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यह घटना उस समय की है जब गांधीजी बच्चे थे। सामान्य बच्चों की तरह मोहन बहुत नटखट व शैतान थे। एक बार मोहन ने सोने का एक कड़ा चुरा लिया। घर में जब सोने का कड़ा ढूंढा गया तो सभी बच्चों से इस बारे में पूछा गया। मोहन से भी कड़े के बारे में पूछताछ की गई लेकिन उन्होंने दूसरे बच्चों की तरह मना करते हुए कहा, मुझे इस बारे में कुछ नहीं पता। उस समय तो पिताजी चुप रहे लेकिन कुछ समय बाद उन्हें असलियत का पता चल गया। गांधी जी सोचते रहे कि अब मामला टल गया है, कुछ नहीं होगा।
लेकिन यह उनकी भूल थी। उन्होंने मोहन को अपने पास बुलाया और बोले, मोहन, मुझे पता चला है कि वह कड़ा तुमने ही चुराया है। यह सुनकर मोहन डर से थर-थर कांपने लगे और अपना जुर्म कुबूल कर लिया। मोहन के जुर्म कुबूल करते ही पिताजी ने बांस की एक पतली छड़ी ली।
जैसे ही वह छड़ी लेकर मोहन के पास आए, उन्होंने अपनी आंखें डर से बंद कर लीं। कुछ देर बाद उन्हें लगा कि छड़ी मारने की आवाज तो आ रही है लेकिन उनके शरीर पर नहीं बल्कि किसी और के शरीर पर। उन्होंने आंखें खोलीं तो यह देखकर दंग रह गए कि पिताजी बांस की छड़ी से स्वयं को मार रहे थे। मोहन घबराकर बोले, पिताजी, यह आप क्या कर रहे हैं? चोरी तो मैंने की है, फिर मुझे सजा दीजिए।
पिताजी बोले, बेटा, तुमसे पहले मुझे सजा मिलनी चाहिए। शायद मेरे संस्कारों में ही कोई कमी रही होगी जो तुमने चोरी की। अगर मेरी शिक्षा सही होती तो तुम भला चोरी क्यों करते? सुनकर मोहन बोले, पिताजी, मैं प्रण लेता हूं कि आज के बाद चोरी नहीं करूंगा न ही कभी हिंसक कामों को अंजाम दूंगा। अब आप इस छड़ी को फेंक दीजिए।
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