Sunday, May 18, 2025
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राष्ट्रपति की वेदना: कैसे मिले सस्ता-समुचित न्याय?

Ravivani 34


बतौर राष्ट्रपति पद उम्मीदवार, द्रौपदी मुर्मू जी, भारतीय जनता पार्टी की पहली पसंद थी। भारतीय जनता पार्टी के विचारकों को राष्ट्रपति महोदया की वेदना की तनिक भर चिंता हो तो उन्हे उत्तर प्रदेश सरकार को बाध्य करना चाहिए कि वह न्याय पंचायतों को पुनर्स्थापित करके उनके गठन की दिशा में कदम बढ़ाये। इसके लिए राज्य सरकार चलाने वाले भी संकल्पित हों, सेल्फ गवर्नमेंट चलाने वाले भी और संविधान दिवस पर महंगी व दीर्घावधि न्यायिक प्रक्रिया की बाबत महामहिम राष्ट्रपति महोदया की वेदना सुनने वाले न्यायधीश गण भी।

हजारों भारतीय गरीब सिर्फ इसलिए जेलों में जीवन गुजारने को विवश हैं, क्योंकि वे न संविधान की मूल भावना से परिचित हैं और न ही अपने संवैधानिक अधिकार व कर्तव्यों से। वे इतने गरीब हैं कि जमानत कराने में उनके परिजनों के घर के बर्तन बिक जायेंगे। जुर्म मामूली..किसी से तू तू-मैं मैं या किसी से हाथापाई; किन्तु मात्र गरीबी और अज्ञानता के कारण जाने कितने बिना जमानत जेल में जिदगी गंवा रहे हैं।

कोई पांच साल, कोई दस तो कोई 20 साल से जेलों में पडे़ हैं। बीते संविधान दिवस पर हमारी महामहिम राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की यह वेदना प्रकट की। उन्होने सभा में उपस्थित न्यायधीशों और कानून मंत्री से यह अपेक्षा की कि वे ऐसे दरिद्रनारायणों को समय से और सस्ते में न्याय दिलाने के लिए कुछ करेंगे। कहने को कहा जा सकता है कि हमारी सरकारों ने किया तो है। लोक अदालत, फास्ट ट्रैक कोर्ट, मध्यस्थता केन्द्र, न्याय मित्र और प्रार्थी को सरकारी वकील मुहैया कराने के प्रावधान इसीलिए तो हैं।

प्रश्न है कि तो फिर अदालतों में मुकदमों के अंबार क्यों लगे हुए हैं? तारीख-पर-तारीख से गरीब ही नहीं, विभागों व विश्वविद्यालयों से लेकर कंपनियों के नुमाइंदे-कर्मचारी तक हैरान-परेशान हैं। खासकर, दीवानी मुकदमों में फैसला पाने में पीड़ितों की एक पीढ़ी गुजर रही है। आखिर क्यों? घरेलु उत्पीड़न, तलाक, बलात्कार, छेड़खानी आदि मामलों में कानूनी पेचिदगियां इतनी ज्यादा क्यों हैं कि फर्जी और सही मुकदमें में भेद करना मुश्किल होता जा रहा है। दोषी और पीड़ित – दोनो ही सशंकित और प्रताड़ित रहते हैं कि फैसला आते-आते ऊंट जाने किस करवट बैठ जाए। उचित न्याय की गारंटी देना, खुद जजों के लिए भी मुश्किल हो गया लगता है। क्यों?

नीयत पर सवाल

जाहिर है कि मसला नीति से ज्यादा नीयत का है। तारीख लेने से लेकर दस्तावेज हासिल करने तक के लिए नजराना देना पड़ता है। जज भी जानते हैं; फिर भी यह चलन है कि टूटता नहीं। वकीलों की फीस है कि बढ़ती ही जा रही है। कोई लगाम नहीं। अब वे पीड़ित को पार्टी कहते हैं। ठेका करने लगे हैं। वकीलों का लक्ष्य पीड़ितों को न्याय दिलाना नहीं, उनसे अधिक से अधिक नकद वसूलना होता जा रहा है। लोगों का अपने वकीलों पर ही भरोसा नहीं। यह आम धारणा बनती जा रही है कि वादी-प्रतिवादी… दोनो के वकील आपस में मिले रहते हैं। आपस में मिलकर वे अपनी-अपनी ‘पार्टी’ को बेवकूफ बनाते रहते हैं।

साधारण से लेकर हाई प्रोफाइल मुकदमों तक में यह अनुभव सामने आये हैं। निचली अदालतों के वकीलों की आये दिन होने हड़तालें परेशानी का सबब हैं ही। वकील सोचें कि उन पर भरोसा बहाली कैसे हो? जज और वकील-दोनो राजा हैं। इनसे कौन लडे़। बस, इसी एक भाव के चलते भारत की न्यायिक व्यवस्था में सुधार प्रक्रिया सुस्त पड़ी है। इस भाव को बदलना होगा। कैसे? गंभीर मंथन और प्रभावी क्रियान्वयन जरूरी है।

