फौलादी इंसानी इरादों के आगे आखिर चट्टान हार गई। उत्तराखंड के उत्तरकाशी की सिल्क्यारा सुरंग में फंसे 41 श्रमिकों को आखिरकार 17वें दिन बाहर निकाल लिया गया। उन्हें मेडिकल जांच के लिए अस्पताल ले जाया गया। खुद उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और केंद्रीय मंत्री जनरल वीके सिंह दोनों लगातार सुरंग के पास डटे रहे। पीएमओ के प्रधान सचिव पीके मिश्र भी मौके पर मौजूद रहे। सबसे पहले पांच श्रमिकों को बाहर निकाला गया। उत्तराखंड सरकार ने प्रत्येक श्रमिक को एक-एक लाख रुपया देने की घोषणा की। ये आपरेशन प्रदेश और केंद्र सरकार के संयुक्त प्रयास से कामयाब हुआ। सरकार की 17 एजेंसी के अलावा विदेशी विशेषज्ञ भी इसमें लगे रहे। आॅपरेशन के उपकरण लाने के लिए सेना के हरक्युलिस विमान का प्रयोग हुआ। अमेरिका की ड्रिल करने वाली आगर मशीन तक लाकर लगाई गई। इस मामले में ऐसा नहीं हुआ कि अकेले एक ही एजेंसी बचाव में जुटी रही हो। पूरे देश का तंत्र इसमें लगा था। इस अभियन में सभी सुरक्षा एजेंसी की एकजुटता भी सामने आई। अन्यथा अन्य जगह सबकी अपनी-अपनी ढपली सबका अपना-अपना राग होता है। यह पहला अभियान नहीं था। वर्ष 2010 में चिली में कॉपर-सोने की खदान में काम करने वाले 33 श्रमिकों को 69 दिनों के लंबे अंतराल के बाद खदान से सकुशल बाहर निकाला गया था। ये खदान में काम करते थे। खदान में रास्ता अचानक टूटा और सभी लोग 700 मीटर नीचे फंस गए।13 नवंबर 1989 को पश्चिम बंगाल के रानीगंज की महाबीर खदान में 71 मजदूर अपना काम करते खदान में बाढ़ आने से फंस गए थे। इनमें से छह की डूबने से मौत हो गई थी। सुंरग के बराबर दूसरी सुंरग खोदकर 65 मजदूरों को बचाया जा सका था। 23 जून 2018 को थाईलैंड में 12 बच्चे एक लंबी गुफा में फंस गए थे। थाईलैंड सरकार ने विदेशों से मदद मांगी। 100 तैराक दुनिया भर से बुलाए गए। 18 दिन बाद ये बच्चे सकुशल निकल आए।
उत्तरकाशी की सिल्क्यारा सुरंग घटना के बाद से मीडिया में आ रहा है कि हिमालय में सुंरग नहीं बननी चाहिए, इससे पहाड़ दरक रहे हैं। बड़े हादसे हो सकते हैं, जबकि विकास कार्य करते इस तरह का हादसा होता है। ऐसी बात होती है। ये भारत में नहीं, पूरी दुनिया में होता है। हादसे होते हैं। होते रहेंगे किंतु इससे विकास का पहिया तो नहीं रोका जा सकता। सड़कें बनाना तो नहीं रुक सकता। ये सड़क चारधाम यात्रा को सुगम बनाने के साथ देश को सीमा से जोड़ने के लिए बनाई जा रही है। बॉर्डर तक सेना और उसके भारी उपकरणों की सरल आवाजाही के लिए बनाई जा रही है। ये तो देश की बड़ी जरूरत है। पहाड़ों पर जब भी विकास होता है, तभी कुछ अपने को विशेषज्ञ मानने वाले और पर्यावरणविद शोर मचाने लगते हैं। इनका यही कहना रहता है कि इससे पहाड़ दरकेंगे। वहां का पर्यावरण संतुलन बिगड़ेगा। टिहरी डैम बनते भी ऐसा ही हुआ था। उसके विरोध में लंबा आंदोलन चला था। इस परियोजना के विरोध में तो पर्यावरणाविद सुंदरलाल बहुगुणा ने तो 1995 में 45 दिन तक उपवास किया। इन सबके बावजूद टिहरी डैम बन गया। केदारनाथ आपदा के समय पहाड़ों से आए भारी जल को इसी डैम में लिया गया। इसी के कारण प्लेन में होने वाली भारी आपदा टल गई। अगर पानी टिहरी डैम में न लिया जाता तो नीचे प्लेन में भारी तबाही का सामना करना पड़ता।
पहाड़ों में विकास कार्य के दौरान ही हादसे नहीं होते। हादसे सभी जगह होते हैं। कहीं बनते पुल गिर जाते हैं तो कहीं कार्य में लगी विशाल क्रेन श्रमिकों पर आ गिरती है। अभी 23 अगस्त को मिजोरम के सैरांग इलाके के पास एक निर्माणाधीन रेलवे पुल गिरने से 17 मजदूरों की मौत हो गई थी। 18 मई 2018 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में वाराणसी कैंट से लहरतारा के बीच बन रहे पुल के गिरन से 18 श्रमिक मरे थे। 31 मार्च 2016 को कोलकत्ता का विवेकानन्द फ्लाईओवर गिरने से क्रॉसिंग से गुजर रहे 50 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई, जबकि 90 से ज्यादा लोग घायल हो गए थे।
हादसे होने का कारण श्रमिकों और यात्रियों की सुरक्षा में बरती गई लापरवाही होता है। इसमें भी ऐसा ही हुआ। सुरक्षा मानकों के परीक्षण के लिए बनी एजेंसी सही से जांच और कार्य नहीं करतीं। इन्हीं के कारण हादसे जन्म लेते हैं। इस हादसे में भी ऐसा ही हुआ बताया जाता है कि इस सुरंग के बराबर में एक और सुरंग बननी थी। दोनों सुरंगों को बीच-बीच में आपस में जोड़ा जाना था। सुरंग निर्माता कंपनी और निर्माण के मानकों की जांच में लगी एजेंसियों के अधिकारियों की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। एक बात और, इस बचाव में रैट-होल खनिकों का भी बड़ा यागदान रहा। जबकि राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने रैट-होल खनन पर रोक लगाई हुई है। अच्छा यह है कि रोक के बावजूद देश की पुरानी परंपरागत ये तकनीक अभी जिंदा है। ये ही तकनीक हादसे के शिकार श्रमिकों को बाहर निकालने में कामयाब हुई।
इंसान कठिन से कठिन चुनौती को स्वीकार करने का शुरू से आदि है। आदिम अवस्था से आज तक उसकी यही जद्दोजहद उसे जिंदा रखे हुए है। इसी की बदौलत वह चांद पर पंहुचा तो कभी उसने माउंट एवरेस्ट का फतह किया। प्रकृति और इंसान का ये संघर्ष अनवरत चलने वाली प्रकिया है। कभी ये चुनौती हैजे के रूप में सामने आती है तो कभी कोरोना के। इनसे हारकर तो नहीं बैठा जा सकता। जलप्रलय, भूकंप से डरकर निकलना ही जिजिविषा है। यही बात इस मामले में सामने आई।