Friday, July 5, 2024
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ओवररैटेड चैट जीपीटी महज एक खिलौना है कोई टूल नहीं

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RAVIWANI


04 13आने वाले एक दो सालों में चैट जीपीटी की हकीकत सामने आ जाएगी। इसके पीछे 2016 की वह तकनीकी मंदी भी है, जहां सभी 10 बड़ी कंपनियों के शेयरों में भारी गिरावट आई थी और स्टार्टअप के नाम पर जो पैसा बाजार में गया था, वह लौटने की कोई उम्मीद अब दिखाई नहीं दे रही है। तकनीक का बाजार जिस तरह से अब कमजोर पड़ने लगा है। इसमें आखिरकार आम इंसान की बलि चढ़ना लाजिमी है। आखिर, मुद्रा उत्पादन और मुद्रा पर कब्जे में कमजोर का दुष्चक्र से निकलना मुश्किल होता है। तकनीक की राजनीति को करीब से जानने, देखने, समझने और दुनिया पर उसके असर का आकलन करते हुए हमें कुछ जरूरी बातें ध्यान रखना चाहिए। इनमें सबसे बड़ी बात तो यही है कि मौजूदा तकनीकी दुनिया महज चंद लोगों की मुट्ठी में कैद है।

दूसरे, सोशल मीडिया और विभिन्न टूल्स के सहारे तकनीक को आम जनता की पहुंच में होने का भ्रम भी फैलाया जा रहा है। तीसरे, इसी भ्रम के साथ बीते करीब आठ-दस साल से यह हवा भी बनाई जा रही है कि बस अब मशीनों का युग आ ही गया।

आपने ध्यान दिया होगा कि 2010 के आसपास कहा जाता था कि 2020 में इतने जॉब्स एआई से प्रभावित होंगे, तो 2015 के बाद साल 2025 के बारे में ऐसे ही आकलन आए। अब 2030 और कहीं कहीं 2035 के बारे में कहा जाने लगा है कि किसी क्षेत्र में 30 तो कहीं 40 और कहीं कहीं तो 50 प्रतिशत तक जॉब्स एआई संचालित होंगे।

इनमें आंशिक सच्चाई तो है, लेकिन अभी भी एआई महज एक 5 वर्षीय बच्चे की तुतलाहट भरी आवाज से ज्यादा दखल तकनीक की दुनिया में नहीं रखती है। हमारी हकीकत की दुनिया में तो अभी वह गोद में खेलता बच्चा ही है, जो ठीक ढंग से करवट भी नहीं ले सकता है।

बीते दिनों चैट जीपीटी को जिस तरह से ओवररेटेड किया गया और कई लोगों ने इसके इस्तेमाल को क्रांतिकारी तक बताना शुरू कर दिया, असल में वह तकनीक की राजनीति की एक बेहद सधी हुई चालाकी है।

तकनीक का सामान्य छात्र भी जानता है कि चैट जीपीटी का भाषा मॉडल और इसके प्रति उत्साह एक गलत जमीन पर बनाई जा रही है। मशीनी भाषा का ईजाद और उससे समस्याओं के हल पाना या कुछ लेख आदि लिखवा लेना एक बात है लेकिन एक मनुष्य की तरह विश्लेषण और अर्जित ज्ञान के विभिन्न प्रारूपों के साथ उसे परख पाना बिल्कुल अलग किस्म की विशेषज्ञता है।

इसे कुछ यूं समझिये कि आज इंटरनेट पर विभिन्न किस्म का ज्ञान मौजूद है, लेकिन इस ज्ञान के सहारे घटनाओं का विश्लेषण और उनकी तह तक पहुंचने की अध्ययन शैली हममें से कुछ ही लोगों के पास है। अव्वल तो इंसानी इतिहास का पूरा ज्ञान इंटरनेट पर है ही नहीं।

क्योंकि एक इंसान अपने जीवन में जितना ज्ञान हासिल करता है, उसका महज 2 से 3 प्रतिशत ही दस्तावेजों, लेखों, बातचीत आदि में रख पाता है। ज्ञान की प्रक्रिया, सोचने निर्णय लेने की समझ आदि का बहुत सारा हिस्सा हमारे दिमाग में चलता है।

हम पूरी प्रक्रिया को कभी नहीं लिख सकते हैं, न कहीं दर्ज कर सकते हैं। बहुत हुआ तो निष्कर्ष के अंतिम हिस्से ही हम सामने रखते हैं। जैसे इस समय यह लेख लिखते हुए मेरे जेहन में तकनीक के शुरुआत हिस्से, जब इंसान ने पहली बार पत्थर के टूल्स बनाने की जरूरत पर ध्यान दिया।