प्राथमिकता बदलने की जरूरत

आइए, अब आइने को दूसरी तरफ घुमाएं। कहने को हम विकास कर रहे हैं। न्याय हासिल करने की दृष्टि से विकास का मतलब है कि व्यवस्था ऐसी हो कि अन्याय करने वाला हिम्मत ही न करे। हमारा नैतिक मनोबल इतना ऊंचा हो कि अन्याय करना, खुद को पाप करने जैसा लगे। प्राथमिकता तो यह होनी चाहिए कि विवाद हों ही नहीं। विवाद हों तो आपसी समझाइश से ही खत्म हो जाए। हम थाने तक जाएं ही नहीं। मुकदमा करने की नौबत ही न आये। मुकदमें कम से कम हों। मुकदमा तभी दर्ज किया जाए, जब कोई और चारा न हो। मुकदमे दर्ज हों तो उनका निष्पादन यथाशीघ्र हो।

थाना-पुलिस-कचहरी के अधिकारों की सीमा और अपनी सामर्थ्य के प्रति पर्याप्त जन-जागरूकता इसमें मददगार हो सकती है। किन्तु भारत में लागू की जा रही नीतियों का जोर इन सब पर नहीं है। राष्ट्रपति महोदया ने भी ताज्जुब व्यक्त किया कि हमारा जोर और अधिक जेल बनाने पर है। क्या यह सच नहीं कि हम ग्राम से लेकर राज्य तक सब जगह अधिक से अधिक न्यायालय तो बनाना चाहते हैं, लेकिन समझाइश के लिए दबाव व प्रोत्साहन को प्राथमिकता पर लाना नहीं चाहते? आइए, सोचें कि प्राथमिकता बदलने का कार्य कैसे हो?

एक कारण : टूटता ताना-बाना

हम जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता की सरकार हैं। इस संदर्भ में बकौल महामहिम-न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका को कहीं-कहीं एक सोच का होना चाहिए। किंतु जनता के हित में कहीं ऐसी ‘एक सोच’ का प्रदर्शन हो रहा है? नहीं, मामलों को स्थानीय स्तर पर सुलझा लेने की जो व्यवस्थायें पहले से सुचारू रूप से काम रह रही थीं, सरकारी नीतियां व निर्णय जाने-अनजाने उन्हे कमजोर ही कर रहे हैं।

सोचकर देखिए कि सशक्तिकरण के नाम पर हमने लिंग, जाति व अन्य वर्ग आधारित विभेद व विवादों को बढ़ाया है या उसमें घटोत्तरी की है? गांव हो या शहर, हमारी दलगत् राजनीति और निजी महत्वाकांक्षाओं ने स्थानीय सामुदायिक ताने-बाने में इतने सारे छेद कर दिए हैं कि हम पर निजता बुरी तरह हावी हो गई है। पड़ोसी पर होते अन्याय को भी हम उसका निजी मामला कहकर पल्ला झाड़ने लगे हैं।

कानून के रखवालों की नीयत पर भरोसा इस कदर उठ गया है कि इस कारण भी कोई किसी के मामले में पड़ने से बचना चाहता है। आज हम ऐसे घर, समुदाय व समाज हैं, जिनमें बुजुर्गों का इकबाल घटता जा रहा है। ऐसे में प्राथमिक स्तर पर समझाइश का काम कौन करे? दु:खद है कि जो सस्ते-सुलभ न्याय की प्रतीक्षा में हैं, उनमें व्याप्त विभेद ही विवादों को सबसे ज्यादा जन्म दे रहे हैं। खंगाले तो शायद सबसे ज्यादा मुकदमें ‘मैं बड़ा कि तू बड़ा’ की देन दिखाई देंगे।

क्या यू टर्न से बनेगी बात?

