बीते डेढ साल में देश को यह समझ आ गया कि भारत की मजबूती के लिए जितना जरूरी सेना की तैयारी है, सुगठित चिकित्सा सेवा उससे कम नहीं है। बीमारियां देश के अर्थ तंत्र, शिक्षा सहित लगभग सभी पक्षों को कमजोर कर रही हैं। आज सवाल यह है कि हमारी चिकित्सा नीति क्या हो? बीते कुछ सालों में अधिक से अधिक एम्स खोलना, निजी क्षेत्र में मेडिकल कालेज शुरू करना और जिला स्तर के अस्पतालों में अधिक से अधिक मूलभूत सुविधाएं जोड़ना हमारी प्राथमिकता रही। कोविड ने चेता दिया है कि यदि ग्रामीण अंचल में प्रिवेटिव हेल्थ का मूलभूत ढांचा होता तो बड़े अस्पतालों पर इतना जोर नहीं होता। यह बानगी है कि प्रधानमंत्री सहायता कोष से सारे देश को गए अधिकांश वेंटिलेटर इस्तेमाल में ही नहीं आए और इसका मूल कारण था कि कहीं बिजली नहीं थी तो कहीं इस मशीन को चलाने को स्टाफ नहीं था। एक बात समझनी होगी कि सरकार की प्राथमिकता लोगों का रोग अधिक गंभीर ना हो और उसे अपने घर के पास प्राथमिक उपचार ऐसा मिल जाए, ताकि कम से कम लोगों को बड़े अस्पताल या मेडिकल कालेज तक जाना पड़े। यह कड़वा सच है कि स्वास्थय सेवाओं में बड़े कारपोरेट के आगमन के बाद यही हुआ कि दूरस्थ अंचल पर रोगों के बारे में ना तो जागरूकता रही और ना ही उपचार, जब हालात बहुत खराब हो गए तो बड़े शहरों के नामचीन अस्पताल की ओर दौड़ना पड़ा।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का मानक है कि प्रत्येक तीस हजार आबादी (दुर्गम, आदिवासी और रेगिस्तानी इलाकों में बीस हजार) पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र या पीएचसी और पग्रत्येक चार पीएचसी पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र अर्थात सीएचसी हो। इसके अलावा प्रत्येक पांच हजार आबादी (दुर्गम, आदिवासी और रेगिस्तानी इलाकों में तीन हजार) एक उप केंद्र का भी प्रावाधान है। इस तरह देश में कोई एक लाख 58 हजार उप केंद्र, 24,885 पीएचासी और 5335 सीएचसी होने का सरकारी दावा है। इसके अलावा 1234 उपखंड व 756 जिला अस्पताल भी सरकारी रिकार्ड में हैं।
हालांकि देश की एक अरब 36 करोड के लगभग आबादी के सामने यह स्वास्थ्य तंत्र बहुत जर्जर है। वैसे भी देश की 70 करोड़ से अधिक आबादी 664369 गांवों में रहती हैं। उप्र में सबसे गांव हैं, जिनकी संख्या 97941 है, उसके बाद उड़ीसा में 51352, मप्र में 55392, महाराष्ट्र में 43,772, पश्चिम बंगाल में 40,783 और बंगाल में 45113 गांव हैं। जिस तरह से इन दिनों दूरस्थ अंचल में कोरोना संक्रमण फैल रहा है और कई राज्यों में बीस-बीस किलोमीटर में डाक्टर तो क्या नर्स भी नहीं है, अंदाज लगाया जा सकता है कि हालात कैसे होंगे। हमारे देश में एक डाक्टर औसतन 11,082 लोगों की देखभाल करता है जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक का दस गुणा है।
कोविड के समय दूरस्थ गांव का मरीज शहर में भटकता परेशान दिखा, उसका कारण है कि गांव व शहर के बीच की सीएचसी नाम मात्र की ही है। नियमानुसार हर सीएचसी में एक सर्जन, एक महिला रोग, बल रोग विशेषज्ञ व एक फिजीशियन होना चाहिए। तीस बिस्तरों के अस्पताल में नर्स, पैथोलाजी, एक्सरे जैसी मूलभूत सुविधाओं की अपेक्षा है। जमीनी आंकड़ें बताते हैं कि सीएचसी में डाक्टर के 63 फीसदी पद खाली हंै। इनमें सर्जन के 68.4 प्रतिशत, महिला रोग विशेषज्ञ के 56.1, फिजीशियन के 68.8 और बाल रोग विशेषज्ञ के 63.1 प्रतिशत पद खाली हैं। कुल मिला कर यहां 12.5 प्रतिशत डाक्टर व 3.71 प्रतिशत विशेषज्ञ ही काम कर रहे हैं।