या उसके बाद बड़े बड़े महल बनाने के लिए रोप वे बनाने, हाथियों के इस्तेमाल, रहट बनाने की जरूरत आदि पर काम किया, तो उसके हिस्से भी साथ साथ चल रहे हैं। लेकिन यह सारी घटनाएं महज दिमाग में कैद हैं, यदि एक एक दृश्य को बारीकी से लिखना हो तो कई साल मुझे इसे दर्ज करने में लग जाएंगे।

दूसरी बात, जितने लोग इस समय इंटरनेट पर सक्रिय हैं, और अपने ज्ञान का हिस्सा इसमें पोस्ट, खरीदी, या अन्य डिजिटल फुट प्रिंट के जरिये छोड़ रहे हैं, वह बहुत सीमित है। इसमें भी चैट जीपीटी जैसे खिलौनों की पहुंच महज 4 प्रतिशत ओपन इंटरनेट तक ही सीमित है। विभिन्न ईमेलों, से लेकर डीप वेब की अंधी गलियों तक अभी किसी एआई की पहुंच नहीं बनी है।

सही ढंग से देखें तो चैट जीपीटी इंसानी भाषा और बातचीत की जटिलताओं को ठीक ठीक ढंग से पकड़ पाने में नाकाम है। इंसान हमेशा अभिधा यानी एक ही अर्थ के साथ बात नहीं करता है। साथ ही टोन के साथ उसके वाक्यों का दायरा बदलता है। कई बार व्यंग्य और दृश्यात्मक बिंबों के साथ हमारी बातचीत बहुत अलग रूप में होती है।

इसे इंसानी भाषा के हजारों साल के हमारे रियाज से ही समझा जा सकता है। शब्दों के पीछे छिपे अर्थों को पकड़ने की क्षमता जिस तरह कई इंसानों में भी उम्र के कई दशक बाद भी नहीं पैदा हो पाती है, वैसे ही एआई तो अभी एक दुधमुंहा बच्चा ही है।

मतलब यह है कि एआई जिस तरह की प्रतिक्रिया दे रहा है या सवालों के जवाब में वह जो कह रहा है, वह बेहद उथली दृष्टि है। गहरी अंतर्दृष्टि पाने के लिए अभी एआई के संचालकों को कम से कम 100 साल और इंतजार करना पड़ेगा, तब तक संभवत: इंसानों में वह गुण आ सके कि वे जो सोच रहे हैं, उसे जस का तस इंटरनेट पर दर्ज कर सकें।

यहां एक मुश्किल और है, जब हम मशीन पर अधिक निर्भर होते हैं, तो हमारी सोचने समझने और विश्लेषण की ताकत कम होती है। बीते करीब 10 से 12 सालों में भाषाओं में किस तरह का बदलाव आया है, यह कोई भाषा विज्ञानी ही बता सकता है, लेकिन मौटे तौर पर यह तो दिखाई दे ही रहा है कि हमारी भाषा में शब्दों के समुच्चय बहुत सीमित होते जा रहे हैं।

क्योंकि विभिन्न सोशल मीडिया साइट्स पर एक ही तरह की भाषा, बातचीत और विषयों के कारण बहुत सीमित ज्ञान का आदान प्रदान हो रहा है। सुदूर गांवों के जीवन का एक टुकड़ा तो दिखता है, लेकिन उसकी पूरी गहराई से हम अपरिचित रहते हैं।

ठीक वैसा ही शहरी, मध्यवर्गीय जीवन का विन्यास हमसे अछूता रह जाता है। मशीनीकरण का यह दुष्प्रभाव हो रहा है। इसके कारण एआई की संभावनाएं भी बहुत कम हो जाती है, कि वह मानव को रिप्लेस कर पाएगा।

एआई का पूरा भविष्य मनुष्य के ज्ञान और तकनीक पर उसकी पकड़ से जुड़ा है। जबकि हमारे समय में कुछ हाथों में तकनीक है, जो असल में बारीकियों को जानते, समझते और उनका इस्तेमाल करने की काबलियत रखते हैं।

बाकी लोग महज किनारों से लहरों में पांव भिगोने वाले दर्शक हैं, जो खुद को गीला करके संमुदर की गहराई नापने का भ्रम पाले हुए हैं। आने वाले एक दो सालों में चैट जीपीटी की हकीकत सामने आ जाएगी।

इसके पीछे 2016 की वह तकनीकी मंदी भी है, जहां सभी 10 बड़ी कंपनियों के शेयरों में भारी गिरावट आई थी और स्टार्टअप के नाम पर जो पैसा बाजार में गया था, वह लौटने की कोई उम्मीद अब दिखाई नहीं दे रही है।

तकनीक का बाजार जिस तरह से अब कमजोर पड़ने लगा है। इसमें आखिरकार आम इंसान की बलि चढ़ना लाजिमी है। आखिर, मुद्रा उत्पादन और मुद्रा पर कब्जे में कमजोर का दुष्चक्र से निकलना मुश्किल होता है।


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