कहना न होगा कि सामुदायिक की जगह निजी की तेजी से बढ़ती प्रवृति एक ऐसा पहलू है, जिस पर यू टर्न जरूरी है। सामुदायिक भाव की समृद्धि हासिल किए बगैर विवादों की संख्या में घटोत्तरी असंभव है। निस्संदेह, ‘मैं नहीं, हम” का पारिवारिक व सामुदायिक संस्कार, इस दिशा में पहला कदम हो सकता है।

किन्तु यहां यह भी सच है कि चुनावों को दलगत् राजनीति की छाया व छाप से पूरी तरह से मुक्त किए बगैर सामुदायिक ताने-बाने में बढ़ते छेदों को छोटा करना असंभव है। लिहाजा, इस दिशा में संवैधानिक पहल जरूरी है। पंचायत और नगर निगम/पालिका चुनावों से शुरूआत की जा सकती है। क्या हमारी संसद व राज्यों की विधायिका यह करेंगी? हमारी ग्राम सभा व वार्ड सभा चाहें तो वे भी दलगत् छाया व छाप वाले प्रत्याशियों का बहिष्कार सुनिश्चित कर सकती हैं।

एक माध्यम: न्याय पंचायतें

यदि हम स्थानीय स्तर पर समझाइश की बात करें तो यहां पहले से जारी एक अचूक व्यवस्था को फिर से पुनर्स्थापित करना होगा। याद कीजिए कि नगरों में मोहल्ला निवासी संगठन तो गांवों में न्याय पंचायतें, विवाद सुलझाने व न्याय हासिल करने के सबसे सस्ते-सुलभ संस्थान रहे हैं।

समझाइश से समाधान- न्याय पंचायतों के अस्तित्व का तो मूल ही यही है। किन्तु क्या भारत की कितनी राज्य सरकारें इन्हे तवज्जो दे रही हैं? कितने राज्य पंचायती राज अधिनियमों में न्याय पंचायतों के गठन के प्रावधान हैं? न्याय पंचायतों को सक्षम बनाने के लिए कितनी राज्य सरकारों ने कदम उठाए हैं? उलट प्रवृति यह है कि उत्तर प्रदेश की योगी कैबिनेट ने तो न्याय पंचायतों को तो जड़ से ही खत्म कर दिया है। योगी कैबिनेट अपने पहले ही कार्यकाल में यह कारनामा कर दिखाया।

विधान परिषद ने मंजूरी नहीं दी। प्रवर समिति की रिपोर्ट भी न्याय पंचायतों को खत्म करने के पक्ष में नहीं थी; बावजूद इसके यह निर्णय लिया गया। वह भी इस तर्क के साथ कि न्याय पंचायतें अप्रासंगिक व अव्यावहारिक हैं ! न्याय पंचायतों के सरपंच व सदस्य न्याय करने में सक्षम नहीं हैं! आंकड़े बताते हैं कि जिन राज्यों में न्याय पंचायत व्यवस्था सक्रिय रूप से अस्तित्व में है, कुल लंबित मुकदमों की संख्या में उनका हिस्सेदारी प्रतिशत अन्य राज्यों की तुलना काफी कम है। उदाहरण के तौर पर भारत में लंबित मुकदमों की कुल संख्या में बिहार की हिस्सेदारी मात्र छह प्रतिशत है।

इसकी वजह यह है कि बिहार में न्याय पंचायत व्यवस्था काफी सक्रिय हैं। बिहार में न्याय पंचायतों को ग्राम कचहरी नाम दिया गया है। ग्राम कचहरियों में आने वाले 90 प्रतिशत विवाद आपसी समझौतों के जरिए हल होने का औसत है। शेष 10 प्रतिशत में आर्थिक दण्ड का फैसला सामने आया है। इसमें से भी मात्र दो प्रतिशत विवाद ऐसे होते हैं, जिन्हें वादी-प्रतिवादी ऊपर की अदालतों में ले जाते हैं। सक्रिय न्याय पंचायती व्यवस्था वाला दूसरा राज्य- हिमाचल प्रदेश है। ग्रामीण एवम् औद्योगिक विकास शोध केन्द्र की अध्ययन रिपोर्ट- 2011 खुलासा करती है कि हिमाचल प्रदेश की न्याय पंचायतों में आये विवाद सौ फीसदी न्याय पंचायत स्तर पर ही हल हुए।

न्याय पंचायतों के विवाद निपटारे की गति देखिए। अध्ययन कहता है कि 16 प्रतिशत विवादों का निपटारा तत्काल हुआ; 32 प्रतिशत का दो से तीन दिन में और 29 प्रतिशत का निपटारा एक सप्ताह से 15 दिन में हो गया। इस प्रकार मात्र 24 प्रतिशत विवाद ही ऐसे पाये गये, जिनका निपटारा करने में न्याय पंचायतों को 15 दिन से अधिक लगे। उक्त अध्ययनों से समझा जा सकता है कि भारत में कुल लंबित मुकदमों में यदि अकेले उत्तर प्रदेश की हिस्सेदारी 24 प्रतिशत है तो इसकी सबसे खास वजह कभी उत्तर प्रदेश पंचायतीराज अधिनियम में न्याय पंचायतों का प्रावधान होने के बावजूद उ.प्र. में न्याय पंचायतों के गठन का न किया जाना रहा है।

                                                                                                             अरुण तिवारी


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