आनंद कुमार अनंत |
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र , चन्द्र, शनि, राहु एवं केतु के रूप में नौ ग्रह होते हैं। सामान्य रूप से बृहस्पति (गुरु), बुध, और चन्द्रमा को शुभ ग्रह माना जाता है और सूर्य, मंगल, शनि, राहु एवं केतु अशुभ ग्रह माने जाते हैं। इन अशुभ ग्रहों को ही रोगकारक माना जाता है। विशिष्ट और विपरीत ग्रहदशा में सभी ग्रह अपना अशुभ प्रभाव छोड़ते हैं।
ग्रहों की प्रतिकूलता मनुष्य और वातावरण के बीच के ऊर्जा प्रवाह को प्रवाहित करती है। इसके इस असंतुलन के प्रभाव से विभिन्न प्रकार के रोग विकार पनपते हैं। चूंकि सूर्य पित्त प्रकृति को बढ़ावा देता है, अत: इसका कमजोर एवं बलवान होना, दोनों ही दशा में समस्या खड़ी होती है।
सूर्य हृदय, आमाशय, अस्थियों एवं दायीं आंख को नियंत्रित करता है। अत: इसके दुष्प्रभाव से सिरदर्द, गंजापन, बुखार, हृदय रोग, चिड़चिड़ापन, दृष्टिकोण, अस्थिजन्य रोग, त्वचारोग, रक्तसंचार में विकार, कुष्ठ आदि रोग पनपते हैं। सूर्य के प्रकोप से दुर्घटना, शत्रुभय, विषभय, चोरी तथा सर्पदंश का खतरा बना रहता है। सूर्य मंत्र का नियमित जाप इनका निदान है।
चन्द्रमा कफ प्रवृत्ति कारक माना जाता है जिसमें वात का भी संयोग होता है। अत: इसकी प्रतिकूलता से मानसिक विकार एवं भावनात्मक परेशानियां पैदा होती हैं तथा अनिद्रा की स्थिति उत्पन्न होती है। चन्द्रमा रक्तविकार, डायरिया, ड्राप्सी, पीलिया, टी. बी. त्वचारोग, भय आदि रोग को जन्म देता है। चन्द्रमा और मंगल का योग अनेक प्रकार के स्त्री रोगों को जन्म देता है।
मंगल पित्त कारक है। यह अत्यंत उग्र है एवं उत्तेजना पैदा करता है। यह सिर, मज्जा, पित्त, हीमोग्लोबिन तथा गर्भाशय का नियमन करता है। अत: इससे संबंधित सभी रोग मंगल के प्रकोप से होते हैं। मंगल दुर्घटना, चोट, मोच, जलन, शल्यक्रि या, उच्चरक्तचाप, पथरी, हथियारों एवं विष से क्षति देता है।
बुध त्रिदोष (कफ, वात, पित्त) का जनक है। बुध की प्रतिकूलता की दशा में यह चन्द्रमा के साथ मिलकर अनेक मानसिक विकार उत्पन्न करता है। बुध-त्वचा, गला, नाक, फेफड़े और ललाट का अधिपति माना जाता है। यह स्नायुविकार, मानसिक दुरावस्था, अभद्र भाषा, उत्तेजना तथा इन अंगों से संबंधित रोग उत्पन्न करता है। बुध ग्रह की स्थिति ठीक न होने पर भयंकर डरावने सपने आते हैं।
बृहस्पति कफ से संबंध रखता है। यह लिवर, गॉलब्लैडर, प्लीहा, पैंक्रि याज, कान एवं वसा को नियंत्रित करता है। इन अंगों से उत्पन्न विकृतियां इस ग्रह की महादशा में देखी जाती है। यह ग्रह, मोटापा बढ़ाता है। इससे घोर तमस और जड़ता पैदा होती है।
शुक्र ग्रह वात और पित्त कारक होता है। इस ग्रह का संबंध काम-वासना (सेक्स) से होता है। यह आंख, जननांग, मूत्रशय, अश्रुग्रंथि आदि को नियंत्रित करता है। यह जलीय ग्रह शरीर की अंत:स्रावी ग्रंथियों को प्रभावित करता है, जिससे समस्त जननांगीय विकृतियां, मूत्ररोग, आलस्य, थकान आदि पनपते हैं। शुक्र को अनुकूल कर काम विकार को दूर किया जा सकता है।
शनि कफ प्रकृति का होता है। छाती, पैर, पांव, गुदा, स्नायुतंत्र आदि अंगों का यह जनक है। इसके दुष्प्रभाव से अत्यंत घातक और असाध्य रोग होते हैं। कैंसर, लकवा, ट्यूमर, थकान, मानसिक विकृतियां आदि रोग शनि ग्रह के दुष्प्रभाव के कारण ही होते हैं।
राहू और केतु दो छाया ग्रह हैं। राहू कोढ़, अल्सर, तथा कभी न ठीक होने वाले रोगों तथा अज्ञात भय को उत्पन्न करता है। इससे सर्पदंश का भय बना रहता है। यह काल सर्पयोग का मुख्य कारण है जो जीवन को नरक बनाकर रख देता है। राहू चन्द्रमा के साथ मिलकर विभिन्न प्रकार के फोबिया को जन्म देता है।
केतु के दुष्प्रभावों के कारण भी अनेक प्रकार की बीमारियां पैदा होती हैं। केतु भी मंगल के समान शल्यक्रि या का सामना करता है। जब ये ही ग्रह अनुकूल होते हैं तो मनुष्य को यश, कीर्ति, धन-धान्य, भाग्यवृद्धि कारक होते हैं।
इन सभी ग्रहों की प्रतिकूलता को दूर करके इनकी अनुकूलता को प्राप्त करने के लिए इनसे संबंधित मंत्रों का जाप करना चाहिए या यंत्र को धारण करना चाहिए। गायत्री मंत्र का जप करते रहने से सभी ग्रह अनुकूल होकर अपनी कृपा दृष्टि प्रदान करते हैं।