Sunday, January 5, 2025
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मुफ्त अनाज के मार्फत सियासत

Samvad 51


sonam lovevanshiकेंद्र सरकार ने पुन: प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना की अवधि एक वर्ष के लिए बढ़ा दी है, जो स्वागतयोग्य कदम है, लेकिन कई सवाल भी हैं? यह देखने में आया है कि अन्न योजना से लाभ भाजपा को परोक्ष रूप से चुनावों में मिलता है। ऐसे में पहला सवाल यही कि क्या चुनाव जीतने का आधार अन्न योजना बन रही है या वास्तविक रूप से अंत्योदय की राह पर हमारा देश बढ़ रहा है? वैसे जिस देश में 81 करोड़ लोग प्रतिमाह 35 किलो अनाज पर जीवन निर्वाह करने को विवश हो! फिर उनकी अन्य मूलभूत आवश्यकताएं कैसे पूरी होती होंगी? केवल अन्न से किसी का जीवन व्यवस्थित गुजर नहीं सकता। यह हम सभी भलीभांति समझते हैं। एक परिवार के लिए अन्न और सिर ढकने के लिए छत मूलभूत आवश्यकता है, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य को भी दरकिनार करके नहीं देखा जा सकता है।

दुष्यंत कुमार की यह पंक्ति याद आती है कि, भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ आजकल दिल्ली में है जेर-ए-बहस ये मुद्दआ। दुष्यंत कुमार ने गरीबों के जिस दर्द को अपने शब्दों में एक वक्त पिरोया था, उस गरीब के दर्द को दूर करने के लिए आजादी के बाद से कई सरकारें सत्ता में आर्इं और चली गर्इं, लेकिन दुर्भाग्य से आज भी व्यक्ति केवल सरकार से अनाज की आस लगाकर ही बैठा है।

सोचिए इक्कीसवीं सदी में जब देश अर्थव्यवस्था के मामले में विश्व का नेतृत्व करने की दिशा में बढ़ने की सोच रहा है, मंगल-चांद पर चढ़ाई के लिए हम आतुर हैं, तब देश की सरकार 81.35 करोड़ लाभार्थियों को निशुल्क प्रतिमाह 35 किलो अनाज देकर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती है, तो यह दृश्य और कदम कितना दारुण वेदना से भर देने वाला है।

कुपोषण की समस्या से हमारा देश जूझ रहा है। कोरोना की वजह से बेरोजगार हुए तकरीबन 12.6 करोड़ लोग दोबारा काम पर नहीं लौटे। बेरोजगारी और महंगाई आए दिन बढ़ती जा रही है। ऐसे में कैसा भारत 35 किलो अनाज के मार्फत गढ़ा जा रहा है? यह एक बड़ा ही वाजिब सवाल है। अब जिस देश की आधी से अधिक या अधिसंख्य आबादी सिर्फ सरकारी अनाज के सहारे जीवन निर्वहन को विवश हो।

उसके विश्व गुरु बनने की चाहत कपोल-कल्पित कल्पना से अधिक मालूम नहीं पड़ती। इसके अलावा रहनुमाई तंत्र की नीति और नियत दोनों भी कठघरे में खड़ी दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि मतों की उगाही ही लोकतंत्र का असली मकसद नहीं होता। लोकतंत्र में लोक पहले आना चाहिए, लेकिन यहां तो 35 किलो अनाज देकर ही उन्हें दरकिनार किया जा रहा है।

केंद्र की मोदी सरकार भले अपनी पीठ मुफ्त अनाज योजना को अन्न से अंत्योदय बताकर थपथपा ले, लेकिन उसकी नीयत आमजन को भी समझने की आवश्यकता है। यही केंद्र की मोदी सरकार दूसरे दलों को नसीहत देती है कि मुफ्त की सियासत को विराम दें! फिर मुफ्त अनाज वह भी चुनावी वर्ष में बांटना, इसे किस नजरिए से देखा जाना चाहिए?

