अमृतवाणी
समता का अर्थ है, मन की चंचलता को विश्राम, समान भाव को जाग्रत और दृष्टि को विकसित करें तो ‘मैं’ के संपूर्ण त्याग पर समभाव स्थिरता पाता है। समभाव जाग्रत होने का आशय है कि लाभ-हानि, यश-अपयश भी हमें प्रभावित न करे, क्योंकि कर्मविधान के अनुसार इस संसार के रंगमंच के यह विभिन्न परिवर्तनशील दृश्य हैं।
हमें एक कलाकार की भांति विभिन्न भूमिकाओं को निभाना होता है। इन पर हमारा कोई भी नियंत्रण नहीं है। समता का पथ कभी भी सुगम नहीं होता, हमने सदैव इसे दुर्गम ही माना है। परंतु क्या वास्तव में धैर्य और समता का पथ दुष्कर है? हमने एक बार किसी मानसिकता को विकसित कर लिया, तो उसे बदलने में वक्त और श्रम लगता है। यदि किसी अच्छी वस्तु या व्यक्ति को हमने बुरा मानने की मानसिकता बना ली, तो पुन: उसे अच्छा समझने की मानसिकता तैयार करने में समय लगता है। क्योंकि मन में एक विरोधाभास पैदा होता है, और प्रयत्नपूर्वक मन के विपरीत जाकर ही हम अच्छी वस्तु को अच्छी समझ पाएंगे।
तब हमें यथार्थ के दर्शन होंगे। जीवन में कई बार ऐसे मौके आते हैं, जब हमें किसी कार्य की जल्दी होती है और इसी जल्दबाजी और आवेश में अक्सर कार्य बिगड़ते हुए देखे हैं। फिर भी क्यों हम धैर्य और समता भाव को विकसित नहीं करते। कई ऐसे प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने उपस्थित होते हैं, जब आवेश पर नियंत्रण, चिंतन और विवेक मंथन से कार्य सुनियोजित सफल होते हैं और प्रमाणित होता है कि समता में ही श्रेष्ठता है।