिख आदि।
इस समस्या से निपटने के लिए नेताजी धर्म पर आधारित अभिवादन, जैसे हिंदुओं के लिए ‘राम-राम’, सिखों के लिए ‘सत श्री अकाल’ और मुसलामानों के लिए ‘सलाम अलैकुम’ से अलग ऐसा एक अभिवादन अपनाना चाहते थे, जिससे कोई धार्मिक पहचान ना जुड़ी हो, ताकि सैनिकों के बीच दूरियाँ कम हों और वे एक-दूसरे से समान स्तर पर जुड़ पाएं। तब एक सहयोगी ने प्रभावशाली संबोधन ‘जय हिन्द’ अपनाने का सुझाव दिया, जिसे तुरंत ही नेताजी की स्वीकृति मिल गई। जिस व्यक्ति ने यह धर्मनिरपेक्ष अभिवादन दिया, वे हैदराबाद के आबिद हसन सफरानी थे जो नेताजी के विश्वसनीय सहयोगी और आईएनए में मेजर थे। 1943 में जब नेताजी ने आईएनए द्वारा गठित अल्पकालीन सरकार के लिए रबींद्रनाथ टैगोर के ‘जनगणमन’ को गान के रूप में चुना, तब आबिद को इसका हिंदी में अनुवाद करने की जिम्मेदारी दी गई। इनका अनुवाद ‘सब सुख चैन’ का संगीत राम सिंह ठाकुरी ने दिया था, जो जल्दी ही एक लोकप्रिय गान बन गया।
नेता जी ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने ‘सुप्रीम कमाण्डर’ के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए ‘दिल्ली चलो!’ का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से बर्मा सहित इम्फाल और कोहिमा में एक साथ जमकर मोर्चा लिया। 21 अक्टूबर 1943 को सुभाष बोस ने आजाद हिंद फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। सुभाष उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। 1944 को आजाद हिंद फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया। कोहिमा का युद्ध 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक लड़ा गया एक भयंकर युद्ध था। इस युद्ध में जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा था और यही एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ। 6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम एक प्रसारण जारी किया जिसमें उन्होंने इस निर्णायक युद्ध में विजय के लिए उनका आशीर्वाद और शुभकामनायें मांगीं। सुभाषचंद्र बोस अपने सपनों को लेकर बेहद स्पष्ट थे। 1938 में लंदन में रजनीपाम दत्त को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने कहा था-‘कांग्रेस का उद्देश्य दोतरफा है। पहला राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करना और दूसरा समाजवादी व्यवस्था की स्थापना।
हिंदू महासभा को एक कट्टर सांप्रदायिक मोड़ देने वाले सावरकर सन 1937 में हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने। अंग्रेजों से सहकार और कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन का तीखा विरोध उनकी नीति थी। यह वह समय था जब हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के सदस्य, कांग्रेस के भी सदस्य हो सकते थे। सुभाषचंद्र बोस ने कांग्रेस के अध्यक्ष बनने पर इस खतरे को महसूस किया और 16 दिसंबर 1938 को एक प्रस्ताव पारित करके कांग्रेस के संविधान में संशोधन किया गया और हिंदू महासभा तथा मुस्लिम लीग के सदस्यों को कांग्रेस की निर्वाचित समितियों में चुने जाने पर रोक लगा दी गई। बंगाल में हिंदू महासभा के नेता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का सुभाष बोस से सांप्रदायिकता के मुद्दे पर बहुत टकराव था। दरअसल, धार्मिक आधार पर राजनीति करना सुभाष बोस की नजर में ‘राष्ट्र के साथ द्रोह’ था। सुभाषचंद्र बोस का सम्मान उसकी समतावादी, सहिष्णु सामाजिक विरासत के सम्मान से ही संमव है।