इसके अलावा एक्सरे मशीन चलाने वाले के 3266, फार्मासिस्ट के 327 सहित अधिकांश पद खाली हैं। उप केंद्र में हजारों की संख्या में स्वास्थ्य सहायक हैं ही नहीं। देश के 63 जिले ऐसे हैं, जहां कोई ब्लड बैंक ही नहीं है और 350 से ज्यादा जिला व तहसील अस्पताल में एक भी वेंटिलेटर नहीं हैं। जान लें यदि हमारा दूरस्थ अंचल का स्वास्थ्य नेटवर्क काम ही करता होता और महज जागरूकता, प्राथमिक उपचार पर काम करता तो ना ही इतनी आॅक्सीजन लगती और ना ही इतने वेंटिलेटर की जरूरत होती।
चूंकि अब शहरों की ओर गांव से पलायन बढ़ा है और कोविड में देखा गया कि ऐसे लोग बेरोजगारी के डर से फिर गांव लौटे, जाहिर है कि इस तरह गांव की चिकित्सा व्यवस्था दुरूस्त ना होने का खामियाजा भुगताना पड़ा। जब दवा नहीं, सही सूचना नहीं तो ऐसे में अंध विश्वास के पैर फैलाने की पूरी संभावना भी रहती है और इससे संक्रमण जैसे रोग खूब फैलते हैं। देश के आंचलिक कस्बों की बात तो दूर राजधानी दिल्ली के एम्स या सफदरजंग जैसे अस्पतालों की भीड़ और आम मरीजों की दुर्गति किसी से छुपी नहीं है। एक तो हम जरूरत के मुताबिक डाक्टर तैयार नहीं कर पा रहे, दूसरा देश की बड़ी आबादी ना तो स्वास्थ्य के बारे में पर्याप्त जागरूक है और ना ही उनके पास आकस्मिक चिकित्सा के हालात में कोई बीमा या अर्थ की व्यवस्था है। हालांकि सरकार गरीबों के लिए मुफ्त इलाज की कई योजनाएं चलाती है लेकिन व्यापक अशिक्षा और गैरजागरूकता के कारण ऐसी योजनाएं माकूल नहीं हैं।
आज यदि देश के स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करना है तो बड़े अस्पताल या एम्स जैसे लुभावने वायदों के बनिस्बत प्रत्येक पीएचसी में बिजली, पानी सहित डाक्टर व स्टाफ के रहने की व्यवस्था, हर दिन सीएचसी से एक वाहन का पीएचसी में आगमन जो पैथालाजी लैब के सेंपल ले जाने, जरूरी दवा की सप्लाई के अलावा स्टाफ के निजी इस्तेमाल की ऐसी चीजें जो गांव में नहीं मिलती, उसके लाने ले जाने का काम करे।
ग्रामीण अंचलों में सेवा कर रहे डाक्टरों के बच्चों की उच्च शिक्षा का जिम्मा सरकार ले व यदि वे बच्चे शहर में पढ़ते हैं तो उनके हॉस्टल आदि की व्यवस्था हो। डाक्टर भी तभी काम कर पाएगा जब उसके पास मूलभूत सुविधांए होंगी। इसी तरह पीएचसी में सेवा करने वाले डाक्टर का दस साल में सीएससी और सीएएसी में सात साल सेवा करने वाले को जिला या तहसील पर तबादले की नीति बने। दवा व मरहम पट्टी जैसी आवश्यक खरीदी का स्थानीय बजट, हर स्त्र के अस्पताल में निरापद बिजली व पानी की व्यवस्था, वहां काम करने वालों की सुरक्षा पर काम करना जरूरी है।
कुछ साल पहले तब के केंद्र के स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने ग्रामीण क्षेत्रों के लिए अलग से डाक्टर तैयार करने के चार साला कोर्स की बात कही थी। इसके लिए प्रत्येक जिला अस्पताल में 40 सीटों के मेडिकल कालेज की बात थी। जाहिर है कि निजी मेडिकल कालेज चलाने वालों के हितों पर इससे चोट पहुंचनी थी सो वह योजना कभी परवान चढ़ नहीं सकी। आज जरूरत है कि उस योजना का क्रियान्वयन हो, साथ ही आयुष चिकित्सकों को भी आपातस्थिति में सरकारी अस्पतालों में इंजेक्शन आदि लगाने के लिए तैयार किया जाए।