जब विधानसभा के चुनाव हिमाचल और गुजरात जैसे राज्यों में संपन्न हुए। इस दौरान यह निष्कर्ष अमूमन निकलकर सामने आया कि इन राज्यों में आधी से अधिक आबादी मुफ्त अन्न योजना के अंतर्गत आती थी और उसका फायदा भी भाजपा को चुनाव के दौरान मिला।

कोरोना काल में मुफ्त में बंटे अनाज के पैकेट पर प्रधानमंत्री की बड़ी तस्वीर याद तो सभी को होगी ही, आखिर उस तस्वीर की क्या आवश्यकता थी, लेकिन छवि गढ़ने का खेल लोकतंत्र में चल रहा है। जिस गुजरात मॉडल का प्रचार वर्षों से चला आ रहा है, वहां की 53.5 प्रतिशत आबादी अन्न योजना के अंतर्गत आती है।

अब इसे दीया तले अंधेरा मानें या कागजों में अच्छे दिन की संज्ञा दें? जो भी है, सत्य यही है कि गुजरात जैसे राज्य में भी 35 किलो सरकारी अनाज ही आधी आबादी से अधिक का आधार है। कमोबेश यही हाल उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और हिमाचल जैसे राज्यों का है। आंकड़ों के लिहाज से यूपी में फ्री योजनाओं का लाभ प्राप्त करने वाले लाभार्थियों की तादाद लगभग 15 करोड़ है, जो किसी न किसी योजना में लाभ ले रहे हैं।

एक सर्वे के मुताबिक, यूपी में लगभग 62 फीसदी आबादी फ्री राशन की श्रेणी में भी आती है। उत्तराखंड के हर 10 में से सात परिवारों को फ्रÞी राशन मिल रहा है। वहीं हिमाचल प्रदेश की लगभग 38.4 प्रतिशत आबादी प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत फ्री राशन का लाभ ले रही है। अब इन आंकड़ों में कुछ प्रतिशत फर्जी नाम भी सम्मिलित होंगे, निस्संदेह यह बात सही है।

लेकिन आजादी के सात दशक बाद भी अगर एक बड़ी आबादी को सरकार से महीने के 35 किलो अनाज लेकर जीवन जीना पड़ रहा। फिर मत इतराये जी-20 की अध्यक्षता मिल जाने मात्र से। गरीबी की रेखा जो सरकार ने शहरी और गरीबी क्षेत्र की तय कर रखी है, वास्तव में वह सभ्य समाज पर कालिख पोतने के समान है। जिस देश में अमीरों की तादाद लगातार बढ़ रही हो, कहीं न कहीं सामाजिक उत्तरदायित्व का लोप हो रहा है, इस दिशा में ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है।

एक आंकड़े के मुताबिक राज्य सरकारों की अलग-अलग योजनाओं, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं और निजी बीमा की विभिन्न योजनाओं को जोड़ने के बाद भी देश की कुल आबादी के लगभग सत्तर फीसद हिस्से तक स्वास्थ्य बीमा की सुरक्षा पहुंच पाती है। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि सरकारी प्रयासों के बावजूद भी तीस फीसदी हिस्सा अब भी ऐसा है, जो स्वास्थ्य सेवाओं से पूरी तरह वंचित है। यही हाल शिक्षा और सिर ढकने के लिए छत और अन्य सुविधाओं का भी है।

कुपोषण का कलंक देश अभी तक नहीं मिटा सका है। ऐसे में मुद्दे कई हैं, जिनका उठना स्वाभाविक है। बशर्ते सरकारें अपने रवैये में बदलाव करें। मुफ़्त अनाज देना भी उचित है, लेकिन सिर्फ अनाज देने और उसके प्रचार से गरीब की दीन-हीन अवस्था में आमूलचूल परिवर्तन नहीं आने वाला। सरकारी दावे और हकीकत की पड़ताल करता हुआ ही एक आंकड़ा है कि चिकित्सा पर 86 प्रतिशत तक लोगों को अपनी जेब से खर्च करना पड़ता है।

अब जो 81 करोड़ के करीब आबादी 35 किलो अनाज भी सरकार से लेकर दो जून की रोटी का इंतजाम करती हो, उसके जीवन में कोई एक जून बिगड़ गया, तो वह किसकी तरफ निगाह उठाकर अपनी सिसकती आंखों से दर्द को बयां करेगा। इसलिए गरीबी दूर करने के ठोस इंतजामात करने की आवश्यकता है। वरना चुनाव जीतने के लिए मुफ्त अनाज बांटते रहिए। जनता तो मूर्ख है ही, जिसे अपना भला कभी नहीं दिखा, वरना वह मुर्गा और दारू पर लोकतंत्र में मत नहीं बेचती!


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